बचपन में सोचता था मैं एक चिड़िया बनूंगा. आज इतने साल बीत जाने के बाद भी मुझे लगता है किसी दिन चलते चलते उड़ने लगूं और चिड़िया बन जाउंगा.
हमारी दुनिया के बाहर भी एक दुनिया है क्या?
एक दुनिया जिसमें हम रहते हैं. एक दुनिया जो हम दूसरों को दिखाते हैं. और एक जो छिपा रहता है. कही हमारे भीतर ही चलता रहता है.
जो पुरानी चीजों की याद में रहता है. चले गए लोगों की ललक में. उस दुनिया से हम बिल्कूल अकेले में मिलते हैं. उन गए लोगों को याद करते हैं. उन यादों को याद रखने की कसमें लेते हैं.
शायद, चलते चलते इस दुनिया से उस दुनिया में पहुँच हम उड़ने लगते हैं.
ट्रांजिट करते इस दुनिया और उस दुनिया में हम किसी दिन ऐसे ही थक जायेंगे. और फिर बैठ कर सुस्ताने बैठेंगे तो पता लगेगा कि हमारी कोई जमीन नहीं है, हमारे आसमान को किसी ने रंग दिया है.
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