यूपी को रास नहीं
आयी भाई-बहन की जोड़ी
भारतीय राजनीति में
प्रसिद्ध है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ की
गलियों से गुजरता है। लेकिन इस कहावत पर विश्वास करें तो केंद्र में लंबी पारी
खेलने का सपना देख रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह अच्छी खबर नहीं है।
उत्तर प्रदेश सहित सभी राज्यों के चुनाव
परिणाम ने सबसे ज्यादा यदि किसी को मुश्किल में डाला है तो वो है-कांग्रेस। कांग्रेस
के युवराज राहुल गांधी की 250 से ज्यादा हवाई दौरे भी कांग्रेस की नैया पार करवाने
में सफल नहीं हुए। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य का फैसला करने
वाला है।
कांग्रेस के लिए यह चुनाव परिणाम 2014 में होने
वाले आम-चुनावों के लिए भी कई सबक लेकर आई है। उत्तर प्रदेश में राजनीति की सच्चाई
बन चुकी जाति के राग से खुद राहुल भी अछूते नहीं रह पाये थे। लेकिन जनता को शायद
विकास की छवि वाले राहुल के मुंह से सैम पित्रोदा की जाति का नाम सुनना रास नहीं
आया।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात उससे
मुस्लिम वोटों का दूर छिटकना है। चुनाव के समय में मुस्लिमों को याद करने वाली कांग्रेस
पार्टी को यह समझना चाहिए कि अब मुस्लिम वोटर भी इस बात को समझ गये हैं कि बात
करने से कुछ नहीं होने वाला सरकार में हो तो उनके लिए काम करो। यदि यही स्थिति रही
तो पूरे देश के मुसलमान वोटर कांग्रेस से तौबा कर सकते हैं।
दूसरी चिंता की बात है कांग्रेस के परंपरागत
दलित और ब्राह्मण वोट का उससे दूर हो जाने का।यही वो वजहें हैं जिसकी वजह से सत्ता
विरोधी लहर का फायदा भाजपा को तो कुछ मिल गया है लेकिन कांग्रेस पीछे रह गयी।
पंजाब ने भी कांग्रेस को चौंकाया है। खासकर
राहुल गांधी की विशेष पसंद कैप्टन अमरिंदर सिंह के असफल होने से राहुल की छवि को
खासा नुकसान पहुंचा है और उनके राजनीतिक कौशल पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। यही
हाल उत्तराखंड का भी है,जहां कांग्रेस जीतते-जीतते हार गयी है।
राहुल की नाकामी से ही कांग्रेस की मुश्किलें
थमने का नाम नहीं ले रही हैं। कांग्रेस जिस प्रियंका को राहुल के मजबूत विकल्प के
रूप में पेश कर रही थी,वही प्रियंका अब उसके लिए एक कमजोर मोहरा साबित हो गयी है।
काग्रेंस के गढ़ रायबरेली और अमेठी में प्रियंका का डेरा जमाना भी कांग्रेस को कुछ
लाभ नहीं पहूंचा पायी। दोनों जगहों पर कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी है। दरअसल
जनता भी समझ चुकी है कि चार दिन के लिए दिल्ली की आरामतलब जिंदगी को छोड़कर आने
वाली नेता उनके दर्द को नहीं समझ सकती।
अब कांग्रेस को एक साथ कई चुनौतियों का सामना
करना पड़ेगा। उसकी स्थिति केंद्र में भी कमजोर हुई है और उसे राष्ट्रपति चुनावों
को लेकर सपा की ओर टकटकी लगानी पड़ सकती है।वहीं राज्यों में भी उसे अपनी राजनीति
की समीक्षा करनी पड़ेगी। साथ ही उसे एक ऐसा चेहरा भी ढूंढना होगा जो चुनावी सभाओं
में आयी भीड़ को वोट में तब्दिल कर सके।फिलहाल राहुल की यह हार प्रधानमंत्री मनमोहन
सिंह के लिए राहत की बात हो सकती है जिनके नेतृत्व में 2014 का आम-चुनाव कांग्रेस
को लड़ना पड़ सकता है।
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