Monday, June 18, 2012

ऑफिस में आशा-निराशा के छाए बादल


ऑफिस में आशा-निराशा के छाए बादल
पढ़ाई के दिनों से ही अक्सर कोई शख्स मिल जाता तो ये जरूर कहता, अरे क्या मीडिया में काम करेगा। वैसे भी मैं देश के जिस हिस्से और समाज से आता हूं, वहां आज भी डॉक्टर और इंजीनीयर होने मात्र को लायक लड़का निकला है- समझा जाता है।
बाद में चलकर जब पटना कॉलेज में एडमिशन लिया था हिन्दी ऑनर्स में तो लोगों को अपना कोर्स बताने से बचता फिरता । रिश्तेदार भी कहते कि इतना हल्का विषय पढ़ के क्या उखाड़ लेगा। ऐसे दवाब को झेलते हुए खुद भी लगता कि कहीं गलत फैसला तो नहीं ले लिया। लेकिन फिर मन में आता कि नहीं भैया बनना तो पत्रकार ही है। उन दिनों मेरे मन में किसी प्रेमिका की तस्वीर नहीं होती, हमेशा आईआईएमसी के सपने आते। मन कहता मुझे ज्यादा पैसे की जरूरत नहीं है। बस खाने लायक मिल जाय और क्या चाहिए।
आज भी वो दिन याद है जब एक सीनियर आईआईएमसीयन भैया से मिला था। उन्होंने तमक कर कहा अपनी जिंदगी बरबाद मत करो। छोड़ दो पत्रकारिता का सपना। किसी क्लर्क की जॉब कर लो। वो इससे ज्यादा अच्छा है। दिमाग अंदर से हिल गया था। लेकिन मन के अंदर से आईआईएमसी और पत्रकारिता का ख्याल हिलाना मुश्किल था। इसके बाद जैसे-तैसे कोर्स में आ गया। यहां भी ऐसे लोग मिलते रहे जो इस पेशे को पानी पी-पी कर गालियां देते थे।लेकिन इनमें से अधिकतर लोग किसी बड़े मीडिया हाउस में काम करने वाले ही होते।
उस समय जब कॉलेज में वेतन को लेकर बहस होती तो मैं उन कुछ लोगों में शामिल होता जो 6 हजार रूपये में भी काम करने को तैयार थे। लेकिन किस्मत से अच्छी-खासी रकम भी सैलरी के तौर पर मिली।
यहां जब ऑफिस आया तो बड़े-बड़े पत्रकारों से लेकर फोटोग्राफर तक सलाह देते रहे कि छोड़ दो इस पेशे को। वो गलत हैं ऐसा मैं नहीं कह सकता आखिर 5-10 हजार में खटने वाले लोग ऐसा सोचते हैं तो इसमें गलत नहीं है। मैं इंटरमिडियट में पूरे बिहार में पांचवी रैंक पर था। मैं चाहता
मैं चाहता तो आराम से दूसरे पेशे में जा सकता था। लेकिन मैंने जो सोचा वो पाया है। इस पेशे को हमने मजबूरी में नहीं चुना है, बल्कि एक जुनुन है जिसने मुझे यहां ले आया है।
मुझे विश्वास है कि मैं अच्छा कर ले जाउंगा। बस ऑफिस के आशा-निराशा से बच सकूं तो!!

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