Saturday, October 27, 2012

मेला के बहाने रोमांस..एक्शन..की कुछ तस्वीरें

रात सात-आठ बजे मेला देखने लोग घर से निकल जाते..रास्ते में भाई टाइप लोग बहन के साथ या माँ-बाबू जी। मजनूं टाइप दोस्त लोग रास्ते में खड़े रहते..कभी आगे -कभी पीछे..लेकिन मेला में पहुंचते लड़की आजाद चिड़िया .भाई लोग अपने दोस्त के साथ तो मम्मी लोग दूसरी आंटियों के साथ बिजी..उ कभी चुड़ी दुकान पर त कभी चाट दुकान पर..दोस्त लोग भी बगल वाले दुकान पर डटे रहते-ऑरिजनल मजनूं उसके पास तक पहुंच जाता-बांकि दोस्त उ
सको कवर किए हैं..बहुत हिम्मत करके एक कागज का फटा टुकड़ा लड़की के पास गिराता-लड़की झट उठा अंदर..दोस्त, लड़की,लड़का सबका दिल धुक-धुक..धुक-धुक। लेह एतने में कहीं से भाई टपकता है-मार रे..पकड़ रे..बेल्ट निकाल..चेन निकाल..स्साला..तड़ाक-धड़ाक-धुडूम-कौन पिटाया..कौन बचा कोई हिसाब नहीं- मेला आयोजक भाई लोग लाठी-डंडा लेके दौड़ता-मामला शांत
कल से मेला शुरु हो जाएगा..रात भर मेला में लोग जमे रहेंगे, डटे रहेंगे- नाटक कम आर्केष्ट्रा देखने के लिए..(हैप्पी मेला)
 
 
घर भरने लगा होगा..मुंबई, दिल्ली पढ़ने और कमाने गए लौग लौट रहे होंगे..घर के लिए नये कपड़े और बच्चों के लिए खिलौने लिए..जनरल डिब्बों से लेकर एसी तक में हांफते..अपने स्टेशन का इंतजार करते लोग ट्रेन में बैठ गए होंगे..माँ रसोईघर को संभालने में बिजी होगी, भाभी अपने देवर से ठिठोली करती रोटियां सेक रही होगी..अब तरकारी (सब्जी) भी दो-तीन पकने लगे होंगे..घर से पलायन कर चुके लोगों की त्योहार में घर लौटने की ख
ुशी किसी कविता के शब्द ही हो सकते हैं..घर के बच्चे चाचा..पापा कहते आंगन में घूम रहे होंगे इधर-उधर..कभी-कभी संवदिया बन.
बचपन से घर से दूर ही रहा..पहले ज्ञान लेने के लिए अब ज्ञान देने के लिए (अखबार में ज्ञान ही तो देता हूं न)
घर इंतजार कर रहा होगा मेरी छुट्टियों का..चाहता हूं जल्दी से पहुंच जाउं उनके बीच..(हैप्पी मेला)
सच में, life needs format
 
 
हल्की ठंड लगनी शुरु हो जाती..हम बच्चा लोग हाफ स्वेटर पहन कर जाया करते
मेले में नाटक देखने..नाटक कम डांस ज्यादा देखते..सबसे आगे बैठ के हियो हियो..करते- लड़की को पटावे के लिए उसके दोस्तों तक को चाट खिलाते..कोई जीजा..साला टाइप गेस्ट आ जाता तो उ घर-गांव की लड़की सब के साथ बच्चा लोग को भी मेला दिखाने ले जाता..बैलून खरीदते थे..बहुत बार बदमाशी में चुड़ी से दूसरे का फोड़ते भी..दशमी दिन नया-नया कपड़ा पहन के मेले में जाते..दूसरे के नयका कपड़ा से अप्पन वाला की तुलना करते..नवरात्रा के समय गांव भर में दिल्ली-बंबई-कलकत्ता से कमा कर लौटे भाई लोग घूमते रहते- गांव के लोग कहते- देखअ, टिन्ही हिरो बनके आयल है..
हैप्पी मेला
पंडाल सज गए होंगे..मेला भी..हर पंडाल के साथ उस मोहल्ले का स्टेट्स सिंबल भी चिपका रहता..हमारे यहां इतना बत्ती..ये झूला..ये झूमर..
दूसरे पंडाल की माइक्रस्कोप से बुराई खोजना..हर पंडाल दूसरे से बड़ा-भव्य दिखने का होड़ करते..आपस में लड़ते-पड़ते
मेला के दस दिन बाद तक अपने-अपने पंडाल महिमा का बखान करते स्कूल में लड़ते-मरते..गांव में पंडालों को फाइनेंस करने वाले नहीं होते..सब चंदा होता-इसिलए बात पूरे गांव के स्टेट्स सिंबल की हो जाती..(हैप्पी मेला)
 
बचपन छूटता गया..साथ में मेला का स्वाद भी कड़वा होता गया..दुर्गा पूजा के नाम पर गरीबों से जबरदस्ती चंदा उगाही..चंदे के पैसे से आर्केष्ट्रा के नाम पर लड़कियों के नाचने में सुख की तलाश करता बिहारी सामंती समाज..मेले और पूजा के दौरान अगड़ी जाति
यों द्वारा आपसी वर्चस्व की लड़ाई..बीच में डरे-सहमे नीचली जाति के लोग..पूजा के दौरान हिन्दु धर्म, गौ रक्षा..ब्राह्मण रक्षा जैसे उन्मादी नारे..और इन सबमें हाशिये पर स्त्री और नीचले तबके की अस्मिता (hate mele)
:(

1 comment:

  1. bhai tere blog pad ke gau ki sankriti aur samaj ke vichar taza ho gye ....nice to read this...

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