Sunday, October 7, 2012

बचपन वाया किक्रेट


बचपन को याद करने के लिए कई चीजें एक साथ आँखों के सामने आ जाती हैं. अब देखिये न, जब भी धोनी और पठान को खेलते देखते हैं तो लगता है- काश, पढ़ने पर न सही खेलने पर ही ध्यान दे दिए होते त फ्यूचर सेटल हो गया रहता. ऐसा नहीं है कि खेले नहीं हैं, खूब खेले हैं। मोहल्ले में एक जमाना था जब हम ओपनर बल्लेबाज होते थे। फिर क्या था हर शॉट के बाद सूरज देवता के तरफ प्रणाम, उ जमाना में जूल्फी(आगे की तरफ बढ़े हुए बाल) रखने का फैशन चला था. हम भी रखे थे, (भले मामा मोसा टैप लोग गरियाते, लतियाते रहते)। त हम कह रहे थे कि हर गेंद के बाद हम अप्पन जूल्फी के हाथ से उपर की ओर झटक देते। बांकि टीम बोल उठती जियह बाबा, हर चौक्का पर समवेत स्वर में यही आवाज "जियह बाबा"। अपने से आजतक छक्का जियादा नहीं लग पाया फिजिकल प्रोब्लेम होगा शायद।
इंटरनेशनल क्रिकेट में कभी सचिन चलते हैं त कभी धोनी । टाइम-टू-टाइम खिलाड़ी का फॉर्म डिसाइड होता है। मेरे साथ भी एक समय आया जब हर दूसरे बॉल पर आउट होने लगे। हम समझ गए कि फॉर्म गड़बड़ा गया है। फिर टीम में बमे रहने के लिए टीम को फाइनेंस करने लगे। तीन पारलेजी का बेट लगता त एक पारले जी हम अकेले देते। उस समय तीन रुपए में खरीदी गई पारलेजी भी बहुत भारी चीज लगता। एगो दोस्त था बनिया उ अकेले तीनों पारलेजी देने लगा(बाप से चुरा कर अपने दुकान से ले आता) धीरे-धीरे मोहल्ले के क्रिकेट टीम से ही बाहर का रास्ता देखना पड़ा। फिर हम कुछ अपने से जूनियर सबको जूटाकर मोहल्ला बी टीम बना लिए। कैप्टन भी खुद- ओपनर बल्लेबाज भी और गेंदबाज भी। उसके बाद खूब खेले..दूसरे जूनियर टीम से मैच लेते. फॉर्म भी वापस आ गया। धीरे-धीरे सीनियर टीम में भी जगह बना लिए। आज सबको इंडियन क्रिकेट टीम में इन्ट्री के लिए जोड़-तोड़ करते देखते हैं त अपना पुराना दिन याद आ जाता है।
धीरे-धीरे पढ़ाई के लिए गांव छोड़ना पड़ा, मोहल्ला क्रिकेट भी पीछे रह गया। सोचते हैं आज अगर खेलते रहते त कहीं न कहीं पहुंच गए रहते, नय कुछ त कोई संघ के सचिव-अध्यक्ष ही बन गए रहते। फिर हमरा नाम भी अखबार में छपता- गली से लॉर्डस तक पहुंचा बिहार का लाल
खैर, अब स्पोर्ट्स रिपोर्टिंग के सिलसिले में इ संघ वाला सबका खबर छाप रहे हैं- करम(किस्मत) में शायद कलम घिसना ही लिखा है..घिसरपिटर करते रहते हैं..आमीन

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