Thursday, April 10, 2014

दो साल और इत्ता कुछ

(बहुत मजेदार नहीं है, इसको नहीं भी पढ़ा जा सकता है)


9 अप्रैल, 2014। दो साल हुए। नौकरी करते। हर महीने घर से पैसे नहीं मंगवाते। हर महीने की पांच तारीख को एटीएम पर जा पैसे का इंतजार न करते। दो साल भी एक-एक साल में बंटा। शुरुआती एक साल रिपोर्टर की नौकरी करते गुजारी तो दूसरे साल शहर-गांव-कस्बों में घूमते हुए जंगल बचाओ, जंगल बचाओ चिल्लाते।



शुरूआत के एक साल। हमारा दिन गुजरता जाता है, जिन्दगी की गाड़ी बढ़ती जाती है और गुजरे हुए की याद भी मिटती जाती है। दिमाग का इरेजर अगर काम न करे तो न जाने कितनी चीजें अटकी-फंसी रह जाये। तो वो शुरूआती एक साल एक रुटिन वर्क का हिस्सा ही लगता है मुझे।
सुबह के 11 बजे अपने दफ्तर पहुंच जाना। रुटिन आईडिया लिखकर फोल्डर में सेव करना और फिर निकल पड़ना कुछ खबरों की तलाश में। कभी प्यार कभी गुस्सा और कभी हल्का-सा डर पैदा कर  अफसरों, चपरासियों, क्लर्कों, छपास रोग से पीड़ित शहर के माननीयों से खबरे निकलवाने का सिलसिला। गाहे-बगाहे बाइलाइन खबर। कभी रुटिन वर्क में भी बाइलाइन तो कभी स्पेशल स्टोरी में भी अपना नाम नदारद देखने से हमारी खुशी और सफलता तय हो जाती जबकि सच्चाई है कि अखबारों में बाइलाइन आपके डेस्क के सीनियरों से रिश्ते तय कर दिया करते हैं।



मुझे लगता है। शायद खुद को ओवर करके आंक रहा हूं। मेरे कलीग और कमलेश सर बेहतर बता पायें। लेकिन महीने-दो महीने के भीतर ही नगरपालिका का चुनाव कवर करते-करते, जनता से संवाद कार्यक्रम के बहाने तेजतर्रार रिपोर्टर की पहचान बना ही ली थी ऑफिस के भीतर।



पहले पहल तो कोई बीट ही नहीं मिली। जहां भी किसी डेली असाइनमेंट में भेजा जाता हम तीनों-चारों साथ ही हो लेते। हम मतलब- मैं, नेहा, सरोज और रिमझिम। आईआईएमसी से बाहर निकल कर हमारे बीच जो मजबूत रिश्ता बना वो आज भी मुझे लगता है कम-से-कम बची तो है ही। एक ही धंधे में रहते हुए अपने समकालीनों से रिश्ते बेहतर हालत में बची रहे यही खुद को शाबासी देने के लिए कोई छोटा बहाना थोड़े न है।


और जब हमें बीट मिली भी तो क्या- स्पोर्ट्स। क्लचरल, रेलवे, हेल्थ, एजुकेशन कुछ नहीं बचा था मेरे लिए तो उठाकर खुद ही पटक लिया खुद को इस बीट में।
बिहार में भले स्पोर्ट्स रिपोर्टिंग का स्कोप बहुत न हो लेकिन पटना के खेल पत्रकार खुद को दूसरों के मुकाबले थोड़े ऊंचे दर्जे का जरुर समझते हैं। भले दूसरे बीट के लोग स्पोर्ट्स वालों को भाव दे या न दे।


तो कैसे हो? दिमाग इन्हीं सवालों में उलझा था कि हर एक खेल पर रिपोर्टिंग शुरू करो। अगर अच्छे की रिपोर्टिंग नहीं हो सकती तो बुरा क्यों है इसी पर शुरू हो जाओ- कहते हुए संपादक केके सर ने मामले को सुलझा ही दिया।


बिहार का एक अखबार। अखबार हिन्दुस्तान। और अखबारी दुनिया का वो समय जब नीतीश शासन काल में मीडिया का आपातकाल घोषित किया जा चुका हो। शुरू हुई यात्रा। बीच में सरोज-अविनाश नाम से छपे कुछ एकाध दर्जन रिपोर्ट को जानबुझकर स्किप कर रहा हूं क्योंकि डर है कि कहीं सरोज को नागवार न गुजरे। करीब दो साल की अटूट दोस्ती के बाद हमारे रिश्ते में फिलहाल एक ठहराव आ गया है। हम दोनों उस ठहराव को वहीं छोड़ आगे बढ़ चुके हैं लेकिन सच बात तो है कि दोनों ने मिलकर खूब स्टिंग किए, खूब घूप में खड़े हुए और खूब माथा पच्ची खबरों के पीछे भी करते रहे।



खैर, थोड़ा बोर कर रहा हूं। इत्ता लंबा लिखने का मन नहीं था। इन सोर्ट बोलूं तो शुरुआत के एक साल में मिले कुछ दोस्त, कुछ खेल से जुड़े लोग जो अभी भी फोन कर-कर मिस करते रहते हैं, कुछ रिपोर्ट्स जिन्हें किसी को दिखाने में अच्छा लगता है कि देखो मुख्यधारा में रहते हुए, स्पोर्ट्स जैसे बीट पर भी जनसरोकारी खबरें कर पाया मैं (थोड़ा आत्ममुग्घ साउंड करने के लिए सॉरी)



पिछले एक साल से आदिवासियों के बीच। जंगल-जमीन बचाने के अभियान में लगा। न जाने कितने रिपोर्ट्स लिखे, कितने पन्ने बर्बाद किए। लड़ाई अभी भी जारी है। जंगलों को, आदिवासियों को दिल्ली में बैठे बहसों-सेमिनारों से इतर सामने से देखने-समझने का मौका मिल रहा है। बीच-बीच में कई शहरों को भी जानने का सो अलग।




किस्सा बहुत लंबा है। ज्यादा लिख नहीं पा रहा। (एक खास बात है, मुझे लग जाता है कि मैं अच्छा नहीं लिख रहा हूं। यहां भी लग रहा है। इट्स नॉट सो इंटरेस्टिंग। इसलिए इस पोस्ट को यहीं  बीच में ही खत्म कर रहा हूं।)

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