Tuesday, September 2, 2014

पापा


पापा


मैंने अपने पिता को देखा है तस्वीरों में,
कभी हाथ उपर लहराते, कभी मुट्ठी को हवा में उठाते,
उनकी तेज आवाज को सुना नहीं कभी, लेकिन महसूसा है उन माइकों के मार्फत जिन्हें उनकी मुट्ठियों ने जकड़ कर रखे हैं,

मैंने अपने पिता को सुना है,
उन गांव वालों से जो कहते हैं- कि वो होते तो आज गांव बदल जाता, हमारी हालत सुधर जाती

मैंने देखे हैं अपने पिता को उन दादियों के किस्से में
जिसमें वो एक-एक रोटी हर घर से चंदा लेकर खिला देते हैं अपने सैकड़ों कार्यकर्ताओं को

मैंने महसूसा है पिता को अपनी माँ की आँखों में, उसके इंतजार में, उसके अकेलेपन के हजार साल में

देखने और सुनने को नहीं देखा कभी अपने पिता को।
लेकिन महसूसा है हर दिन रोते हुए, उनकी तस्वीर के आगे

मैंने उनके कंधे पर खुद को झूलते देखा है,
मैंने देखा है अपने पिता को गांव के हर उस झोपड़ी में, जहां उनकी तस्वीर खोंस कर रखी गयी है दिवाल पर,

मैंने पिता को उन आस्थाओं में देखा है जहां बिना उन्हें चढ़ाये लोग नहीं खाते दिन का पहला कौर।

उन हजार मूर्तियों और तस्वीरों में मैंने पिता से बात की है, हर बार रोते हुए, मुसीबत में फँसे हुए।

मैंने पिता को देखा है एक दिन लाल सुरज में बदलते, उन तमाम बदलाव के सपनों के बीच मुझे दुलारते, मेरी हिम्मत बढ़ाते।

अपने साथ हर समय खड़े मैंने अपने पिता को देखा है, महसूसा है।

3 comments:

  1. चंचल बाबू तुम्हारी शब्दों और भावनाओं के सामंजस्य बिठाने की कला का मैं बहुत बड़ा कायल हूँ. कई बार इतनी व्यस्त जिंदगी में कुछ पल निकाल कर तुम्हारे ब्लॉग को पढता हूँ. बहुत अच्छा लिख रहे हो...

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    1. ब्रह्मानंद भाई आपका अचानक से यहां कमेंट पढ़कर ऐसा लगा मानो किसी अनजान शहर में भटक रहे हों और किसी चौक-चौराहे पर कोई अपना मिल गया हो।

      फेसबुक से इतर यहां भी आप आते हैं, ये जानना ही मेरे लिये सुखकर है। आपका आभार

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  2. मैंने देखा है मेरे बड़े भाई के स्नेह को , बिना उनसे मिले बस फ़ोन पर उनकी आवाज़ में ।:)

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