सुनो दगड़िया,
परेशान हो गया हूं। रात दिन तुम्हें ही याद करता हूं। तुम्हारे प्रेम को शायद उतना नहीं लेकिन दोस्ती को। हमारी दोस्ती बहुत याद आती है साथी। आजकल पुराने दिनों को याद करता हूं। शुरूआती दिन जब हम दोस्त थे। जब हमारे बीच प्रेम था, लेकिन प्रेम वाला रिश्ता नहीं था। दो-तीन साल तो रहे होंगे ऐसे।
उन्हीं दिनों जब यूनिवर्सिटी के आसपास चलते हुए मन में एक छिपी हुई उम्मीद चलती थी कि तुम ऐसे ही राह चलते टकरा जाआगी। और हम मिलेंगे, तुम हड़बड़ी में रहोगी, मैं हाल-चाल पूछूंगा और तुम अपने रास्ते चली जाओगी।
कैसे न दिन थे वे। कितना कुछ उन दिनों का स्मृतियों में जा फंसा है। साथ के सात सालों में कभी तुम्हें बताया नहीं। काश कि बता पाता। काश कि....खैर जाने दो।
तुम अक्सर
मुझे समझ नहीं आ रहा। पूरी दुनिया से लड़ाई जैसी हालत हो गयी है। न किसी से मिलना, न किसी से बात करना, कुछ भी ऐसा नहीं जिसका मन रह गया हो।
बस अकेले कमरे में बैठे रोते रहने में ही सुकून नजर आने लगा है।
ये चिट्ठी बहुत चोरी-छिपे लिख रहा हूं, कि नहीं चाहता इन चिट्ठियों तक कभी तुम पहुंचो...कभी नहीं...
ख्याल बना रहता है....तुम्हारा ही
तुम्हारी तबीयत का
तुम्हारे गुस्से की अब कोई याद नहीं आती, रोना याद आता है..
जनवरी की वह दोपहर याद आता है, जब लौट रहा था इस शहर से और तुम रो रहे थे...
यहां अकेला पड़ता गया हूं...ऐसा नहीं कि लोग नहीं हैं...बहुत लोग हैं..बहुत सारे
कोशिश करते रहते हैं मिलने की, बात करने की, अपनी खुशी में शामिल करने की...लेकिन मैं एक-दो-तीन कदम चलकर फिर लौट आता हूं...
नहीं चल पाता उनके साथ...
लगता है तुम नहीं हो तो फिर कुछ भी नहीं...किसी के भी होने का कोई मतलब नहीं..शायद इसलिए अपने आसपास के सारे लोगों से भी कटता चल रहा हूं..
खैर,
मन भर रहा है इतना लिखने में ही...
फिर कभी
और
विदा
परेशान हो गया हूं। रात दिन तुम्हें ही याद करता हूं। तुम्हारे प्रेम को शायद उतना नहीं लेकिन दोस्ती को। हमारी दोस्ती बहुत याद आती है साथी। आजकल पुराने दिनों को याद करता हूं। शुरूआती दिन जब हम दोस्त थे। जब हमारे बीच प्रेम था, लेकिन प्रेम वाला रिश्ता नहीं था। दो-तीन साल तो रहे होंगे ऐसे।
उन्हीं दिनों जब यूनिवर्सिटी के आसपास चलते हुए मन में एक छिपी हुई उम्मीद चलती थी कि तुम ऐसे ही राह चलते टकरा जाआगी। और हम मिलेंगे, तुम हड़बड़ी में रहोगी, मैं हाल-चाल पूछूंगा और तुम अपने रास्ते चली जाओगी।
कैसे न दिन थे वे। कितना कुछ उन दिनों का स्मृतियों में जा फंसा है। साथ के सात सालों में कभी तुम्हें बताया नहीं। काश कि बता पाता। काश कि....खैर जाने दो।
तुम अक्सर
मुझे समझ नहीं आ रहा। पूरी दुनिया से लड़ाई जैसी हालत हो गयी है। न किसी से मिलना, न किसी से बात करना, कुछ भी ऐसा नहीं जिसका मन रह गया हो।
बस अकेले कमरे में बैठे रोते रहने में ही सुकून नजर आने लगा है।
ये चिट्ठी बहुत चोरी-छिपे लिख रहा हूं, कि नहीं चाहता इन चिट्ठियों तक कभी तुम पहुंचो...कभी नहीं...
ख्याल बना रहता है....तुम्हारा ही
तुम्हारी तबीयत का
तुम्हारे गुस्से की अब कोई याद नहीं आती, रोना याद आता है..
जनवरी की वह दोपहर याद आता है, जब लौट रहा था इस शहर से और तुम रो रहे थे...
यहां अकेला पड़ता गया हूं...ऐसा नहीं कि लोग नहीं हैं...बहुत लोग हैं..बहुत सारे
कोशिश करते रहते हैं मिलने की, बात करने की, अपनी खुशी में शामिल करने की...लेकिन मैं एक-दो-तीन कदम चलकर फिर लौट आता हूं...
नहीं चल पाता उनके साथ...
लगता है तुम नहीं हो तो फिर कुछ भी नहीं...किसी के भी होने का कोई मतलब नहीं..शायद इसलिए अपने आसपास के सारे लोगों से भी कटता चल रहा हूं..
खैर,
मन भर रहा है इतना लिखने में ही...
फिर कभी
और
विदा
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