सुनो दगाड़िया,
तीन दिन से ये चिट्ठी लिखने की सोच रहा हूं। मन में बहुत उहापोह है इसे लिखे जाने को लेकर। लेकिन दूसरी तरफ लगातार मन इसी के बारे में सोचता रहा है। कि ये लिखना है, वो लिखना है...
क्यों लिखना है..दरअसल इस बीच जितनी भी घबराहट, उदासी, बेचैनी हुई है उसकी एक वजह है तुमसे बात न हो पाना। प्रेम से पहले हम दोस्त थे। काफी गहरी दोस्ती थी। तो सारी बातें तुम्हें बताने की आदत थी। सबकुछ बांट कर हल्का हो जाने की प्रैक्टिस रही सालों। हालांकि पिछले कुछ साल में ये कम होता चला गया।
खैर, पहले इन चिट्ठियों में जो लिख रहा हूं उन्हें डायरी में दर्ज कर लिया करता था। क्योंकि पता था तुम उसे पढ़ोगी। अब वो उम्मीद नहीं है, तो डायरी में लिखनेे का भी कोई मतलब नहीं समझ आता।
इसलिए यहां लिख ले रहा हूं...
कमजोर पड़ने लगा हूं। दो दिन पहले एक दोस्त से मिलने गया। चाय पीते-पीते फूट-फूट कर रोने लगा। रास्ता चलते भी पता नहीं क्यों झर-झर आँसू बहने लगते हैं। कोई खास वजह समझ नहीं आता। बस रोना आता है। छोटी-छोटी चीजों पर भी औऱ बिना किसी चीज के भी। पंखे को ताकते-ताकते रोने लगता हूं।
उसी दिन एक और दोस्त के यहां गया। फोन पर किसी को जोर से डांटने लगा और फिर उसके सामने आधा घंटा रोता रहा। आजकल आईने में देखता हूं खुद को और रोने लगता हूं। क्या हालत हो गयी...
खैर, अब कंघी करने के लिये भी आईना देखना बंद कर दिया है।
दोस्तों को, घर को सबको डांटकर, भगाकर नाराज कर दे रहा हूं। सबकी चिंता समझता हूं खुद के लिये लेकिन मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है ऐसा लगता है।
खैर, डॉक्टर से आज टाइम लिया है...दिखवाउंगा..
फिलहाल लग रहा है जितना लोगों के बीच हूं उतना अकेला हूं, इन दिनों तुम्हें बहुत याद करता हूं..हर सेकेंड लगभग।
प्रेम में अगर सवाल बचे रह जायें तो वो प्रेम समाप्त नहीं होता...
खैर, क्या मैंने कभी प्रेम किया भी था ?
या सिर्फ गलतियां की?
खुद से ही पूछता रहता हूं...
मेरा ईगो और गुस्सा जीत रहा है, मैं हार रहा हूं...प्रेम करना नहीं आया..
तब भी समझता था, आजकल ज्यादा समझ आ रहा है...मेरे जैसे 'मर्द' को प्रेम करने से बचना चाहिए..जो अपने जिये में भयानक रूप से 'दोगले' हो चुके हैं.
बाकी फिर कभी...
तीन दिन से ये चिट्ठी लिखने की सोच रहा हूं। मन में बहुत उहापोह है इसे लिखे जाने को लेकर। लेकिन दूसरी तरफ लगातार मन इसी के बारे में सोचता रहा है। कि ये लिखना है, वो लिखना है...
क्यों लिखना है..दरअसल इस बीच जितनी भी घबराहट, उदासी, बेचैनी हुई है उसकी एक वजह है तुमसे बात न हो पाना। प्रेम से पहले हम दोस्त थे। काफी गहरी दोस्ती थी। तो सारी बातें तुम्हें बताने की आदत थी। सबकुछ बांट कर हल्का हो जाने की प्रैक्टिस रही सालों। हालांकि पिछले कुछ साल में ये कम होता चला गया।
खैर, पहले इन चिट्ठियों में जो लिख रहा हूं उन्हें डायरी में दर्ज कर लिया करता था। क्योंकि पता था तुम उसे पढ़ोगी। अब वो उम्मीद नहीं है, तो डायरी में लिखनेे का भी कोई मतलब नहीं समझ आता।
इसलिए यहां लिख ले रहा हूं...
कमजोर पड़ने लगा हूं। दो दिन पहले एक दोस्त से मिलने गया। चाय पीते-पीते फूट-फूट कर रोने लगा। रास्ता चलते भी पता नहीं क्यों झर-झर आँसू बहने लगते हैं। कोई खास वजह समझ नहीं आता। बस रोना आता है। छोटी-छोटी चीजों पर भी औऱ बिना किसी चीज के भी। पंखे को ताकते-ताकते रोने लगता हूं।
उसी दिन एक और दोस्त के यहां गया। फोन पर किसी को जोर से डांटने लगा और फिर उसके सामने आधा घंटा रोता रहा। आजकल आईने में देखता हूं खुद को और रोने लगता हूं। क्या हालत हो गयी...
खैर, अब कंघी करने के लिये भी आईना देखना बंद कर दिया है।
दोस्तों को, घर को सबको डांटकर, भगाकर नाराज कर दे रहा हूं। सबकी चिंता समझता हूं खुद के लिये लेकिन मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है ऐसा लगता है।
खैर, डॉक्टर से आज टाइम लिया है...दिखवाउंगा..
फिलहाल लग रहा है जितना लोगों के बीच हूं उतना अकेला हूं, इन दिनों तुम्हें बहुत याद करता हूं..हर सेकेंड लगभग।
प्रेम में अगर सवाल बचे रह जायें तो वो प्रेम समाप्त नहीं होता...
खैर, क्या मैंने कभी प्रेम किया भी था ?
या सिर्फ गलतियां की?
खुद से ही पूछता रहता हूं...
मेरा ईगो और गुस्सा जीत रहा है, मैं हार रहा हूं...प्रेम करना नहीं आया..
तब भी समझता था, आजकल ज्यादा समझ आ रहा है...मेरे जैसे 'मर्द' को प्रेम करने से बचना चाहिए..जो अपने जिये में भयानक रूप से 'दोगले' हो चुके हैं.
बाकी फिर कभी...
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