सुबह जगा तो। गर्मी कम थी। लगा धूप ने थोड़ी आज नरमी बरती है। चाय बनाया। माँ भी है। मैं मेज पर बैठे-बैठे ये लिख रहा हूं तो वो बॉलकनी में बैठी चाय पी रही है।
कमरे औऱ बॉलकनी को एक पतला पीला पर्दा बांटता है। मां ने पीली साड़ी पहनी है। काली छिट का। माँ को आये कुछ दिन हुए। वो लगातार फोन पर है। उससे लोग छूटते ही नहीं। मैं सोचता हूं।
कमरे में गांधी भजन। लता मंगेश्कर की आवाज में। अल्ला तेरो नाम। फिर किसी ने वैष्णव जन को ते कहिये गाया।
कितना सूकून है। मैं बेड पर लेटे लेटे सामने देखता हूं। आज गमलों में पानी माँ ही देगी। मैं मटन बनाऊंगा। ये अकेले रहने की आदत इतनी अच्छी भी नहीं है। मैं सोचता हूं।
कितना सारा टू-डू लिस्ट की पर्ची मेज के सामने टंगी है। लेकिन कोई हड़बड़ी नहीं। कोई एनजाईटी नहीं। न बाहर, न मन में। बस यही।
कमरे औऱ बॉलकनी को एक पतला पीला पर्दा बांटता है। मां ने पीली साड़ी पहनी है। काली छिट का। माँ को आये कुछ दिन हुए। वो लगातार फोन पर है। उससे लोग छूटते ही नहीं। मैं सोचता हूं।
कमरे में गांधी भजन। लता मंगेश्कर की आवाज में। अल्ला तेरो नाम। फिर किसी ने वैष्णव जन को ते कहिये गाया।
कितना सूकून है। मैं बेड पर लेटे लेटे सामने देखता हूं। आज गमलों में पानी माँ ही देगी। मैं मटन बनाऊंगा। ये अकेले रहने की आदत इतनी अच्छी भी नहीं है। मैं सोचता हूं।
कितना सारा टू-डू लिस्ट की पर्ची मेज के सामने टंगी है। लेकिन कोई हड़बड़ी नहीं। कोई एनजाईटी नहीं। न बाहर, न मन में। बस यही।