Monday, November 12, 2012

नाटक देखने का शउर और छपने का मोह

  • विकास कुमर पटना में रहकर फोटो पत्रकारिता कर चुके हैं..ह्रषिकेश सुलभ प्ररकरण में जिसमें उन्होंने एक फोटो-पत्रकार के साथ अभद्रता की थी ..पर कई रंगकर्मी साथी नाटक देखने के शउर का ज्ञान देते नजर आ रहे हैं..फेसबुक पर ऐसे ही एक पोस्ट पर विकास कुमार ने लंबा कमेंट लिखकर जवाब देने की कोशिश की है...
    Vikas Kumar Farid फ़रीद Khan ख़ाँ: आपने लिखा कि कालीदास रंगालय में आपका अनुभव करीब बीस सल का रहा है. आपने इतने लंबे अनुभव के आधार पर अपनी बातें रखीं है. आप रंगकर्म से जुड़े भी हुए हैं इसलिए आप बेहतर जानते हैं नाटक को. लेकिन मैंने भी एक छोटा सा समय बिताया है पटना में और कालिदास में. पटना में मैं एक फोटोग्राफर की हैसियत से काम करता था और हर शाम (जब भी कोई नाटक कालिदास में होता था) पहुंचता था कालिदास रंगालय में. और नाटक की ज्यादा समझ तो नहीं है भाई साहब लेकिन इतनी समझ तो मुझे भी है और पटना में काम करने वाले दुसरे फोटोग्राफर साथियों को भी नाटक एक ’लाईव आर्ट’ होता है. और इसमे जो कलाकार मंच पर होता है उसे फ्लैश से दिक्कत होती है. खैर...आपने जानकारी बढ़ाई सो आपका शुक्रिया!
    जब से सुलभ जी द्वारा एक फोटोग्राफर को धकिया के और धमकिया के बाहर किया गया है तबसे कुछ लोग नाटक देखने वाले दर्शक के अधिकारों की दिहाई दे रहे हैं. कुछ कह रहे हैं कि नाटक केवल दर्शकों के लिए होता है. विल्कुल मैं इससे सहमत हूं कि नाटक केवल दर्शकों का होता है. तो साहब.. क्यों आप अगले दिन अखबार में अपने नाटक की तस्वीर खोजते फिरते हैं. बैन करिए...फोटोग्राफरों को. कह दीजिए अखबार के संपादकों को आप चाहें तो नाटक के मंचन की खबर दें लेकिन कतई अपने फोटोग्राफर न भेजें(मेरा मानना है कि अखबार के संपादक भी आपकी बात तुरंत मान लेंगे). तब तो यह कदम और भी जरुरी हो जाता है जब अपने फरीद साहब पिछले बीस साल से फोटोग्राफरों को समझाते आ रहे हैं! बोलिए...है इतनी हिम्मत पटना के रंगकर्मियों को की हो अपने नाटक के मंचन के दौरान फोटोग्राफरों को न बुलाएं?
    अगर आप पिछले बीस साल से नाटक देखने का पूरा मजा इसलिए नहीं ले पा रहे हैं क्योंकि फोटोग्राफर आपके और मंच के बीच में आ जाते हैं तो क्यों नहीं फोटोग्राफरों के कैमरे का मोह छोड़ देते हैं? लेकिन छपने का मोह आपको ऐसा नहीं करने दे रहा.
    तीसरी बात...जो लोग आज इस घटना के बाद नाटक के दर्शकों के अधिकार की दुहाई दे रहे हैं वो यह क्यों नहीं बताते कि पटना के इसी प्रेक्षागृह में नाटक के मंच के दौरान ही बड़े नामी रंगकर्मी अपने मोबाइल फोन को साइलेंट नहीं करते. फोन आ जाए तो फोन को कान में लगाए...हैलो...हैलो करते-करते मंच के सामने से बाहर निकलते हैं. क्या इससे दर्शको का ध्यान भंग नहीं होता? मैंने नहीं देखा कि कोई किसी को रोक या समझा रहा है कि फोन पर मत बात करिए...पूरे एक साल के दौरान. मैंने ऐसी कोई अकेली घटना नहीं देखी या सुनी जिससे यह मालुम हो कि अमुख आदमी ने फलां वरिष्ठ रंगकर्मी को इस बारे में कुछ समझाया हो!
    मुझे पटना में रहने के दौरान, कालिदास रंगालय जाने के दौरान यह समझ आया कि न तो दर्शक नाटक देखने की मानसिकता से अभी तैयार हो पाया है और न हीं रंगकर्मी अच्छे नाटक और अभिनय के लिए अभी तैयार हो सके हैं(कालिदास रंगालय परिसर में ही कभी-कभी करवाई जाने वाली प्रैक्टिश देखने का मौका मिला…इसमे एक चश्मे वाले भाई साहब पैना लिए रहते हैं और गलत संवाद बोलने वाले या संवाद ठीक से न बोलने वाले लड़के को पैने से डराते हैं. यह मेरा पहला अनुभव रहा है. अभिनय करवाने का)
    अब जब…दर्शक…वरिष्ठ रंगकर्मी और नए अभीनेता ही तैयार होने या बनने की दिशा में हैं तो फोटोग्राफरों से यह उम्मीद कैसे करते हैं आपलोग कि वो बिल्कुल ही सभ्य तरीके से आए और अपना काम कर के निकल जाए!
  •  इसके इतर एक बात और…अगर इतने लंबे समय से अपलोग प्ले कर रहे हैं. तो आपने कोई सिस्टम ऐसा क्यों नहीं बनाया जिसमे फोटोग्राफरों को कवर करने में सुविधा हो. उनका काम भी हो जाए और दर्शक भी परेशान न हों. बताइए ऐसा कोई सिस्टम है क्या?
    अभी कुछ दिन पहले…एकल नाटक महोत्सव हुआ था. इसी रंगालय में और इसमे मुम्बई से एक टीम आई थी. उस टीम ने नाटक शुरु करने से पहले ही बेहद सलीके से यह घोषणा की कि फोटोग्राफर साथी मंच के किनारे से कवर करें और बगैर फ्लैश के कवर करें. मैं अंदर ही बैठा था. इस घोषणा के बाद भी आयोजक के दो लोग मंच के किनारे खड़े थे. ताकि बीच में या घोषणा के बाद जो फोटोग्राफर आएं उन्हें वहीं रोक लिया जाए. और उन्होंने जिस फोटोग्राफर को भी यह समझया सबने किनारे से ही और बगैर फ्लैश के ही अपना काम किया. और वो सारे के सारे फोटोग्राफर भी पटना के ही थे. अखबार के ही थे. लेकिन जब स्थानीय लोग मंचन करते हैं तो वो खुद अपने व्य्वहार में बहुत व्य्वस्थित नहीं हो पाते तो फोटोग्राफरों को कहां से व्यवस्थित कर पाएंगे!
    इसलिए कहना चाहूंगा…साहेब. रंगकर्मी…पहले आप सुधरिए. अपना व्य्वहार बदलिए फिर दुनिया को ज्ञान बांटिए.
    अंतिम में एक फाइनल शॉट…अगर पटना के रंगकर्मियों ने यह तय कर लिई है कि फोटोग्राफरों को रास्ते पर लाने का यही एक रास्ता है…मतलब धकिया-मुकिया के बाहर कर देना…मारना पीटना. थपरियाना या ऐसा ही कुछ भी तो साहेब लोग…चेत जाइए.
    ऐसा न हो कि आपको एक दिन यह तरीका ही बहुत भारी पड़ जाए. क्योंकि हम जिंन्होंने कैमरा पकड़ा हुआ है अपने हांथो में वो केवल कैमरे का बटन दबाना ही नहीं जानते. हमे उनका टेटुआ दबाना भी आता है जो हमने सही तरीके से पेश नहीं आते. या जिंन्हे अपने होने का घमंड है!

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