Saturday, January 19, 2013

मैंने आस्था को देखा है..


नागा साधुओं का चिलम और धुआं भी आस्था का ही एक हिस्सा लगता है.
कई बार जिन्दगी के विरोधाभासों से रु-बरु होना पड़ता है. काम और विचार के बीच घालमेल भी होता दिखता है. ये मानते हुए भी कि लिखने वालों की कोई ऑब्जेक्टिविटि नहीं होती..मानना पड़ता है कि हमारी सब्जेक्टिविटि मुद्दे आधारित हों तभी बेहतर रिजल्ट दे सकते हैं..बीईंग अ लेफ्ट शायद ही मैं कुंभ को इस खूबसूरती को देख पाउं..एक खूबसूरत राइटिंग के साथ आस्था की ये डायरीनामा जे सुशील के की-बोर्ड से..


लिखने के लिए कम ही बार सोचना पड़ता है लेकिन पिछले कई मिनटों से कंप्यूटर को घूर रहा हूं...बार बार लिख कर मिटा रहा हूं. शायद कारण ये है कि मेरी आस्था कम चीज़ों में है और लिखना चाहता हूं आस्था पर ही, तो कीबोर्ड मेरी ऊंगलियों में आस्था नहीं दिखा रहा है.
मैंने आस्था को देखा है. उन आंखों में जो कच्ची नींद से उठी हैं. उन आंखों में जिन्हें रात भर रेत पर बिछे बोरे पर नींद नहीं आई है और जो तड़के संगम के पानी में डूब कर लाल हो गई हैं.
उस दोने में भी जिसमें फूल और अगरबत्ती खोंसे हुए हैं और कैमरे की नज़र से देखो तो वो ज़िंदगी की नाव जैसी लगती है जो भवसागर पार करा दे.

आस्था को मैंने छोटे बच्चों के हाथों में रस्सियों में फंसे चुंबकों में भी देखा है जो संगम के पानी से चिल्लर पैसे खींच लाते हैं. इन चिल्लरों की खन खन और उन बच्चों की हंसी में आस्था खिलखिलाती है.
नागा साधुओं के चिलम से निकले धुएं के गुबार में और राख से लिपटी उनकी उस देह में जहां अब रोएं नहीं हैं आस्था चिपकी रहती है जिसे छू लेने को लोग उतावले रहते हैं.
आस्था उस धूनी में भी बसती है जो नागा साधुओं की जान होती है जो अगर बंद हो गई तो नागा नाराज़ हो जाते हैं. धूनी बंद होना उनके आस्था के टूटने जैसा होता है.
वो वहां भी बैठी थी उन बूढ़ी औरतों के आंचल में जो जल से सूरज को अर्घ्य अर्पित कर रही थीं और उन बूंदों में भी जो नहा कर निकली औरतों के केशों और कपड़ों से टपक रही थीं.
आस्था क्या इससे खूबसूरत भी हो सकती है.
आस्था खूबसूरत होती है. चाहे किसी की भी हो. किसी के प्रति हो. बिन आस्था के आदमी पता नहीं कैसा होता होगा. किसी की साधु में, किसी की गंगा में, किसी की संगम में, किसी की नहाने में, किसी की कुंभ में और किसी की आस्था चिलम में हो सकती है.

मेरी आस्था कुंभ की हर खूबसूरती में है. चाहे वो भगवा लाल हरे कपड़े हों या फिर मकर संक्रांति के दिन निकलता सूरज हो. चाहे वो नौका की छप छप करती पतवार हो या फिर हवा में भीगे पुआल और रेत से निकलती गंध हो.
कुंभ आस्था है. इसमें रोमांच है और रुमानियत भी. इसमें बहुत कुछ ऐसा भी है जो बदसूरत है. ढोंगी बाबा हैं. पाखंड है. बेईमानी है लेकिन वो आस्था नहीं इसलिए बदसूरत है.
यहां सबके लिए जगह है. जिसे आस्था में यकीन नहीं हो उसके लिए भी. मेरी तरह उन लोगों को भी कुंभ स्वीकार करता है जिनकी आस्था सिर्फ काम में है और यही बात मुझे कुंभ में या ऐसे किसी मेले की तरफ खींचती है जो आपसे कुछ मांगता नहीं बल्कि आपको देता है. एक ऐसा अनुभव जिसे आप भुलाना चाहें भी तो नहीं भूल पाते.
कीबोर्ड अचानक रुका है..मैं रुका हूं तो देख पाया हूं कि कुछ लिख चुका हूं. अब रुकता हूं और भरपूर आस्था से कीबोर्ड को प्रणाम करता हूं. चाहूंगा कि ये पढ़ने में आप सबको खूबसूरत लगे.
(कुंभ से लौटने के बाद डायरी का एक पन्ना)

साभार-बीबीसी हिन्दी (bbchindi.com)

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