नागा साधुओं का चिलम और धुआं भी आस्था का ही एक हिस्सा लगता है. |
लिखने के लिए कम ही बार सोचना पड़ता है लेकिन पिछले कई मिनटों से कंप्यूटर को घूर रहा हूं...बार बार लिख कर मिटा रहा हूं. शायद कारण ये है कि मेरी आस्था कम चीज़ों में है और लिखना चाहता हूं आस्था पर ही, तो कीबोर्ड मेरी ऊंगलियों में आस्था नहीं दिखा रहा है.
मैंने आस्था को देखा है. उन आंखों में जो कच्ची नींद से उठी हैं. उन आंखों में जिन्हें रात भर रेत पर बिछे बोरे पर नींद नहीं आई है और जो तड़के संगम के पानी में डूब कर लाल हो गई हैं.
नागा साधुओं के चिलम से निकले धुएं के गुबार में और राख से लिपटी उनकी उस देह में जहां अब रोएं नहीं हैं आस्था चिपकी रहती है जिसे छू लेने को लोग उतावले रहते हैं.
आस्था उस धूनी में भी बसती है जो नागा साधुओं की जान होती है जो अगर बंद हो गई तो नागा नाराज़ हो जाते हैं. धूनी बंद होना उनके आस्था के टूटने जैसा होता है.
वो वहां भी बैठी थी उन बूढ़ी औरतों के आंचल में जो जल से सूरज को अर्घ्य अर्पित कर रही थीं और उन बूंदों में भी जो नहा कर निकली औरतों के केशों और कपड़ों से टपक रही थीं.
आस्था क्या इससे खूबसूरत भी हो सकती है. |
कुंभ आस्था है. इसमें रोमांच है और रुमानियत भी. इसमें बहुत कुछ ऐसा भी है जो बदसूरत है. ढोंगी बाबा हैं. पाखंड है. बेईमानी है लेकिन वो आस्था नहीं इसलिए बदसूरत है.
यहां सबके लिए जगह है. जिसे आस्था में यकीन नहीं हो उसके लिए भी. मेरी तरह उन लोगों को भी कुंभ स्वीकार करता है जिनकी आस्था सिर्फ काम में है और यही बात मुझे कुंभ में या ऐसे किसी मेले की तरफ खींचती है जो आपसे कुछ मांगता नहीं बल्कि आपको देता है. एक ऐसा अनुभव जिसे आप भुलाना चाहें भी तो नहीं भूल पाते.
कीबोर्ड अचानक रुका है..मैं रुका हूं तो देख पाया हूं कि कुछ लिख चुका हूं. अब रुकता हूं और भरपूर आस्था से कीबोर्ड को प्रणाम करता हूं. चाहूंगा कि ये पढ़ने में आप सबको खूबसूरत लगे.
(कुंभ से लौटने के बाद डायरी का एक पन्ना)
साभार-बीबीसी हिन्दी (bbchindi.com)
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