Thursday, July 3, 2014

चाईबासा एक कस्बे के खत्म होते जाने की कहानी भाग 2


मंगला हाट अब दम तोड़ रहा है. 


कतार से आती साईकल पर सवार आदिवासी महिलाओं की झुण्ड मंगला हाट के जीवंत होने का सबूत पेश कर रही थी. साईकिल पर टंगे सब्जियों की थैलियां और बांस से बने घरेलु डलिया, टोकरी मंगला हाट में जाती महिलाओं की स्वतंत्रता और मंगला हाट का प्रतिक है। आबादी के दवाब के बावजूद भी पूरा हाट बाज़ार मन मोह रहा था नज़रे बार- बार हरी सब्जियों जैसे टमाटर, कद्दू , हरे साग, भिंडी, करेला के तरफ जाकर टिक जाती रही हमेशा की तरह शायद इसलिए की शहरी रिलायंस फ्रेश के ओवरडोज का असर रहा होगा, जो भी हो ये बाज़ार सजीवता का अनूठा उदहारण पेश कर रही थी जिसे कोई और शहरी बाज़ार नहीं कर सकता। फ्रेश होने के सौ फीसदी सबूत दे रहे इन सब्जियों को मामूली रकम में खरीदना अच्छा लगता है मैंने भी खेजे के भाव में तैयार ऑर्गनिक सब्जियां खरीदी शायद दिल्ली, मुंबई में होता तो इन सब्जियों को कभी नहीं खरीद पाता।

सजीवता की मिसाल पेश करने वाला मंगला हाट बाज़ार अब धीरे - धीरे खत्म होने की कगार पर है, आधुनिक्ता की चौतरफा घेरेबंदी ने ज्यादातर स्पेस को छीन लिया है. पिछले एक दसक में सबसे ज्यादा कोई बाज़ार इंक्रोच हुआ तो वो थे इन आदिवासियों के. बाज़ार माफियाओं ने दबंगई कर इनके ही हाट से बेदखल कर दिया है, ये लोग जहाँ अपनी सामन बेचा करते थे वहां के ज्यादातर जगहों पर अब एयरटेल, वोडाफोन,जींस, नोकिया, सैमसंग और आधुनिक मंडी डीलरों का कब्ज़ा हो गया है. ऊपर से आबादी का बढ़ता दवाब और महंगाई आदिवासियों की ताज़ी सब्जियों और अन्य सामानों पर भारी पड़ रहे है. इनके परंपरागत हाट बाज़ार अब मार्केट की मंडी भाव से कंपीट नहीं कर पा रही है. ऊपर से बिचैलियों, व्यपारियों के दवाब ने इनके छोटे से सिकुड़ते हुए हाट को भी कब्जा कर लिया है।

हम उम्र देव सिंह चंपिया को पिछले 10 सालों से जानता हूँ, अब भी वही बैठते है जहाँ पहले बैठा करते थे. चंपिया बताते है की अब मंगला हाट बदल चुका है सब्जियों को छोड़ दी जाय तो अब हमारे परंपरागत सामनों के मार्किट के लिए शायद अब कोई जगह नहीं है. ऊपर से शहरी हाट माफियाओं का रोज दिन का कब्जा हमारे हौशले कमजोर करता है. बाप दादा तो झाड़ू से लेकर खटिया,मचियां, हल, मुर्गा, बकरा- बकरी और सब्जी तक बेचते थे पर हम बस इस बदले हुए हालात में सिर्फ सब्जी तक सिमित है. चंपिया के पास करीब एक एकड़ जमीन है इसी जमीन पर सालों भर जीतोड़ मेहनत करते है और तरह - तरह की सब्जियां उगाते है. बिन्स, भिन्डी, करेला से लेकर अमरुद और तुंत तक की खेती करते है और सब्जियों को जीतोड़ मेहनत कर बाजार लाते है जितने में उनके घर का खर्च चल जाए. चंपिया बताते है की हम लोग जंगल के आदमी है यही जीना है यही मर जाना है जिंदगी जंगल है इसलिए मुनाफा नहीं कमाना है. चंपिया कहते है की रोज पांच से 8 किलों तक सब्जी तोड़कर बाज़ार में बेचते है उसी से अपना काम चल जाता है. चंपिया जैसे हज़ारों लोग इस इलाकें में है जो अपनी जरूरत के हिसाब से खेती करते है और जरूरत के हिसाब से बेचते है जिन्हे मुनाफा कमाना नहीं पेट और घर चलना होता है. और शायद मंगला हाट के जीवंतता को बनाये रखना है.

पर बीते कुछ सालों में इस छोटे से कस्बें के मंगला हाट पर भी उदारीकरण और भूमंडलीकरण का प्रभाव पड़ा है, अब मंगला हाट बटा- बटा सा लगता है बिल्कुल भारत और पाकिस्तान के बॉर्डर टाइप से. करीब तीस एकड़ में फैले इस बाज़ार के एक तिहाई हिस्सों में अब उनका कब्जा हो गया है जो आधुनिक विकास को पसंद करते है. ये वो लोग है जो ब्रांडिंग टिकिया से लेकर मोबाइल तक बेचते है, अगर इनके बाज़ार में मंदी आ जाए तो ये लोग ब्रोएलर मुर्गे से लेकर जहरीले सब्जी तक बेचते है. अब बाज़ार के चारों ओर आधुनिक साजों सामान भरे पड़े है. जहाँ तक नज़रे जाती है वहां - वहां जींस,टीशर्ट, मोबाइल,और आधुनिक तौर तरीके का बनता बाज़ार नज़र आता है.

वही दरकिनार होते बाज़ार और आदिवासी मूलवासी लोगो आज भी अपने इतिहास को ज़िंदा रखे बाज़ार के कोने में बांस से बने विभिन्न तरह के सामान बेचते नज़र आ रहे थे. स्टाइल स्पा और गोदरेज से बने घरेलु फैंसी आइटम के दौर में भी इस हाट बाज़ार में बिना बाहरी दवाब के बीजा लकड़ी से बने खटिया (चौकी) और मचिया (कुर्शी ) उपलब्ध है . यही इसी हाट के कोने में बचे हुए साल के पत्तों का बाज़ार भी है जो दसकों पुराना इको फ्रेंडली है. प्लास्टिक के इस दौर में भी मंगला हाट बायोडायवर्सिटी का अनोखा उदारहण पेश करती है शायद इसलिए ही आज भी चाईबासा के सड़कों पर मिलने वाले खाने के सामन को पत्तों में ही रख कर बेचा जाता है. फैबर और प्लास्टिक से बने प्लेट नहीं। 



कहानी का पहला भाग यहां पढ़े

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