खरीद ले, बेच डाल !
मिस्टर मार्केट,
तुम अपने टारगेट पूरा करने
के चक्कर में हमें क्यों टारगेट बनाते हो। हम छोटे लोग हैं- लोअर मीडिल क्लास।
लेकिन हमारी संवेदनाएँ, प्यार की संभावनाएँ बड़ी और अपार हैं। हम उसे संभाल कर बचा
कर चलते हैं और तुम हो कि बार-बार आकर उसे ही अपना टारगेट बना लेते हो।
कभी किसी खूबसूरत महिला की
आवाज में, कभी बुढ़ी दादी की सलाह में तो कभी माँ के प्यार में। तुम हमेशा
वक्त-बेवक्त हमें अपना टारगेट बनाते हो, हमारे बीच से ही किसी को उठा एक अदद नौकरी
और एमबीए की डिग्री दिलवाकर उसे हमारे ही खिलाफ खड़े कर देते हो और हम हैं कि उस
बिके आदमी की मजबूरी भी समझते हुए, उसे अपना मानते हुए बड़े आराम से तुम्हारा
टारगेट बनना स्वीकार कर लेते हैं।
हम लोअर मीडिल क्लासी लोगों
के पास खोने को कुछ नहीं है और पाने को पूरी दुनिया। मार्क्स ने तुम्हारे फायदे के लिए थोड़े न कहे थे, ये शब्द।
ये नारे, तुम्हारे खिलाफ उछाले गए थे लेकिन तुमने बड़ी ही चालाकी से उसे अपने पक्ष
में खड़ा कर लिया।
और हमने सबकुछ पाने के
चक्कर में, पूरी दुनिया हासिल करने में फ्रिज, टीवी, एसी नहीं तो कूलर ही सही,
वासिंगमशीन से लेकर गाड़ी और बड़ी गाड़ी से अपने वन-टू-डुप्लेक्स बीएचके घर को
भरते चले गए। कभी ये पैकेज, कभी वो सेल, कभी बाय टू गेट वन के चक्कर में हमारी
जिन्दगी के मायने तुमने ईएमआई भरने तक
समेट दिया।
मिस्टर मार्केट तुम भूल गए,
हमारे पास खोने को भी था बहुत कुछ। बहुत सी संवेदनाएँ, खूबसूरत रिश्ते, कुछ प्यार,
दुख-सुख को अनुभव करने का एहसास, एक समाजिक चेतना, दया-करुणा और महसूस करने की
ताकत। हम धीरे-धीरे जो था उसे खोते चले गए, और जो तुमने बताए उसे पाने के लिए
हँसने-रोने-अवसाद-ईर्ष्या-टारगेट पूरा करने लगे।
पहले तुमने हमसे सबकुछ
खरीदवाए और अब उसे कहते हो-बेच डाल। पहले हमने खरीदा। घड़ी, रेडियो, एमपी3, टीवी,
सीडी, बाइक, गाड़ी, फ्रीज, टूर पैकेज, गोरे होने वाली क्रीम, जूते, चप्पल, महंगे
कपड़े, लड़कियों को लुभाने वाले डियो, युवा दिखाने वाले हेयर कलर, मोबाईल, स्मार्ट
फोन, मैकडी-बर्गर। हमने जमकर खरीदारी की। डेबिट कार्ड नहीं तो क्रेडिट कार्ड से।
ईएमआई से। जैसे भी हुआ। इतना खरीदा कि घर कबाड़खाना या गोदाम हो गया। उसपर विंडबना
कि जितना बड़ा गोदाम, उतना बड़ा आदमी। जितना जिसके पास कबाड़ वो उतना बड़ा दिलदार।
खरीदते-खरीदते ही हमने खरीदना शुरू कर दिया
दोस्ती, प्रेम, दुश्मनी, गुस्सा, घृणा, प्यार-मोहब्बत। और हमें पता भी न चला।
जब खरीद लिया तो फिर तुमने
कहना शुरू किया बेच डाल। हमने बेचना शुरू किया। ओएलएक्स, क्विकर सबपर बेचा। सारा कुछ
बेचते-बेचते हमें फिर पता न चला। हमने शुरू किया खुद को बेचना, दोस्ती, प्यार,
नफरत, आंदोलन, क्रांति, बदलाव, सोशल एक्टिविज्म। हमने सबकुछ बेचा। लिखना-पढ़ना,
भाषण देना, बड़े-बड़े नारे, नारों की तख्तियां हमने सबकुछ बेचा। बदलाव की
सामुहिक-सामाजिक चेतना को भी बेचा। बेचने का मंच कम पड़ा तो तुमने दिया- फेसबुक,
ट्विटर, टम्बलर, इंस्टाग्राम। यहां भी जमवा दी तुमने हमारी दुकान। हमने पोस्ट-ब्लॉग अपडेट करने को भी बेचना ही नाम दे
दिया। हमने सेट किए अपने-अपने एजेंडे, कभी सेलेक्टिव, कभी कलेक्टिव होकर खुद को
बेचा।
हमने बेचा ताकि फिर से खरीद सकूं। लेकिन इस खरीद
और बिक्री के बीच हमने अपना बहुत कुछ खो दिया, बिना कुछ पाये....जिसे न तो कहीं
खरीदा जा सकता और न ही अब किसी को बेचा जा सकता.. जानते हुए कि अभी बचा है बहुत
कुछ खरीदना-बेचना। अब थकने लगा हूं खरदीते-बेचते मिस्टर मार्केट !!
थैंक्स तुम्हारा। मिस्टर
मार्केट !
एक दिन तुम बिकोगे, एक दिन
भरभरा कर गिरोगे।
आह लगेगी तुम्हें मिस्टर
मार्केट !!
( बैकग्राउंड में रेडियो पर
गाना बज रहा है- “जाने कहां मेरा जिगर गया जी। सच्ची-सच्ची कह दो दिखाओ नहीं
चाल रे। तुने तो नहीं चुराया मेरा माल रे”।)
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