Sunday, July 13, 2014

खुद से बात #4

कभी कभी लगता है किसी ऊंचाई से गिर रहा हूँ। बहुत ऊपर आसमान के बिलकुल पास से। 
जहां से लगता है कि आसमान पकड़ में आ सकता है। ठीक उसी समय गिरने लगता हूँ। ये गिरना धड़ाम से गिरने जैसा नहीं होता। सब कुछ धीरे धीरे होता है। हौले हौले नीचे की तरफ गिरना ज्यादा खतरनाक सा हो जाता है। 
गिरते हुए आप महसूस कर रहे होते हैं कि आप गिर रहे हैं। बहुत नीचे खाई की तरफ आप बढ़ रहे होते हैं। बीच रास्तें में रुकना चाहो भी तो कोई टिकने की जगह नहीं मिलती। 
डर, मज़बूरी और कुछ न कर पाने की हताशा सबकुछ फील होता है।
और अंत में गिरते हुए भी बस यही चाह बची रह जाती है कि काश धड़ाम से गिरे होते....बिना महसूस किये।

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