हमारे यहां गांवों
में एक चौपाल होता है,जहां पर हर शाम को लोग-बाग अपने कामों से फुरसत पा कर जुटते
हैं और मन बहलाने के लिए सांस्कृतिक आयोजन किए जाते हैं।लेकिन धीरे-धीरे इन
चौपालों का अस्तित्व भी खत्म होता जा रहा है। टीवी ने चौपालों को खा लिया है। सूरजकुंड
मेले में भी ऐसा ही एक चौपाल था,जो गांव के चौपाल की याद दिला रहा था।
तेजी से भागते-दौड़ते मेट्रों पर सवार भारत में
भले ही अब सांस्कृतिक परंपराएं अपना अस्तित्व बचा पाने में असफल हो रहे हैं। लेकिन
आज भी कस्बों-देहातों में यह खुद को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। सुरजकुंड मेले
में इन्हीं सांस्कृतिक परंपरा के खोज-पड़ताल की कोशिश की गयी है।
मेले के मुख्य मंच ‘चौपाल’ पर देशी-विदेशी
पर्यटकों को भारतीय संस्कृति से परिचित कराया जा रहा था। काफी संख्या में लोग इन
कार्यक्रमों को देखने के लिए घंटों बैठे और खड़े रहे। महारष्ट्र के श्यामली से आए
हुए कलाकारों ने जब घेवरी का कार्यक्रम प्रस्तुत किया तो हर कोई मानों उसमें खोता
चला गया। आज भी यह कला महारष्ट्र के कस्बों में जिंदा है। इसके बाद पश्चिम बंग के
पुरूलिया से आए हुए कलाकारों ने मेलताल छाउ की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम आगे बढ़ता
रहा और हर कोई उसके रस में डूबता चला गया।
भगवान
कृष्ण और राधा के प्रेम को लेकर यूं तो बहुत से गीत लिखे गये हैं। लेकिन जब उनके
प्रेम में विरह की पीड़ा को दिखाते हुए गोकुल से आए हुए कलाकारों ने ‘मयूर नृत्य’ प्रस्तुत किया तो
राधा के विरह-प्रेम की पीड़ा और व्याकूलता वहां मौजूद दर्शकों की पीड़ा बन गयी। इस
नृत्य के पीछे का प्रसंग है कि एक बार राधा कृष्ण के विरह में तड़पते हुए बगीचे
में घूम रही थी,तभी भगवान कृष्ण स्वयं मयूर का रूप धारण कर नृत्य करने लगे। इस
प्रसंग के सच्चाई और असच्चाई के बहस में न जाकर देखें तो इसको देखना अद्भूत अनुभव
है।
असम के हुलिया सर्कस ने तो सबको दिल थाम कर
बैठने को मजबूर कर दिया। दो पांच-सात साल के बच्चे ने ऐसी प्रस्तुति दी कि सभी
अवाक् रह गये। इनकी कला किसी भी जेमिनी सर्कस वाले से कहीं कमतर नहीं थी।
इसके बाद असम के ही
डेउरी बिचु प्रजाति के लोगों ने डेउरी बिचु नृत्य पनपा बांसुरी और ढोल के साथ
प्रस्तुत किया।
ये
कलाकार देश के अलग-अलग हिस्सों से मेले में शिरकत करने आए थे। सभी की अपनी
भाषा और पहनावा भले था। लेकिन इनके बीच अलग-ही सा अपनापन दिख रहा था। ज्यादातर
कलाकार बेहद ही साधारण घर से और कई तो मजदूर वर्ग के लोग थे।इन कलाकारों से बात
करने पर पता चलता है कि ये लोग घोर आर्थिक संकट से जूझते हुए भी लोक-नृत्य को बचाए
रखना चाहते हैं। इनके मन में सदियों से संचित परंपरा के प्रति प्रेम ही है कि आज
भी बिना किसी सरकारी सहायता के ये लोग अपने बीच इन लोक-कलाओं को बचाए हुए हैं।
ऐसे कार्यक्रम भारत के समृद्ध संस्कृति और लोक-कलाओं
से लोगों का परिचय तो करवाते ही हैं। साथ-ही-साथ उन लोगों को करारा जवाब भी देते
हैं जो या तो बिना जाने भारतीय संस्कृति को गाली देते हैं या फिर किसी एक खास धर्म
को ही भारतीय संस्कृति बनाने पर तुले रहते हैं। भले ही सरकार इन लोक-कलाओं को किसी
खास मेले के समय याद कर लेती है लेकिन आज जरूरत इस बात कि है कि इन कलाओं और
कलाकारों को संरक्षित किया जाय। सरकार का फर्ज है कि वो इन लोक-कलाओं को जिंदा
रखने के लिए उचित कदम उठाए। जिस देश में खेलों के नाम पर करोड़ों रूपये के घोटाले
किए जा रहे हों, उस देश की लोक-कलाओं को बचाने के लिए रूपये की कमी का रोना नहीं
रोया जाना चाहिए।
फिलहाल तो गांवों और कस्बों में इन लोक-कलाओं
को बचाए रखने का प्रयास लगातार किया जा रहा है।
(सूरजकुंड मेले से लौटकर अविनाश कुमार चंचल)
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