Saturday, August 4, 2012

इंतजार।


इंतजार


मैंने कहा रोटी
तुमने कहा इंतजार करो
मैंने कहा कागज
तुमने कहा इंतजार करो
मैंने कहा नौकरी
तुमने फिर कहा इंतजार करो
मैंने कहा बदलाव
तुमने फिर घिसा-सा उत्तर दिया -इंतजार करो।
मैं भी उन लाखों-करोड़ो लोगों की भीड़ में शामिल हो गया
जो इंतजार करते हैं...राशन की दुकानों पर, राहत शिविरों के कैम्पों में,
कभी वो इंतजार करते दिखते हैं मुझे
कब तक इंतजार?
रोजगार कार्यालय के दफ्तरों में,
समय और जगह तय करती है उम्र इस इंतजार करती भीड़ की।
पेंशन की लाइन में ये भीड़ बहुत थकी-सी, बुढाई सी नजर आती है
तो रोजगार के लिए बुलाए किसी दफ्तर के बाहर खड़ी ये भीड़
अचानक से बदल जाती है जोश से भरे किसी शोर में
लेकिन जल्द ही उठने लगती है वहां से- हताश, निराश, विक्षोभ से भरे धीमे-धीमे स्वर।
ये भीड़ कभी-कभी
शहरी, मध्यवर्गीय घरों के ड्रांइग रुम में रिमोट दबाते आदमी की शक्ल में बदल जाती है
जो हर सरकार को कोसती, तेल की कीमत बढ़ोत्तरी
पर भी करता है पांच साल और इंतजार।
मेरा इस भीड़ में घुटने लगता है -दम
मैं भागने की कोशिश में
करने लगता हूं
इंतजार।

1 comment:

  1. अच्छी कविता है....इंतजार न करो लिखते रहा करो।

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