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Wednesday, January 2, 2013

छोटी सी गलती ने बिगाड़ा वॉलीबाल के खेल

अत्याधुनिक सुविधाओं वाले कंकड़बाग स्थित पाटलिपुत्र खेल परिसर के लिए इंतजार करीब बीस वर्षों से था। इस बीच खिलाड़ी की दो पीढ़ियों के सपने, सपने ही रह गए। इसने मूर्त रुप लिया, तो खेलने वालों में उम्मीदें भी जगीं लेकिन वॉलीबॉल के खिलाड़ी की उम्मीदों को पलीता लग गया। क्योंकि स्टेडियम में इंडोर स्टेडियम के डिजायन करने में हुई चूक ने इस खेल को इनडोर स्टेडियम से वॉलीबॉल के खेल को बाहर कर दिया है। हद को यह है कि डिजायन से संबंधित अधिकारी अब इसके स्ट्रक्चर में किसी भी तरह के परिवर्तन से इंकार कर रहे हैं। फिलहाल पटना शहर में वॉलीबॉल के लिए कोई इंडोर स्टेडियम नहीं है।
पाटलीपुत्र खेल परिसर को अत्याधुनिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इसी परिसर में एक इंडोर स्टेडियम का भी निर्माण किया गया है। इसमें २५०० लोगों के बैठने की जगह, आधुनिक लाइट, कान्फ्रेंस रुम, साउंड सिस्टम, आदि की व्यवस्था की गयी है। इस स्टेडियम का निर्माण मल्टीपरपस खेलों के लिए किया गया है। विभागीय सूत्रों के अनुसार इसको बनाने में लगभग ५० करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। लेकिन एक छोटी सी गलती ने इस इंडोर स्टेिडयम से वॉलीबॉल के खेल को बाहर कर दिया है। दरअसल किसी भी वालीबॉल कोर्ट की ऊंचाई कम-से-कम १५ मीटर तक होनी चाहिए। जबकि इस इंडोर स्टेडियम की ऊंचाई १५ मीटर से भी कम है। ऐसे में यहां कोई राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मैच का आयोजन भी संभव नहीं होगा।
पाटलीपुत्रा खेल परिसर को डिजयान करने वाली कंपनी आर्क एंड डिजायन के अधिकारी के अनुसार इस इंडोर स्टेडियम का डिजायन पुराने आइडियल मैप के अनुसार ही किया गया है। इसलिए अब किसी खेल के लिए उसमें बदलाव संभव नहीं है।
बिहार में वॉलीबाल की टीम तो हे जो हर साल राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेती है लेकिन आज तक कोई भी टूर्नामेंट नहीं जीत पायी है। वहीं बिहार के एक भी खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं बना पाये हैं। रामाशीष सिंह इसके लिए सुविधाओं के अभाव को जिम्मेदार मानते हैं। वॉलीबाल खिलाड़ी को न तो सही सुविधाएं दी जा रही हैं और न ही मैच खेलने के लिए जगह ही मुहैया करायी जा रही है।
कोटः
यह स्टेडियम बनाने वाले अथॉरिटी की लापरवाही का नतीजा है। इस स्टेडियम को बनाने में न तो पैसे की कमी थी और न ही जगह की। वो आगे कहते हैं कि स्टेडियम को बनाने से पहले खेलों से जुड़े विशेषज्ञों से राय-मशविरा करनी चाहिए थी और सभी खेल के नियमों के अनुसार स्टेडियम का डिजायन होना चाहिए था
रामाशीष सिंह, सचिव, बिहार वॉलीबाल एसोसिएशन

Wednesday, February 22, 2012

प्लेसमेंट,गर्लफ्रेंड और....और दारू की बोतल


प्लेसमेंट,गर्लफ्रेंड और....और दारू की बोतल
राकेश को पटने से आए हुए अभी मुश्किल से महीना भर ही हुआ था कि उसे पता चल गया कि जिस शर्मा अंकल से उसके घर वाले तक सिर्फ उनके शराब पीने की वजह से नफरत करते थे। उसी शराब की बोतल को दिल्ली में लड़के बिस्तर पर सोने से पहले किसी डॉक्टर के सुझाये दवा की तरह पीते हैं। दारू पीना यहां आपके पोस्ट-मार्डन होने का लाइसेंस की तरह होता है।
  इस पीने-पिलाने में बिहार से आए लड़के भी खुब हिस्सा लेते थे।कोई अपने बिहारिये रह गया रे। टाइप लेवल को हटाने के लिए पीता था,कोई किसी लड़की के प्यार में वेवफाई पाने या उसमें और ज्यादा गहरी रूमानियत लाने के लिए पीता था। लेकिन इनमें ज्यादातर सिर्फ इसलिए पीते थे कि कभी-कभी शाम को इनके आठ बाई दस के कमरे में कॉलेज की एक-दो लड़कियां पीने के लिए आ जाती थीं। फिर इस पूरे इवेंट को पार्टी का नाम दिया जाता था। इस पार्टी में पीने-खाने से लेकर शकीरा  के गाने पर थिरकने तक का इंतजाम होता था।
 सबसे मजेदार होता डांस सेशन। राकेश,महेश और अनिल ये लोग मूक दर्शक बने रहते लेकिन विवेक इन सबमें पीछे नहीं रहना चाहता था। वो कहता अरे। बकलोलो। यही तो मौका होता है लड़कियों से बात करने का,उनके करीब जाने का। लेकिन ये लोग सोचते, मैं क्यूं जाउं। उन्हें खुद आना चाहिए हमसे बात करने।आखिर हमारा भी कुछ है। इसी कुछ के चक्कर में वे अलग-थलग पड़ते जा रहे थे। हर बार वे लोग बात करने आगे बढ़ते लेकिन स्साला इ स्वाभिमान ही बीच में आ टपकता।
  जस्टिन वीवर से लेकर गागा और शकीरा होते हुए पार्टी  कौन नशे में नहीं बताओ जरा.., मैं शराबी हूं चेहरा न देखो...चेहरों ने लाखों को लूटा... जैसे गानों पर खत्म होता था। फिर सभी एक-मत से प्लेसमेंट के बारे में बतियाते थे। किसी का तर्क होता  पागल हो तुम लोग।इ कॉरपोरेट मीडिया में जाकर गलत राह पर जा रहे हो, हमें बदलाव के लिए कुछ करना होगा। यह कुछ क्या होगा,इसका जवाब उसके पास नहीं होता। कोई कहता यार,मुझे जर्नलिज्म करना है-पैसे मुझे नहीं चाहिए। यह अलग बात है कि बाद में वही लड़का सबसे ज्यादा पैसे पर प्लेसमेंट पाता है। कोई कहता यार,अब हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठा जा सकता,कुछ तो करना ही होगा....। बात को बीच में ही काट कर विवेक कहता  बेटा पहले क्वार्क तो करना सीख जा...।
    फिर मोर्चा सीनियर और मुखर्जी नगर रिर्टन टाइप लड़के संभाले लेते थे। इसके बाद क्लास के हर लड़के-लड़कियों के बारे में पोस्टमार्टम किया जाता था। बिहारियों के आठ बाइ दस कमरे में हर के पास अपने गम थे।कोई प्लेसमेंट के लिए रो रहा था तो कोई एक अदद गर्लफ्रेंड के लिए। लेकिन दारू के साथ इनके गम भी मानों बह जाते थे। पटने का राकेश भी इन सब चीजों में इन्जॉय करने की कोशिश करने लगा था।लेकिन............
(जारी..)


(नोट; कल्पना पर आधारित, वास्तिवकता के पुट खोजने के अपने रिस्क हैं। इसके लिए कहानीकार जिम्मेदार नहीं)

Saturday, February 11, 2012

पटने का लड़का,प्लेसमेंट,गर्लफ्रेण्ड और क्रान्ति। पार्ट3


पटने का लड़का,प्लेसमेंट,गर्लफ्रेण्ड और क्रान्ति। पार्ट3

अरे, उ फ्रेण्ड रिक्वेस्ट एकसेप्ट कर ली रे, सबसे पहले अनिल चिल्ला के बोला। बीच में सासाराम के मनीष ने बात काटते हुए कहा तो तु का समझता है राकेश बुरबक है का? इ भी पटना कॉलेज से पढ़ कर आया है। राकेश इन लोगों की बात तो सुन रहा था। लेकिन बोल कुछ नहीं रहा था। अभी तो वो अपने ही ख्यालों में खोया था। मानों कित्ता बड़ा इ अचीवमेंट हो गया हो उसके लाइफ का। तभी बेगुसराय का विवेक कह बैठा, भाग स्साला। फ्रेंड रिक्वेस्ट एकसेप्ट करने से का होता है रे। उ इलीट क्लास की है एकरा घासों नहीं डालेगी। इलीट,अंग्रेजीदां,ग्लैमरस,जमीन से कटे हुए लोग,मैकडी,पिज्जा-बर्गर टाइप,यो-यो जेनरेशन ये कुछ शब्द हैं,जो बिहारी लड़के दिल्ली वालों के लिए इस्तेमाल करते हैं। ये अलग बात है कि हर बिहारी लड़के के मन में ऐसा ही कुछ बनने की दबी इच्छा होती। लेकिन हर महीने घर से आने वाले पैसे उन्हें इसकी इजाजत नहीं देते हैं।इसी तरह डाउन मार्केट,चीप,गांव से आए हुए जैसे शब्द दिल्ली वाले बिहारी लड़कों के सम्मान में इस्तेमाल करते हैं।
  तो रश्मि का फ्रेंड रिक्वेस्ट एकसेप्ट करना एक बड़ी घटना बन चुकी थी,जिसपर हर बिहारी लड़का अपनी राय देना चाह रहा था। उनमें से कई ने तो आज ही रश्मि को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने का मन-ही-मन विचार भी कर लिया था। कोई ये नहीं समझ रहा था कि लड़की का रिक्वेस्ट एकसेप्ट करना एक सामान्य घटना होती है,जो एक क्लास में पढ़ने की वजह से घटित हुआ है।
  राकेश अब क्लास में रश्मि की तरफ से विशेष सावधानी बरतने लगा है। अगर वो क्लास में रहती है तो वो हर सवाल के जवाब देने की कोशिश करता है। एक दिन रश्मि के ऑनलाइन मिलने पर राकेश उसको मैसेज भेजता है हाई-
उधर से कोई रिप्लाई नहीं आता
दूसरे दिन फेसबुक खोलने पर राकेश के इनबॉक्स में उसका मैसेज
हे,सॉरी। आई एम लेट विकॉज विजी इन अनदर वर्क।हाउ आर यू
राकेश,
इट्स ओके.हाउज यू
रश्मि,
फाइन।सी यू इन कैम्पसJ
राकेश,
J
लेकिन क्लास में उन दोनों के बीच सिर्फ हाई-हैलो ही हुआ। हालाकिं अब राकेश के कमरे पर रोज उसकी मदद के लिए बिहारी लड़के जुटने लगे थे। अनिल का जोर अंग्रेजी की तरफ होता। देखो। अंग्रेजी सीख लो। तभीये बात बनेगी। विवेक कहता रे,अंग्रेजी सीखे से लड़की पटती तो आज जेतना रैपीडेक्स वाला है सब अप्पन साथ लड़की घूमाता। लड़की के साथ घूमने या फिर उसके साथ ऑटो तक चलने, चाहे बुक फेयर जाने जैसे किसी भी काम को बिहारी लड़के लड़की घूमाने का ही नाम देते हैं। इस लड़की घूमाने के वक्त सबसे ज्यादा दुविधा होती। एक तरफ लड़की तो दूसरी तरफ घर से आए पैसे,प्लेसमेंट और पढ़ाई-लिखायी। इन सबके बीच लड़का खुद घूम कर रह जाता है। हर के पास अपना सजेशन होता, डेली प्रगति का आकलन भी। साथ में राकेश के पैसे का चाय और सिगरेट खुब उड़ाए जा रहे थे।
बात बनने की बात तो दूर थी। लेकिन इतना जरूर हुआ था कि बिहरी लड़कों को शाम में बहस के लिए अमेरीका,उदारीकरण और पूंजीवाद से इतर एक रोमांचक मुद्दा मिल गया था। इधर राकेश के महीने का बजट बिगड़ता जा रहा था।

(कहानी का रफ ड्राफ्ट...जारी

Thursday, February 9, 2012

पटने का लड़का,प्लेसमेंट,गर्लफ्रेंड और क्रान्ति पार्ट 2


पटने का लड़का,प्लेसमेंट,गर्लफ्रेंड और क्रान्ति

पटने का राकेश वैसे तो दूसरे बिहारी लड़कों की तरह ही बिल्कुल चुप्पा बाबा बन के कॉलेज जाता है। और क्लास में भी चुप्पी। इतना चुप्प तो वो पटने में कभी नहीं रहा। लेकिन क्या करे? यहां सभी लड़के-लड़कियां अपने में ही हां..हां.हीहहीं करते रहते और राकेश को उनकी हांहांहीही.. भी एक तरह की अंग्रेजी ही लगती है।
  कुछ लोग उसके दोस्त बनने लगे हैं। खासकर मुखर्जी नगर रिटर्न बिहारी लड़के खास सहानुभूति के साथ उससे बात करते हैं। बात-बात पर कोने में ले जाकर समझाते-बुझाते भी रहते हैं। एक दिन राकेश के फेसबुक पर क्लास की रश्मि सिंह का फ्रेण्ड सजेशन आया। उसने एड फ्रेण्ड का रिक्वेस्ट भेज दिया। फेसबुक की दोस्ती पर अलग से एक साहित्य की रचना हो सकती है। ऐसी दोस्ती जो एक क्लिक से बनती है और फिर बातें..और बातें । बात बढ़ी तो दोस्ती जिंदगी-भर के लिए और यदि पसंद-नापसंद बढ़ी तो फिर रिमूव के बटन पर चटका लगाया- दोस्ती खत्म। गोया यह कि इसी दोस्ती के सहारे कईएक बार हम अपने आस-पास के दोस्तों तक को भूलने लगते हैं।
  तो राकेश के फ्रेण्ड रिक्वेस्ट भेजने के दो-तीन दिन तक कोई नॉटिफिकेशन नहीं आया। राकेश ने एक-दो दिन इंतजार किया फिर भूल गया। बात आयी-गयी हो गई। कि चौथे दिन राकेश के फेसबुक पर नॉटिफिकेशन आया। फ्रेण्ड रिक्वेस्ट एकसेप्ट हो चुका था। इतना पढ़ते ही राकेश के मन में लड्डु फूटने लगे। अब तो ये बात सारे बिहारी समाज को पता चलनी चाहिए। बिहारी समाज मतलब वही राकेश, आरा का चंदन, सासाराम का मनीष बेगुसराय का विवेक और दरभंगा का अनिल अब तो इन पर भोकाल टाइट रहेगा’, राकेश सोच रहा था। अब स्साले ये भी नहीं कह पाऐंगे कि बिहारिये रह गया, रे।  आखिर इस बिहारी टैग से छूटकारा पाना भी एक अचीवमेंट ही तो था। लेकिन इसके लिए कुछ खास शर्तों को पूरा करना होता था,जिसमें से एक शर्त थी- किसी लड़की से दोस्ती।
अब लगता है वो इस शर्त को पूरी कर लेगा...

(कहानी जारी.....)

Monday, February 6, 2012

पटने का लड़का,प्लेसमेण्ट,गर्लफ्रेण्ड और क्रान्ति।

पटने का लड़का,प्लेसमेण्ट,गर्लफ्रेण्ड और क्रान्ति।

यह वो समय था जब दिल्ली के मुखर्जी नगर में बसने वाले बिहार में एक तुफान ने प्रवेश किया था। यूपीएससी में सी-सैट और अंग्रेजी के कंप्लसरी होने के साथ ही कई-कई बरसों से अपनी जवानी घूलाने वाले लड़कों में खलबली मची हुई थी, जो जहां था किसी नये विकल्प की ओर भागा जा रहा था। कोई डोनेशन कॉलेज से एमबीए तो कोई अपने इतने दिनों की तैयारी का फायदा पत्रकारिता में जाकर उठाना चाह रहा था। मुखर्जी नगर के किसी आठ बाई दस के कमरे में रोज मीटिंग होने लगा। हर कोई दूसरे से जानना चाह रहा था "तु क्या करेगा,रे।" कुछ कैरियर फेयर में जाने लगे थे। कोई कहता कि एमबीए ठीक रहेगा लेकिन फिर दूसरा समझाता ''क्या करेगा इ कोर्स करके रे। एगो मंदी आएगा तो सब हवा हो जाएगा।'' फिर कोई कहता आजकल मीडिया फिल्ड में कैरियर अच्छा है..फलाने मैगजीन में कवर स्टोरी इसी पर आया था,घर वालों पर भी भोकाल टाइट रहेगा। दूसरा कहता ''हम तो यहीं रह के तैयारी करेंगे हो'' अंत में सब एक एक बैक-अप की बात पर सहमत होते थे।हर कोई एक बैक-अप की तलाश में था।
  ऐसे ही समय में पटने से राकेश आंखों में बड़े-बड़े सपने लेकर गरीब रथ पर सवार हुआ था। ऐसा हो भी क्यूं न, देश के सबसे नामचीन पत्रकारिता संस्थान में दाखिला जो हो गया था। एक झोला जिसमें कपड़े से ज्यादा किताब ठूंसे थे और साथ में हफ्ते का ब्रेकफास्ट के नाम पर सत्तूआ और ठेकुआ भी जगह पा रहा था लेकर वो नई दिल्ली स्टेशन पर उतरा था।
  उसने बचपन से ही सपने देखने शुरू कर दिए थे। सपने बदलाव के लिए । पत्रकारिता ही क्यूं? जैसे सवाल पर झट से जवाब देता जो चीजें मुझे भीतर से आंदोलित करती हैं, उनके सशक्त अभिव्यक्ति के लिए । उसे कुछ करना था अपने देश के लिए, समाज के लिए। इसलिए तो पत्रकारिता में आया था वो।
  कॉलेज शुरू हुआ। क्लास में कलमघिस्सू पत्रकार टाइप लोग कम ही थे,यूपीएससी रिटायर हर्ट ज्यादा। खासकर कुछ लोग बैक-अप के तलाश वाले। ऐसे लोग बात-बात पर आंकड़ों से खेलते,अपने योजना और कुरूक्षेत्र वाले ज्ञान को पेलते रहते।। यहां आके पता लगा कि राजनीति से लेकर समाज शास्त्र तक ऐसे-ऐसे थ्योरी हुए हैं कि यदि जिन्हें पढ़ना पड़ जाय तो मैदान भाग छोड़े। तो इन महान मुखर्जी नगर रिटर्न लोगों का भोकाल टाइट होने लगा। ऐसे में टुच्चे पत्रकार टाइप लोगों के लिए स्पेस कम होता चला गया।
  तो इन्हीं टुच्चे लोगों का एक ग्रुप बन गया,जिसके दो ही सदस्य थे। एक खुद राकेश और दूसरा बेगुसराय का ही महेश। वैसे तो आते ही बता दिया गया था कि कलम घिसने से ज्यादा जरूरी है क्वार्क और टाइपिंग सीखना। लेकिन इन सबसे उन दोनों ने लगभग विद्रोह कर रखा था। गोया कि इनसे उनकी विद्रोही भावना को फौरी राहत महसूस होती हो। तो राकेश ने कभी भी जॉब के बारे में नहीं सोचा था। पत्रकारिता धंधा बन सकता है और वह भी पैसे कमाने वाला यह बात उसके दिमाग में अभी तक फिट नहीं हो पाया था। उधर मुखर्जी नगर वाले आपस में बात करते अभी नया जोश है-खूद अक्ल ठिकाने आ जायेंगे।
   तो राकेश और महेश में घंटों बहस होती रहती- समाज से लेकर अमरिकी नीतियों और पूंजीवाद से लेकर समाजवाद की असफलता तक। आदिवासी से लेकर गरीबों तक और माओवदियों तक। हर वो मुद्दा जो वंजित था, सबकी बात इन बहसों में जगह पाते थे। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बितता जा रहा था। इनमें बदलाव भी दिखने लगा था। वैसे तो हवा लगना समाजिक-रसायनिक प्रक्रिया है लेकिन इनमें यह हवा अलग तरह से लग रहा था। हर संडे ये प्रिया पीवीआर में जाकर मकई के भूंजा को पॉप कार्न कह कर खाने और सिनेमा देखने जाने लगे।और वापसी में देश के गरीबी पर भी गंभीर चर्चा करते आते। दोनों एक-दूसरे को अपनी मजबूरियां गिनाते और कुछ न कर पाने के अपराधबोध से ग्रसित होते रहते।
 इसी बीच मार्क्स से कब राकेश फ्रायड पर चला गया पता ही नहीं चला। वैसे तो घर से विशेष दिशा-निर्देश में दिल्ली की लड़कियों से दूर रहने के नियम को सबसे उपर जगह मिली थी। लेकिन रश्मि को देखने के बाद उसको अपनी सुध नहीं रहता।
राकेश के क्रान्तिकारी बातों को यदि कॉलेज में सबसे ज्यादा पसंद वाला बटन क्लिक करती थी तो वो –रश्मि।


कहानी का रफ ड्राफ्ट...जारी

Sunday, February 5, 2012

दिल्ली में दो बिहार रहते हैं

दिल्ली में दो बिहार रहते है


एक बिहार है जो नागलोई,उत्तम नगर,मुण्डका से लेकर आनंद पर्वत और बापा नगर होते हुए नगली डेरी तक फैला 
हुआ है। यहां आपको एक हजार में 6 बाई 8 के कमरे मिल जाते हैं,जिसे तीन-चार लोग मिल कर शेयर करते हैं।
बाथरूम और वाशरूम जैसा ही कुछ एक में ही 5-7 कमरों के लिए बना होता है। किचेन के नाम पर एक छोटीसी गौस चुल्हा उसी 6 बाई 8 के कमरे में मिल जाता है। हर दिन अपने कमरे से 30-40 किमी का सफर तय कर ये अपने काम पर पहुंचते हैं। इस बिहार में मेहनत मजदूरी करने वाले लोग रहते हैं। कोई जूता फैक्ट्री में तो कोई किसी 
बिल्डिंग के तल्ले उपर बढ़ाने के लिए काम कर रहा है। बहुत लोग करोलबाग के किसी दुकान में भी 
लगे हुए हैं। इनकी सबसे बड़ी समस्या हेती है 6-8हजार में से कुछ खर्च करना और ज्यादा बचाकर घर भेजना।
  जिस दिल्ली के किसी अपार्टमेण्ट में एक ही फ्लोर पर सामने वाले फ्लैट में महीनों दो बहनों की लाश
पड़ी हुई मिलती है और लोग झांकने तक नहीं जाते। इसी दिल्ली के इन जगहों पर आपको सुबह शाम 
मुफ्त की चाय और हंसी-मजाक करने वाले लोग आसानी से मिल जाऐंगे। इस दौड़ती-भागती दिल्ली
में इन बस्तियों में रहने वाले एक-दूसरे के लिए समय निकाल लेते हैं।
  इन बस्तियों में रिश्ते तेजी से बनते हैं। हर दूसरा किसी का चाचा,चाची मामी मामा बन जाता है। हर शाम 
एक-दूसरे से तरकारी से लेकर रात के खाने तक का आदान-प्रदान होता है। सुबह में सब अपने काम की जल्दी में तो होते हैं लेकिन 
फिर भी हंसी-मजाक का दौर चलता रहता है।
  रोजी-रोटी के चक्कर में अपने घर से दूर चले आए इन प्रवासियों का जीवन इन्हीं छोटी-छोटी चीजों
की वजह से आसान हो जाती है। 
    

  एक बिहार है जो मुनिरका,कटवरिया सराय,बेर सराय से लेकर मुखर्जी नगर,विजय नगर और कमला नगर
तक फैले हुए हैं। यहां 8 बाई 10 के चार हजार से 12 हजार तक के कमरों में अपने बाप के सपनों को साकार
करने के लिए तैयारी करने वाले लड़के रहते हैं। एक लैपटाप,मोबाइल और किताबों के ढेर इन कमरों की विशेष समानों में जगह पाता है। इनमें ज्यादातर बिहार के खाये-कमाये घरों से आते हैं,कुछ तो बाप के स्टेट्स को बनाए रखने के लिए यहां आ टपकते हैं- तैयारी करने।
 उनमें कुछ बस तैयारी कर रहे होते हैं और साइड से 
पीवीआर,मैक डी में लड़कियों के साथ घूम रहे होते हैं। बाद में इनमें से ज्यादातर डोनेशन वाले कॉलेजों से एमबीए की राह लेते हैं। लेकिन कुछ केवल तैयारी कर रहे होते हैं। ये न तो 
साइड से कुछ करते हैं न सामने से। इनके उंगलियों में जली हुई सिगरेट होती है और दूसरे हाथ में क्रॉनिकल
,प्रतियोगिता दर्पण जैसी पत्रिका जगह पाती है।
 इनकी खास पहचान होती है 54दिनों से न धूली जिंस और बारह दिनों से न नहाया शरीर। इन्हें अपने कोचिंग,
चाय दुकान और कमरे को छोड़कर कोई और पता याद नहीं रहता। योजना, कुरूक्षेत्र और इंडिया का मैप 
इन्हें रात में भी सपने में आकर परेशान करता रहता है। हमेशा बिहार के ही कोई फलाने भईया यूपीएससी में टॉप
करके इन्हें प्रेरित करते रहते हैं।
इन्हें न तो लड़कियों में कोई इंटरेस्ट होता है और न लड़कियों को इनमें। हां,हर रिजल्ट के बाद दारू की बोतल
जरूर खुलती है- अपने कम्पिट न होने के गम से ज्यादा दुसरे के कम्पिट जाने के गम में। रिजल्ट के साथ ही इनके सिगरेट की संख्या भी बढ़ती चली जाती है।

हां। ये कभी-कभी नगली डेरी टाइप वाले बिहार में भी चले जाते हैं किसी गांव वाले से मिलने लेकिन लौटते वक्त ''हाउ डर्टी'' वाले फिलिंग के साथ।

  
(लेख का रफ ड्राफ्ट है-आगे आपके फीडबैक पर ठोक-बजा कर लिखा जाएगा)

Thursday, February 2, 2012

पटने का लड़का और दिल्ली की लड़कियां 2

पटने का लड़का और दिल्ली की लड़कियां 2

सेमेस्टर एगजाम के शुरू होते ही कैम्पस के चाल-ढाल में भी बदलाव दिखने लगा था। राकेश के रूम में भी एक बदलाव हो गया था। अब उसके कमरे पर एक छोटा सा बिहार बसने लगा था। आरा का चंदन, सासाराम का मनीष बेगुसराय का विवेक और दरभंगा का अनिल सभी इस शपथ के साथ अपनी पढ़ाई शुरू करते थे कि कोई टॉपर बनेगा तो बिहारी ही। चंदन जोर-जोर से कहता-"अरे, टॉपर कोई दूसरा को बनने देगा रे,का मुंह दिखायेगा..बिहार जाकर।"  उसके इस हुंकार से सभी बिहारी लड़कों में जोश भर जाता था। अपनी बात का असर होता देख चंदन और जोर-जोर से कहने लगता है-'देखना टॉपर तो राकेश ही करेगा।' राकेश इ सुनकर नाराज हो जाता है।क्योंकि उसे मालूम है कि ये सब उससे पार्टी लेने के लिए कहा जा रहा है। फिर तो सभी एक-दूसरे को टॉपर बताने लगते हैं। किसी बिहारी के टॉपर बनने के बात पर तो सभी सहमत थे। लेकिन सबके मन में खूद को टॉपर देखने की छूपी लालसा थी। बात टॉपरों से चलकर कैम्पस की लड़कियो पर पहुंचती है। ''अरे सबसे ज्यादा सुंदर तो उ रश्मि ही लगती है कैम्पस में'' तभी दूसरा जवाब देता ''अरे उ तो फंसी है भागलपुर के रंजन के साथ, लेकिन जो कहो अच्छा माल फंसाया है''। बहुत देर से चुप्प विवेक कहता है-''बरगाही भाई। ओकर औकात है रे लड़की पटावे के। उ तो रश्मि उसका यूज कर रही है।''
हालांकि विवेक भी मन-ही-मन सोचता है कि 'काश, कोई लड़की हमें भी ऐसे ही यूज करती'।
सासाराम के मनीष की हालत इन सबसे अलग है। वो जबसे कैम्पस में आया है सिर्फ एक ही लड़की पर लाइन मारा है। लेकिन बांकि दोस्त उसे चुतिया कहते हैं। मनीष कहता है-'एक बार यूपीएससी होने दे,वही लड़की दहेज के साथ लेकर घर आयेगी।'
'देखो,स्साले को प्यार में भी दहेज की बात करता है'-चंदन कहता है। चंदन के अपने दुख हैं वो जल्दी से एग्जाम खत्म करना चाहता है,उसे ढेर सारी मस्ती जो कैम्पस में करनी है।
बीच-बीच में चाय की चुस्की भी आठ बाई दस के कमरे में गर्मजोशी भरता रहता है। तभी बीच में ही राकेश
सबको याद दिलाता है कि हमें पढ़ना भी है। फिर जल्दी-जल्दी से एक चैप्टर किसी तरह निबटाया जाता है।
इसके बाद पोस्टमार्टम शुरू किया जाता है।। पोस्टमार्टम का अर्थ तो आप खूद समझ गये होंगे।
क्रमश जारी...;

Wednesday, February 1, 2012

पटने का लड़का और दिल्ली की लड़कियां

पटने का लड़का और दिल्ली की लड़कियां

राकेश को पटने से दिल्ली आए हुए करीब 6 महीने तो हो ही गए थे। लेकिन अभी तक वो रम नहीं पाया है। शुरूआत के महीने तो कटवरिया से लेकर मुनिरका तक कमरा खोजने में चले गए और फिर जब सब कुछ सेट हो गया तो पता चला कि अब तो कोर्स भी पूरा होने वाला है।
   क्या था जो राकेश पटने से आने के बाद भी छोड़ नहीं पाया था और क्या था जो उसे इस दिल्ली में अभी तक मिल नहीं पाया था। उसके दोस्त कहते हैं कि तुझे एडजस्ट करने में दिक्कत हो रहा है। ऐसा हो भी क्यूं नहीं। यहां आकर ही तो उसे पता चला था कि 21 साल के लड़के के लाइफ में तीन चीजें ही हो सकती है-कैरियर,सेक्स और रात को दारू की बोतल। राकेश अपने लाइफ में एक नया चीज लेकर आया था- क्रांति का सपना।
    ऐसा नहीं था कि राकेश के लाइफ में बांकि तीन चीजें नहीं थी या फिर उनको पाने का सपना नहीं था। लेकिन हमेशा खुद में सिमटा रहने वाला राकेश वो सब नहीं कर पाता था जो और लड़के बड़े आराम से कर ले जाते थे। इनमें ही एक चीज थी- फ्लर्ट। यहां आके ही तो उसने जाना था कि जिसे आप प्रेम करते हैं दरअसल उसे अंग्रेजी में लव के साथ-साथ फ्लर्ट भी कहा जा सकता है। या फिर आप प्रेम तो किसी एक को करो लेकिन साथ में किसी और से फ्लर्ट करने में कोई दिक्कत नहीं है।
  लेकिन उसके साथ तो दिक्कतें-ही-दिक्कतें हैं। वो ठीक से किसी से बात तक नहीं कर पाता है। रोज घर से यह सोचकर निकलता है कि आज तो बात करके ही दम लेगा। और घर लौटते वक्त पटने से ही आए चंदन को समझाता है कि देखिये आज तो नहीं लेकिन कल पक्का बातिया लुंगा। चंदन भी सुर मे सुर मिलाता है-''चलो कोई बात नहीं। लेकिन स्साला, इ अंग्रेजी बड़का समस्या है महाराज ''
  राकेश उसे समझाता-'' अरे नहीं भाई, अंग्रेजी बोलने में कोई प्रोब्लम नहीं है। माहौल मिलना चाहिए। देखो आनंद भईया कौन से अंग्रेजी अच्छा बोल पाते हैं लेकिन लड़कियां कैसे उन्हें घेरे रहती हैं। '' फिर एक मशहूर फिल्म का डायलॉग पेलता है-'' बेटा काबिलियत पैदा करो,लड़कियां झक मार कर पीछे आऐंगी''। कामयाबी की जगह लड़कियां आ जाती है। फिर दोनों रोने-धोने की रस्म अदायगी करते हुए अपने कमरे की ओर रूख  करते हैं
(आगे जारी...)

कुछ चीजों का लौटना नहीं होता....

 क्या ऐसे भी बुदबुदाया जा सकता है?  कुछ जो न कहा जा सके,  जो रहे हमेशा ही चलता भीतर  एक हाथ भर की दूरी पर रहने वाली बातें, उन बातों को याद क...