Monday, February 6, 2012

पटने का लड़का,प्लेसमेण्ट,गर्लफ्रेण्ड और क्रान्ति।

पटने का लड़का,प्लेसमेण्ट,गर्लफ्रेण्ड और क्रान्ति।

यह वो समय था जब दिल्ली के मुखर्जी नगर में बसने वाले बिहार में एक तुफान ने प्रवेश किया था। यूपीएससी में सी-सैट और अंग्रेजी के कंप्लसरी होने के साथ ही कई-कई बरसों से अपनी जवानी घूलाने वाले लड़कों में खलबली मची हुई थी, जो जहां था किसी नये विकल्प की ओर भागा जा रहा था। कोई डोनेशन कॉलेज से एमबीए तो कोई अपने इतने दिनों की तैयारी का फायदा पत्रकारिता में जाकर उठाना चाह रहा था। मुखर्जी नगर के किसी आठ बाई दस के कमरे में रोज मीटिंग होने लगा। हर कोई दूसरे से जानना चाह रहा था "तु क्या करेगा,रे।" कुछ कैरियर फेयर में जाने लगे थे। कोई कहता कि एमबीए ठीक रहेगा लेकिन फिर दूसरा समझाता ''क्या करेगा इ कोर्स करके रे। एगो मंदी आएगा तो सब हवा हो जाएगा।'' फिर कोई कहता आजकल मीडिया फिल्ड में कैरियर अच्छा है..फलाने मैगजीन में कवर स्टोरी इसी पर आया था,घर वालों पर भी भोकाल टाइट रहेगा। दूसरा कहता ''हम तो यहीं रह के तैयारी करेंगे हो'' अंत में सब एक एक बैक-अप की बात पर सहमत होते थे।हर कोई एक बैक-अप की तलाश में था।
  ऐसे ही समय में पटने से राकेश आंखों में बड़े-बड़े सपने लेकर गरीब रथ पर सवार हुआ था। ऐसा हो भी क्यूं न, देश के सबसे नामचीन पत्रकारिता संस्थान में दाखिला जो हो गया था। एक झोला जिसमें कपड़े से ज्यादा किताब ठूंसे थे और साथ में हफ्ते का ब्रेकफास्ट के नाम पर सत्तूआ और ठेकुआ भी जगह पा रहा था लेकर वो नई दिल्ली स्टेशन पर उतरा था।
  उसने बचपन से ही सपने देखने शुरू कर दिए थे। सपने बदलाव के लिए । पत्रकारिता ही क्यूं? जैसे सवाल पर झट से जवाब देता जो चीजें मुझे भीतर से आंदोलित करती हैं, उनके सशक्त अभिव्यक्ति के लिए । उसे कुछ करना था अपने देश के लिए, समाज के लिए। इसलिए तो पत्रकारिता में आया था वो।
  कॉलेज शुरू हुआ। क्लास में कलमघिस्सू पत्रकार टाइप लोग कम ही थे,यूपीएससी रिटायर हर्ट ज्यादा। खासकर कुछ लोग बैक-अप के तलाश वाले। ऐसे लोग बात-बात पर आंकड़ों से खेलते,अपने योजना और कुरूक्षेत्र वाले ज्ञान को पेलते रहते।। यहां आके पता लगा कि राजनीति से लेकर समाज शास्त्र तक ऐसे-ऐसे थ्योरी हुए हैं कि यदि जिन्हें पढ़ना पड़ जाय तो मैदान भाग छोड़े। तो इन महान मुखर्जी नगर रिटर्न लोगों का भोकाल टाइट होने लगा। ऐसे में टुच्चे पत्रकार टाइप लोगों के लिए स्पेस कम होता चला गया।
  तो इन्हीं टुच्चे लोगों का एक ग्रुप बन गया,जिसके दो ही सदस्य थे। एक खुद राकेश और दूसरा बेगुसराय का ही महेश। वैसे तो आते ही बता दिया गया था कि कलम घिसने से ज्यादा जरूरी है क्वार्क और टाइपिंग सीखना। लेकिन इन सबसे उन दोनों ने लगभग विद्रोह कर रखा था। गोया कि इनसे उनकी विद्रोही भावना को फौरी राहत महसूस होती हो। तो राकेश ने कभी भी जॉब के बारे में नहीं सोचा था। पत्रकारिता धंधा बन सकता है और वह भी पैसे कमाने वाला यह बात उसके दिमाग में अभी तक फिट नहीं हो पाया था। उधर मुखर्जी नगर वाले आपस में बात करते अभी नया जोश है-खूद अक्ल ठिकाने आ जायेंगे।
   तो राकेश और महेश में घंटों बहस होती रहती- समाज से लेकर अमरिकी नीतियों और पूंजीवाद से लेकर समाजवाद की असफलता तक। आदिवासी से लेकर गरीबों तक और माओवदियों तक। हर वो मुद्दा जो वंजित था, सबकी बात इन बहसों में जगह पाते थे। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बितता जा रहा था। इनमें बदलाव भी दिखने लगा था। वैसे तो हवा लगना समाजिक-रसायनिक प्रक्रिया है लेकिन इनमें यह हवा अलग तरह से लग रहा था। हर संडे ये प्रिया पीवीआर में जाकर मकई के भूंजा को पॉप कार्न कह कर खाने और सिनेमा देखने जाने लगे।और वापसी में देश के गरीबी पर भी गंभीर चर्चा करते आते। दोनों एक-दूसरे को अपनी मजबूरियां गिनाते और कुछ न कर पाने के अपराधबोध से ग्रसित होते रहते।
 इसी बीच मार्क्स से कब राकेश फ्रायड पर चला गया पता ही नहीं चला। वैसे तो घर से विशेष दिशा-निर्देश में दिल्ली की लड़कियों से दूर रहने के नियम को सबसे उपर जगह मिली थी। लेकिन रश्मि को देखने के बाद उसको अपनी सुध नहीं रहता।
राकेश के क्रान्तिकारी बातों को यदि कॉलेज में सबसे ज्यादा पसंद वाला बटन क्लिक करती थी तो वो –रश्मि।


कहानी का रफ ड्राफ्ट...जारी

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