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Tuesday, September 2, 2014

रात का रिपोर्टर पर किसी ने लिखा है


मन बहुत उचट सा गया है। खुद की बनायी चीजें ही झूठ, फरेब और दुकानदारी लगने लगी है। सच भी यही है। हम सब अपने-अपने सपनों के ठेकेदार से हो गए हैं। कम से कम मैं तो जरुर। बार-बार महसूस होता है कि जो करना था, जो करने आया था, वो नहीं करके सबकुछ कर रहा हूं। इसलिए कई बार ऐसे फेज से गुजरता हूं जब गुमनामी और बंद अँधेरी गली में खुद को गुमाने का मन होने लगता है। इसलिए कई दोस्तों से दूर, फेसबुक से भी हो गया हूं। लेकिन अचानक ही अभिषेक ने ये मेल किया तो मन भर आया। इतना प्यार, इत्ता भरोसा। देखकर डर लगता है। हर रोज दूसरों को छलने चला मन खुद के किये पर ही शर्मिंदा होता है। कुमार गौरव ने अपने फेसबुक स्टेट्स पर रात के रिपोर्टर का जिक्र किया है। कहने वाले कहेंगे कि मैं उस स्टेट्स को यहां लगाकर आत्मप्रचार कर रहा हूं। जी हां, कई बार बिना किसी लाग-लपेट के कुछ आदमियों का खुदपर भरोसा देखकर आत्ममुग्ध हो ही जाता हूं। जबकि जानता हूं कि धोखा दे रहा हूं खुद को भी और अपने तमाम आसपास के लोगों को भी।
वैसे इस स्टेट्स को यहां शेयर करना इसलिए भी जरुरी था क्योंकि फलां-फलां पद को सुशोभित कर रहे महान लोगों ने नहीं लिखा है बल्कि सड़कों पर लगातार लाठी खाते रहे, आंदोलनों में जेल जाते रहे, फर्जी मुकदमों को झेलते रहे और सही को सही, गलत को गलत कहने का साहस रखने वाले कुमार गौरव ने लिखा है, जिनकी ईमानदार प्रशंसा और आलोचना दोनों मेरे लिये फलां-फलां महान संपादकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वरिष्ठों से कहीं अधिक है..
तमाम झूठ पर खड़ा होकर भी अगर कुछ सच करने की कोशिश करता हूं तो इसमें ऐसी ही प्रतिक्रियाओं से आयी हिम्मत और उम्मीद की भूमिका है....अविनाश चंचल


जूनियर तुम लिखते रहो। उम्र में हमसे छोटे होने के बावजूद तुमसे जब भी मिलता हूं, हर बार नया सिखता हूं।हमसे पहले अाइआइएमसी में पढ़ाई की। अखबार में नौकरी करने के बाद अब महान के जंगलों में हो। जब भी तुमसे मिला नए जोश और उमंग के साथ देखा। जिन्दगी को नए नजर से देखते हुए। बिल्कुल अलग। बिल्कुल अलहदा। बीजी रहते हो। फिर भी कुछ न कुछ लिखते हो। कभी लीची की मिठास याद दिलाते हो।कभी भीड़ के बीच मां के अकेलापन का एहसास कराते हो। तुम्हारे ब्लॉग को पढ़कर घटते जंगल और मरते जंगलवासी की खबर मिल पाती है। मुस्कुराते बच्चे और जंगल भी खूबसूरत हो सकती है यह तो तुम्हारे कैमरे ही बताते हैं। तुम कुछ लिखोगे,इसका इंतजार रहता है। क्योंकि तुम जब लिखते हो नया लिखते हो। मालूम नहीं जूनियर कहना सही रहेगा या..........rat ka reporter

Wednesday, April 16, 2014

खुद से बात #2

कभी-कभी किसी खास दोस्त का फोन आ जाता है। दोस्त, जिससे हर रोज बात न हो, फिर भी जो मुझ पर विश्वास करे।

उसके सामने मन की वो बात भी शेयर हो जाती है, जिसका खुद भी पता नहीं होता।

कभी-कभी ऐसे दोस्तों के सामने रोया भी जाता है।

रोने के बाद अच्छा भी लगता है। सच में। रो कर देखना। ईमानदार आसूँ का निकलना आदमी बनाये रखने का जरिया भी हो सकता है। सच में।

Sunday, April 13, 2014

तुम्हे जो न कह सका माँ



माँ के पास पहुंच कर



बॉलकोनी में बैठा हुआ हूं। चांद दिख रहा है। रात के यही कोई दस बजे हैं। अकेला हूं। कोई नहीं है। पिछले एक साल से। बिल्कूल अकेला।


खूब घूमता हूं, खूब दुनिया देखता हूं, खूब खिलखिलाता हूं लेकिन अकेला हूं। अकेले ही ये सब करता चलता हूं। अपने इस निंतात अकेलेपन में ही माँ के अकेलेपन को फील कर पा रहा हूं।


पिछले पन्द्रह साल से वो अकेली है। एक घर है। एक पलंग है और मेरी माँ है जो हर रात उस पलंग पर अपने अकेलेपन को महसूस करते हुए सोती है और हर सुबह चार बजे कुछ गीतों को गाते हुए उठती है। माँ गीतों में अपने अकेलेपन को खोजती है, शायद इसलिए मैं वैसे ही कुछ शब्दों में अकेलेपन को टटोलने की कोशिश करता हूं।


माँ अच्छा गाती है, माँ के गानों में भक्ति और क्रांति दोनों हैं। मेरे पास न तो भक्ति है और न सच्ची क्रांति। शायद इसलिए माँ को खूबसूरत गाने मिल जाते हैं, मुझे शब्द नहीं मिलते।


जब शब्द नहीं मिलते तो मैं माँ को याद करता हूं। इतनी रात जब माँ सो रही होगी तो मैं फोन भी नहीं करना चाहता। जानता हूं उसके अकेलेपन को दूर नहीं कर सकता इसलिए उसकी नींद को खराब नहीं करना चाहता। वो याद आ रही है। बेतहाशा। बेउम्मीद हुआ जा रहा हूं। माँ के कमरे के उस पलंग पर दुबारा से जाना चाहता हूं, माँ के बगल में चुपचाप सोना चाहता हूं- सारी चिंताओं, बेचैनियों, लोगों से दूर एक बेफ्रिक नींद लेना चाहता हूं। फिर से माँ के गानों से न चाहते हुए भी अपनी सुबह की नींद खराब करना चाहता हूं।


एक दम जनवरी के ठंड में माँ जब अपने पानी से भींगे हाथ को गालों पर लगाकर सुबह उठाना चाहे मैं फिर से नाराज हो ठुनक-ठुनक रोना चाहता हूं। हर रात नींद में ही न चाहते हुए भी माँ के डांटों को सुन गर्म दूध पीना चाहता हूं।


ये सब चाहता हूं। आज। अभी। इससे पहले नहीं चाहता था। जब पटना में था, कॉलेज कैंपस में। या फिर दिल्ली में दोस्तों से घिरे होने पर। जब होली में भी घर नहीं गया था। माँ हमेशा यादों के किसी कोने में बैठी रही लेकिन इतनी शिद्दत से, बेतहाशा बैचेन होकर उन्हें याद नहीं किया।


आज सिंगरौली में हूं। बिल्कूल अकेले। एकाध साथ काम करने वाले अच्छे-प्यारे कलीग हैं लेकिन कोई दोस्त नहीं है। तो माँ को याद कर रहा हूं। उन्हें समझ पा रहा हूं। माँ के तमाम दोस्तों को शुक्रिया कहने का मन कर रहा है। जानता हूं उन सबसे इतना फॉर्मल रिश्ता नहीं कि शुक्रिया कहने की जरुरत हो। फिर भी माँ के सारे दोस्तों को सलाम करने को जी करता है।

 सलाम। मेरी माँ के अकेलेपन को बांटने के लिए। आप सबको मेरी उम्र लगे।


फिलहाल माँ की जरुरत महसूस हो रही है। सबको मुसीबत में पिता याद आते हैं मुझे माँ।

माँ का कहा याद आ रहा है। माँ का भरोसा हमेशा साथ रहता है कि जबतक मन का काम मिले करो, जबरदस्ती और अपने उसूलों से इतर कभी काम मत करना। लौट आना घर। मैं खिलाउंगी बैठा कर। इसी भरोसे चला जा रहा हूं। बिना किसी ठोस रोडमैप के। बिना किसी करियरिस्टिक माइल स्टोन को गेन करने की परवाह किए। उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने में रिस्क है, डर लगता है रिस्क लेने में। लेकिन गीली मिट्टी के रास्तों में मुझे चलना अच्छा लगता है माँ जानती है। इसलिए भरोसा दे रखा है। उसी भरोसे के दम पर मैं कच्चे सड़क पर चलने की कोशिश करने में लगा हूं।


माँ नहीं पढ़ेगी कभी मेरे इस लिखे को। जानता हूं । इसलिए लिख दे रहा हूं।
जब पढ़ेगी तो रोएगी। वैसे ही जैसे जब मैं उससे मिलकर लौटता हूं अपनी बनायी दुनिया में। वो रोती रहती हैं उस पार। हफ्तों। मुझे पता है वो बताती नहीं। इधर मैं भी रो रहा हूं। मैं भी माँ को बताता नहीं।



(शुक्र है माँ-बेटे के बीच अनकहा ही है ज्यादा कुछ। क्योंकि शब्द मुझे मिलते नहीं)

Friday, April 11, 2014

हर रोज खुद को राख में बदलते चले हम

कबीर के राम याद आ रहे हैं

"हमें समय-समय पर अनेक ‘वादों’ और आदर्शों ने उम्मीदें दी थीं, जिन पर ठिठुरते हुए हमने अपने हाथों को सेंका था। आज उनके कोयले मद्धिम हो चले हैं, सिर्फ राख बची रह गयी है जो फूँक मारने से कभी दायीं तरफ जाती है, कभी बायीं तरफ- जिस दिशा में जाती है हम उस तरफ भागते हुए कभी दक्षिणपंथी हो लेते हैं, कभी वामपंथी। लेकिन राख राख है, उसके पीछे अधिक दूर नहीं भागा जा सकता है। आखिर में अपने पास लौटना पड़ता है।
ऑस्ट्रियन लेखक और पत्रकार कार्ल क्रौस ने एक बार कहा था, “मनुष्य को अन्त में वहीं लौटना पड़ता है, जहां से वह शुरू होता है- इसी में उसकी सार्थकता निहित है।”
इस शुरू को पकड़ने के लिए हमें सदैव अपनी स्मृति और भाषा की अँधेरी जड़ों में रास्ता टटोलना होगा"।

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निर्मल वर्मा

पढ़ते-पढ़ते निर्मल वर्मा के लिखे इन शब्दों तक पहुंच गया। नहीं, नहीं।  मैं किसी निराशा में नहीं। न ही विचारधाराओं से मोहभंग तक पहुंचा हूं लेकिन कुछ है जो पिछले कुछ दिनों से मथ रहा है।
शायद इसलिए निर्मल के इस लिखे में खुद का भविष्य भी देख रहा हूं। डर रहा हूं।


कई चीजें चल रही है भीतर। विचारधारा, विचाराधारा की दुकानदारी। मैं किसी पर सवाल नहीं उठा रहा, खुद को ही कटघरे में खड़ा कर रहा हूं।


हर रोज एक ऐसी दुनिया देखता हूं जहां निराशा, हताशा, मजबूरी के सिवा और कुछ नजर ही नहीं आता।

लेकिन कुछ रोज ऐसा भी आता है जब अचानक से सामने एक भयानक रौशनी में नहलायी दुनिया आ खड़ी होती है।
उसका सामना करना मुश्किल नहीं होता, जितना लौट कर इस अँधेर दुनिया में आना और वहां की स्मृति को समेटे रखना।


सोचता हूं कुछ दिन परमानेंट यहीं रह जाऊं। सिंगरौली।
दिल्ली को स्थगित करना जरुरी है।

कबीर के राम को पढ़ रहा हूं। शायद कुछ अदृश्य-सा मिल जाय......

Thursday, April 10, 2014

दो साल और इत्ता कुछ

(बहुत मजेदार नहीं है, इसको नहीं भी पढ़ा जा सकता है)


9 अप्रैल, 2014। दो साल हुए। नौकरी करते। हर महीने घर से पैसे नहीं मंगवाते। हर महीने की पांच तारीख को एटीएम पर जा पैसे का इंतजार न करते। दो साल भी एक-एक साल में बंटा। शुरुआती एक साल रिपोर्टर की नौकरी करते गुजारी तो दूसरे साल शहर-गांव-कस्बों में घूमते हुए जंगल बचाओ, जंगल बचाओ चिल्लाते।



शुरूआत के एक साल। हमारा दिन गुजरता जाता है, जिन्दगी की गाड़ी बढ़ती जाती है और गुजरे हुए की याद भी मिटती जाती है। दिमाग का इरेजर अगर काम न करे तो न जाने कितनी चीजें अटकी-फंसी रह जाये। तो वो शुरूआती एक साल एक रुटिन वर्क का हिस्सा ही लगता है मुझे।
सुबह के 11 बजे अपने दफ्तर पहुंच जाना। रुटिन आईडिया लिखकर फोल्डर में सेव करना और फिर निकल पड़ना कुछ खबरों की तलाश में। कभी प्यार कभी गुस्सा और कभी हल्का-सा डर पैदा कर  अफसरों, चपरासियों, क्लर्कों, छपास रोग से पीड़ित शहर के माननीयों से खबरे निकलवाने का सिलसिला। गाहे-बगाहे बाइलाइन खबर। कभी रुटिन वर्क में भी बाइलाइन तो कभी स्पेशल स्टोरी में भी अपना नाम नदारद देखने से हमारी खुशी और सफलता तय हो जाती जबकि सच्चाई है कि अखबारों में बाइलाइन आपके डेस्क के सीनियरों से रिश्ते तय कर दिया करते हैं।



मुझे लगता है। शायद खुद को ओवर करके आंक रहा हूं। मेरे कलीग और कमलेश सर बेहतर बता पायें। लेकिन महीने-दो महीने के भीतर ही नगरपालिका का चुनाव कवर करते-करते, जनता से संवाद कार्यक्रम के बहाने तेजतर्रार रिपोर्टर की पहचान बना ही ली थी ऑफिस के भीतर।



पहले पहल तो कोई बीट ही नहीं मिली। जहां भी किसी डेली असाइनमेंट में भेजा जाता हम तीनों-चारों साथ ही हो लेते। हम मतलब- मैं, नेहा, सरोज और रिमझिम। आईआईएमसी से बाहर निकल कर हमारे बीच जो मजबूत रिश्ता बना वो आज भी मुझे लगता है कम-से-कम बची तो है ही। एक ही धंधे में रहते हुए अपने समकालीनों से रिश्ते बेहतर हालत में बची रहे यही खुद को शाबासी देने के लिए कोई छोटा बहाना थोड़े न है।


और जब हमें बीट मिली भी तो क्या- स्पोर्ट्स। क्लचरल, रेलवे, हेल्थ, एजुकेशन कुछ नहीं बचा था मेरे लिए तो उठाकर खुद ही पटक लिया खुद को इस बीट में।
बिहार में भले स्पोर्ट्स रिपोर्टिंग का स्कोप बहुत न हो लेकिन पटना के खेल पत्रकार खुद को दूसरों के मुकाबले थोड़े ऊंचे दर्जे का जरुर समझते हैं। भले दूसरे बीट के लोग स्पोर्ट्स वालों को भाव दे या न दे।


तो कैसे हो? दिमाग इन्हीं सवालों में उलझा था कि हर एक खेल पर रिपोर्टिंग शुरू करो। अगर अच्छे की रिपोर्टिंग नहीं हो सकती तो बुरा क्यों है इसी पर शुरू हो जाओ- कहते हुए संपादक केके सर ने मामले को सुलझा ही दिया।


बिहार का एक अखबार। अखबार हिन्दुस्तान। और अखबारी दुनिया का वो समय जब नीतीश शासन काल में मीडिया का आपातकाल घोषित किया जा चुका हो। शुरू हुई यात्रा। बीच में सरोज-अविनाश नाम से छपे कुछ एकाध दर्जन रिपोर्ट को जानबुझकर स्किप कर रहा हूं क्योंकि डर है कि कहीं सरोज को नागवार न गुजरे। करीब दो साल की अटूट दोस्ती के बाद हमारे रिश्ते में फिलहाल एक ठहराव आ गया है। हम दोनों उस ठहराव को वहीं छोड़ आगे बढ़ चुके हैं लेकिन सच बात तो है कि दोनों ने मिलकर खूब स्टिंग किए, खूब घूप में खड़े हुए और खूब माथा पच्ची खबरों के पीछे भी करते रहे।



खैर, थोड़ा बोर कर रहा हूं। इत्ता लंबा लिखने का मन नहीं था। इन सोर्ट बोलूं तो शुरुआत के एक साल में मिले कुछ दोस्त, कुछ खेल से जुड़े लोग जो अभी भी फोन कर-कर मिस करते रहते हैं, कुछ रिपोर्ट्स जिन्हें किसी को दिखाने में अच्छा लगता है कि देखो मुख्यधारा में रहते हुए, स्पोर्ट्स जैसे बीट पर भी जनसरोकारी खबरें कर पाया मैं (थोड़ा आत्ममुग्घ साउंड करने के लिए सॉरी)



पिछले एक साल से आदिवासियों के बीच। जंगल-जमीन बचाने के अभियान में लगा। न जाने कितने रिपोर्ट्स लिखे, कितने पन्ने बर्बाद किए। लड़ाई अभी भी जारी है। जंगलों को, आदिवासियों को दिल्ली में बैठे बहसों-सेमिनारों से इतर सामने से देखने-समझने का मौका मिल रहा है। बीच-बीच में कई शहरों को भी जानने का सो अलग।




किस्सा बहुत लंबा है। ज्यादा लिख नहीं पा रहा। (एक खास बात है, मुझे लग जाता है कि मैं अच्छा नहीं लिख रहा हूं। यहां भी लग रहा है। इट्स नॉट सो इंटरेस्टिंग। इसलिए इस पोस्ट को यहीं  बीच में ही खत्म कर रहा हूं।)

Saturday, September 28, 2013

Zindagi via cinema part 3

(कहानी के इस अंतिम भाग को सबसे अंत में ही पढ़े...पार्ट वन, पार्ट टू और पार्ट थ्री..)
हाईस्कूल के बाद बेगूसराय शहर के एक लॉज में ठिकाना बना। लॉज भी एक दम दीपशिखा (शहर का सबसे सस्ता सिनेमाहॉल) के पास लिया गया था। कभी घर को फोन करके तो कभी बिना बताए ही। हम सिनेमा हॉल जाते रहते। कभी ना-नु करने पर लॉज के दोस्तों का रेडिमेड तर्क तैयार रहता- दिन भर पढ़ो और रात को तो सोना ही है तो उस टाइम में फिल्म देख लो। स्पेशल, डीसी, बीसी। ज्यादातर स्पेशल ही देखते। ब्लैक में टिकट लेने की न तो हिम्मत थी न पैसे। हमेशा घंटों लाइन में खड़ा हो ही टिकट लिया है- स्पेशल वालों की लाइन में भीड़ हमेशा ज्यादा होती। एक बार स्पेशल (सबसे सस्ता) वाले लाइन  में खड़ा क्लास की एक लड़की ने देख लिया था। उसका तो नहीं पता लेकिन मैं लगभग टिकट खिड़की के पास पहुंच कर लौट आया था। एक धक्का सा लगा था स्टेट्स सिंबल पर। आजतक स्पेशल में लड़कियों का जाना खराब और असुरक्षित सा माना जाता है। हां, संडे को जरुर मॉर्निंग शो में स्टूडेंट पास लेकर बीसी टिकट पर सिनेमा देखता था। ये जिश्म, जहर, क्योंकि, हम आपके हैं कौन, ताल जैसे फिल्मों का दौर था।
सोचता हूं अगर ये पार्टनरशिप नहीं होता तो हम जैसे बिहारी लड़कों का क्या होता... कई बार पैसे न होने पर पार्टनरशिप में फिल्में भी देखी है बेगूसराय के उस विष्णु नगर वाले मोहल्ले में। दो लोग तैयार होते। एक ही टिकट पर दो लोग देखते सिनेमा। इंटरवल से पहले और बाद में बंटा था। सिनेमा के बाद दोनों आपस में बैठ एक-दूसरे को कहानी बता फिल्म पूरी करते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि जो दोस्त आधे पैसे लेकर फिल्म देखने गया वो इंटरवल के बाद निकला ही नहीं। कई दिनों तक आपस में तनातनी बनी रही। कई बार लॉज का कोई पैसे वाला बोरिंग फिल्म देखने चला जाता। बीच फिल्म से टिकट ले लौट आता। वो टिकट जिसके हाथ लगी वो उस दिन मुकद्दर का सिंकदर बना घूमता।
सिनेमा ने फिर जिन्दगी को मोड़ा
बेगूसराय घर के संपर्क में रहता था। चुपके से लगता है घर को बता आया मेरे फिल्म देखते जाने और बिगड़ते जाने की कहानी। घर को लगा लड़के को पटने भेजते हैं शायद सुधर जाय। बड़ा शहर आपको बड़े सपने दिखाता है घर वालों ने शायद सोचा होगा। मेरे लिए बड़ा शहर मतलब और भी ज्यादा बड़े परदे पर सिनेमा देखने का लोभ मात्र था। पटने में अशोका-राजधानी का गौरव हुआ करता था। लेकिन पहली फिल्म इमरान हाशमी की देखी थी- अक्सर, रिजेन्ट में। बोरिंग रोड से गांधी मैदान फिर वही पैडल मारते साईकिल पर सवार। नाइट शो और लॉज के गेट फांदने का चस्का तो बेगूसराय में लगा लिया था।
ब्लैक में बेचे हैं टिकट मैंने
अशोक में पच्चीस रुपये स्पेशल का रेट था। लाइन में करीब दो घंटे पहले तो लग ही जाना होता। एक बार रब ने बना दी जोड़ी के लिए लाइन में लगे हुए थे। एक आदमी को सिर्फ तीन टिकट देना अलाउ था। मेरी बारी आई तो किसी ने पीछे से कहा- भैया, आप अकेले हैं, दो मेरे लिए भी ले लीजिए। मैंने ले भी लिया लेकिन उस आदमी को टिकट दिया नहीं- हड़काया। मुझे क्या फायदा होगा। उस आदमी ने जल्दी से पच्चीस वाले टिकट के लिए पचास हाथ में थमा दिया। दो टिकट के सौ रुपये। मतलब खुद की सिनेमा फ्री तो देखो ही साथ ही, खाते-पीते रहने का इंतजाम भी। इसके बाद कई ऐसी फिल्में देखी जिसमें खुद और दोस्तों को फ्री में सिनेमा दिखला लाया। यह नयाब तरीका उन दिनों सिनेमा देखने के लिए वरदारन बनकर आया था मेरे लिए।
एक बार घर से भागने का मन हो गया। लगा इस दुनिया में जीना है तो घर से भागना ही पड़ेगा। बिना बताये निकल गया पटना के डेरा से। डेरा में भाई और मामा के साथ रहता था। दिन भर घूमता सोचता रहा। इस बीच महावीर मंदिर पर जाकर दो घंटे बैठ आया। वहीं से अशोका फिल्म देखने आ गया- चक दे इंडिया। फिल्म पूरी होते-होते भागना कायरपना लगने लगा। फिल्म देख गांधी मैदान आया सीधे। डायरी में कुछ पन्ने लिखे। कुछ मन में ठाना और शाम तक डेरा लौट गया। फिल्में हमारी जिन्दगी में कब हौले से आ बैठ जाती हैं हमें इल्म तक नहीं हो पाता।
अब पटने से निकल गया हूं। दिल्ली के दिनों में वसंत विहार प्रिया में कई बार मॉर्निंग शो देखने जाता रहा। दिल्ली में ही कई विदेशी फिल्मों का चश्का लगा। ईरानी माजिद मजीद जैसे कई बड़े फिल्मकारों से भेंट हुई वाया सिनेमा। आईआईएमसी और जेएनयू के दोस्तों की बदौलत सिनेमाई ज्ञान में अब बुद्धिजीविता आ गयी है। अब चेन्नई एक्सप्रेस अच्छी नहीं लगती। दिवाकर और अनुराग के शॉर्ट फिल्में काफी पसंद आती हैं। इधर लूटेरा और मद्रास कैफे देख मन गदगद है। कई बार बौद्धिक बनने के लिए नांनटिज की फिल्मों को कूड़ा-करकट तक कह देता हूं लेकिन आज भी दूरदर्शन पर देखी वो फिल्में कहीं भीतर अंदर फंसी हुई हैं।
फिलहाल पसंदीदा फिल्मों या यादगार फिल्मों की फेहरिस्त काफी लंबी होने के बावजदू भी कुछ नाम रख दे रहा हूं-
अर्जून पंडित- वजह पूरे पांच साल तक मेरे जिन्दगी की जगह ही बदल कर रख दी। शायद आदमी भी बन पाया।
चक दे इंडिया- जिसको देखने के बाद घर छोड़ने का प्रोग्राम कैंसल किया। भागो नहीं दुनिया बदलो की ठानी है।
गोलमाल- जितनी बार देखता हूं उतनी बार तारोताजा
चश्मे बद्दुर- एक ऐसी फिल्म जिसे सौ बार लगातार देख सकता हूं।
द डिक्टेटर- चार्ली की हँसी के पीछे छिपे दर्द को उकेरने वाली शानदार फिल्म
चिल्ड्रेन ऑव हैवन्स, ब्यूटीफूल चिल्ड्रेन- बच्चों के बहाने ईरानी जिन्दगी और तकलीफों को चित्र की तरह कैनवास पर उकेर देने के लिए
मोटरसाईकिल डायरिज- कॉमरेड चे की कहानी
लूटेरा- बेहतरीन..बेहतरीन...बेहतरीन
मद्रास कैफे- हिन्दी फिल्मों का विदेश
हंगामा
हेरी फेरी
दो गज जमीन


Zindagi via Cinema 2


इस बीच घर ने अपने डांट-फटकार के बावजूद भी मेरे सिनेमाई ललक को कम होता न देख वो फैसला लेने पर मजबूर हुआ, जिसने रातों-रात मेरे दोस्तों के बीच मेरा ओहदा काफी उंचा कर गया। एक दिन ठेले पर ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी को अपने दरवाजे चढ़ते देखा, साथ में एक छोटी सी बैटरी भी। आनन-फानन में एक बांस काट कर लाया गया। अंटिना सेट करते हुए मामा को हमलोग बताते रहे- आ गया, झिलमिला रहा है, चला गया जैसे शब्द उस दिन रात तक आंगन में गोल-गोल चक्कर काटते रहे। शुक्रवार की उस रात गांव-टोले भर में बात फैल चुकी थी कि मेरे घर में टीवी आ चुका है। आस-पड़ोस वाले जिनके यहां से काफी घरेलू रिश्ता था हमारा। बड़े ही अधिकार से उस रात साढ़े नौ से पहले ही आ जमे थे। चाय की केतली गरम होने को चढ़ा दी गयी। बड़े-बूढ़ों के लिए कुर्सी और बच्चे जमीन पर। तकरीबन पचास से ज्यादा लोगों की दर्शक-दिर्घा तो रही ही होगी। पहली फिल्म चली- प्रेमरोग। घर थोड़ा बेगूसराय वाले क्रांतिकारी पृष्ठभूमि का तो था ही। फिल्म अंत तक न जाने कितने बूंद आँसू टपकाए। हमें तो लूट लिया- भवरें ने खिलाए फूल-फूल कोई ले गया राजकुमर। टीवी वाला घर बनने की उत्तर-कथा ये हुई कि अब मेरे दोस्त मेरी खुशामद करने लगे, किसी से लड़ाई होने पर उसकी सजा अपने घर टीवी नहीं देखने की धमकी के रुप में दिया जाने लगा, इसी टीवी को देखने का दरवाजा खुलते ही लड़ाई भी खत्म हो जाती। इस तरह सिनेमा हम दोस्तों की लड़ाई और सुलह को तय करने लगा था।
  एक घटना और याद हो चला आता है। एक बार पटना गए थे। जिन रिश्तेदार के यहां रात में रुकना हुआ उनके घर रंगीन टीवी केबल के साथ लगा देखा। पहली बार रंगीन टीवी और उसपर भी रात-दिन सिनेमा आने वाला चैनल जी-सिनेमा। रात भर आवाद धीमी करके टीवी पर सिनेमा देखता रहा था। करिश्मा-गोविंदा-बादशाह-अहले जब चार बजे सुबह के करीब माँ ने कान उमेठ डांटना शुरू किया तब जाकर सोया था उस रात।
   रंगीन टीवी देखने के बाद अपना टीवी कुछ फीका सा लगने लगा। बिहारियों में असुविधाओं के विकल्प खोजने की जबरदस्त ताकत है, जिसे जुगाड़ टेक्नोलॉजी कहते हैं। इस जुगाड़ टेक्नोलॉजी से ही न जाने कितने घरों में गोबर गैस की बत्तियां जलती हैं और न जाने डिल्ली-बम्बई-कलकत्ता में मजे की जिन्दगी भी। तो मैंने भी अपने टीवी को रंगीन करने की ठानी। पटने में ही मिला एक शीशा-चारों तरफ ब्लू..बीच में लाल..और थोड़ा-थोड़ा हरा भी। उस ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पर उपर से चिपका दिया गया। रंगीन टीवी के पूरे मार्केट को ठेंगा दिखाते हमारी ऑनिडा ने भी रंगीन कलर में सिनेमा दिखाने लगी।
डीभीडी और सीडी का हमारे गांव तक आना
उस समय तक डीभीडी काफी प्रचलित था लेकिन धीरे-धीरे डीवीडी और सीडी में बनकर नयी-नयी फिल्में हमारे गांव तक का रास्ता तय करने लगी थी। तमाम तरह के मेले-ठेले, तीज-त्योहार में हम गांव में चंदा करते। कभी ज्यादा पैसे होने पर परदे पर प्रोजेक्टर के सहारे सिनेमा दिखायी जाती। कम पैसे होने पर डीवीडी प्लेयर में सीडी दिखा काम चलाया जाता। हां, एक बात और दोनों ही माध्यमों में पहली फिल्म का धार्मिक विषय होना अनिवार्य सा रहता। देर रात कोई भूतहा फिल्म लगाया जाता।
  ये जिन्दगी सिनेमा के नाम
बेगूसराय के जिस सुदूर दियारा इलाके के गांव से मैं आता हूं। उसके बारे में मशहूर है कि बारह-तेरह साल की उमर में अगर बम फेंकना न सीखे, तमजा खोंस कर चलना न सीखें तो शक की काफी गुंजाईश है कि वो बच्चा उसी गांव का है कि कहीं सरईसा से उठ आया है। तो मैं पांचवी में था। सावन का महीना। अंतिम सोमवारी। गांव से सात किलोमीटर दूर विद्यापति धाम, जहां हर सोमवारी भारी संख्या में लोग जल चढ़ाने आते। स्कूल के दोस्तों ने कहा चलो बाबा के यहां जल चढ़ाते हैं। मैंने मना कर दिया। जानता था जल तो बहाना है असली काम भिडियो हॉल में सिनेमा देखने जाना है। लेकिन दोस्तों को यूं ही कोई कमीना थोड़े न कहता है। बाबा शिव का ऐसा डर दिखाया कि घर का डर एक बार को बहुत टुच्चा सा लगने लगा। आज भी याद है सावन के उस बारिश में केले के पत्ते की ओट में हम भागते-भागते सीधा सिनेमा हॉल ही पहुंचे थे। बाबा को जल चढ़ाने का मतलब था फिल्म आधी छूट जाना इसलिए पोस्टपोन्ड।
फिल्म थी- अर्जून पंडित। सन्नी देओल। शायद पेशे से वकील था। प्यार-मोहब्बत-बदले की कहानी। एक-एक रुपये की टिकट ले हमने जमीन वाली सीट बुक कर ली थी। फिल्म देख घर को लौटे- दरवाजे पर खड़ी वो भीड़ आज भी जस का तस याद है। लगा कोई दुर्घटना हुई। दिल धक्क। जाकर देखा तो माँ रो रही थी। लोग हमें खोजने के लिए चारों तरफ भेज दिए गए थे। अपहरण का अंदेशा था। पिटायी नहीं हुई थी उस दिन। एक खतरनाक चुप्पी थी जिसे हमने रात की रोटी को कुतरते हुए महसूस किया था। सुबह वाली ट्रेन से हमें ननिहाल की तरफ भेजा जा चुका था। ननिहाल। जहां कड़े अनुशासन वाले मामा थे, दिन भर की खबर लेते नाना जी थे। आने वाले पांच साल यहीं बिताने थे मुझे। आज भी सोचता हूं अगर अर्जून पंडित न देखा होता तो शायद मैं भी गांव के अपने दूसरे दोस्तों की तरह कहीं गुमनामी में खड़ा तमचें और बम बनाना सीख रहा होता।
    लेकिन  इन सबके बीच साथ बना रहा तो मेरा सिनेमाई प्रेम। ननिहाल के कड़े अनुशासन वाले माहौल में नौ बजे रात तक रट्टा मार-मार पढ़ना जरुरी होता। फिर खाना और सोना। सिनेमा सिर्फ रविवार की शाम को देखने की इजाजत थी। आज भी याद है शुक्रवार और शनिवार की वो रातें जब अपने कंबल के एक कोने को उठा चुपके-चुपके पूरी फिल्म देखा करता। कभी-कभी तो रात भर कंबल के नीचे सर गोते सिर्फ आवाज के सहारे ही पूरी फिल्म आँखों से गुजर जाती। एक नयी बात ये जरुर हुई कि अब अखबारों और सरस सलिल के माध्यम से फिल्मी खबरें भी पढ़ने को मिलने लगी।
मेरे साथ हमेशा यही होता है जब अपनी यादों की पोटली पसार बैठता हूं तो उसे समेटना मुश्किल सा हो जाता है। मीडिल स्कूल के बाद हाईस्कूल में दाखिला लिया था हमने। सबसे दूर वाले स्कूल में। वजह ये कि वहां फिल्म के दो थियेटर थे। बड़े परदे पर फिल्म देखने की जो ललक दलसिहंसराय में जगी थी उसके पूरे होने के दिन शुरू होने वाले थे। साईकिल से पांच किलोमीटर की रोजाना यात्रा। स्कूल में हाजिरी भी जरुरी होता। पहले हाजिरी बनती। साईकिल हम बाहर ही रख छोड़ते। एक दोस्त स्कूल के बाहर बाउंड्री के पार वाले हिस्से में खड़ा होता। हम धीरे-धीरे अपना बस्ता उधर फेंक देते। फिर एक चाहरदिवारी नुमा छत से नीचे की छलांग। सारा ध्यान साईकिल के पैडल पर। स्पीड..स्पीड...और स्पीड। एक भी सीन छूटना नहीं चाहिए। इस तरह हिन्दी-भोजपुरी फिल्मों के संसार में धड़धड़ाते पहुंच जाते हम। बड़े परदे की फिल्में, कि फिल्म के बीच ब्लेड फेंक देने से पर्दा फटने की कहानियां और न जाने क्या-क्या। चार या पांच रुपये में बेंच पर बैठ कर फिल्म देखने का वह सुख जरुर फिर दोहराना चाहता हूं। सुख का तेज अनुभव उस दिन भी हुआ था जब हमने मैट्रीक की परीक्षा खत्म कर सिनेमा हॉल पहुंचे थे। थोड़े से बड़े होने के सुख ने सामने वाले फिल्मी परदे को भी उस दिन काफी बड़ा कर दिया था।

जारी....

Zindagi via Cinema part 1

सिंगरौली की उस शाम हम सभी जंगल से लौटे ही थे। नियम सा है कि गांव से लौट सबलोग अपने-अपने इस बक्सेनुमा लैपटॉप में घुस सा जाते हैं। दरअसल, सिंगरौली जैसे जगह में बैठे-बैठे ही हम बाहरी दुनिया वालों से खुद को आसानी से जोड़ने के मोह से ग्रस्त होते हैं। उस दिन बैठे-बैठे मैंने अपनी जिन्दगी के पन्ने उलटने शुरू किए वाया सिनेमा। सिनेमा और मेरी जिन्दगी इतनी जुड़ी होगी पहले से पता तो न था।
जिन्दगी वाया सिनेमा कुछ किश्तों में---- (पहली किश्त)

 
चवन्नी चैप में हिन्दी टाकीज पढ़ रहा था। इधर मैं ओल्ड पोस्ट पर क्लिक करता  जा रहा था उधर बचपन से लेकर अबतक सिनेमा देखी अनुभव का रील भी घूमता चलता रहा। पहली बार किसी हॉल में सिनेमा कहां देखा-सोचता हूं तो फ्लैश बैक में  दलसिंहसराय (समस्तीपुर का एक कस्बा) का वो हॉल चला आता है शायद मोहरा फिल्म रही होगी लेकिन  रजा मुराद जैसी कोई भारी आवाज भी साथ में सुनाई देती है। चाह कर भी बचपन की वो पहली याद किसी हिरोईन के डांस और उस भारी आवाज से आगे नहीं जा पाती। माँ की एक दोस्त थीं- हमलोग दोस्तीनी चाची बुलाते थे-उन्हीं के ईलाज के लिए दलसिंहसराय गए थे। तभी आज भी उस याद में माँ के हाथों को पकड़ सिनेमाहॉल जाने का फोटो बचा रह गया है और सिनेमाहॉल जाने का उत्साह भी।
    इसके बाद काफी अरसा सिनेमाहॉल दिखा नहीं। गांव में टीवी इक्का-दुक्का घरों में ही लग पाया था। हर रविवार डीडी पर शाम चार बजे। हफ्ते भर हम इंतजार करते रहते। साढ़े तीन बजे तक टीवी वाले के घर पर हम दोस्तों की टोली पहुंचनी शुरू हो जाती। आधे घंटे पहले आने की हिदायत  टीवी मालिक की तरफ से विशेष रुप से दी गयी थी। वजह, उन आधे घंटों में हमें बैठने के लिए जमीन पर अपनी सीट तलाशनी होती और साथ ही, टीवी मालिक-दर्शकों को कुत्ते-बिल्ली-खिखिर और न जाने किन-किन जानवरों की आवाज निकाल मनोरंजन करना पड़ता। गांव में बिजली नहीं है। हर शुक्रवार को टीवी मालिक साईकिल के करियर में बैटरी बांध बजार से चार्ज करा लाते। शुक्रवार से रविवार तक फिल्म देखने का साप्ताहिक कार्यक्रम होता-बैटरी इतने दिनों के लिए चार्ज होते रहते। तो बैटरी वाले उस टीवी-सिनेमाई युग में हर ब्रेक के बीच टीवी को ऑफ कर दिया जाता- बैटरी की खपत कम करने वास्ते। हर ब्रेक के बाद टीवी तभी ऑन होता जब हममें से कोई (जिसे टीवी मालिक चुनता) उस कुत्ते-बिल्ली-खिखिर की आवाज नहीं निकाल लेता। अगर कोई आवाज न निकालने को अड़ जाता तो टीवी भी ऑन नहीं होता। ऐसे समय हमलोगों की खुशामद पर ही वो दोस्त आवाज निकालने को राजी होता और फिर सिनेमा आगे बढ़ायी जाती। जाड़े के दिनों में शाम छह बजे तक काफी अँधेरा हो जाता- आज भी याद है कोई ऐसी रविवार वाली रात नहीं गुजरती जब हमें मार न पड़ी हो।
   शनिवार को दोपहर दो बजे से नेपाली चैनल पर हिन्दी फिल्म आती थी। गांव में एक ही टीवी मालिक था जिसके टीवी पर नेपाली फिल्में साफ-साफ दिखती थीं लेकिन हम दोस्त जब भरी दुपहरी में फिल्म देखने पहुंचते तो टीवी मालिक का शर्त होता कि सिर्फ मुझे ही अंदर आने दिया जाएगा। मैं अड़ जाता। जाउंगा तो दोस्तों के साथ ही। बात नहीं बनती। फिर हम दोस्त टीवी वाले कमरे में की-होल से झांका करते, कभी-कभी खिड़की के दरिजों से भी। बारी-बारी हम सब फिल्म को देखते और कहानी कहते जाते। फिर बाद में हम दोस्तों ने एक रास्ता खोज निकाला। मेरे बांकि दोस्त छिप जाते, मैं टीवी मालिक को अंदर आने देने को कहता और दरवाजा खुलते ही मुझसे पहले मेरे सारे दोस्त अंदर। मैं अनजान बना रहता। गांव में होने की गनीमत थी कि टीवी मालिक मेरे दोस्तों को अंदर से बाहर नहीं निकाल पाता। इतनी मशक्कत बाद भी सिनेमा से कभी प्यार कम न हुआ। इसी दौरान हिरो, राजा बाबू, घातक, मिथून, गोविंदा, सन्नी देओल, अभिताभ सबसे मुलाकात हुई। काफी दिनों तक हिरोईनों के मामले में कन्फयूज ही रहा। माधुरी, जूही, काजोल सबके चेहरे एक से ही लगते रहे। ये वे दिन थे जब दिव्या भारती की मौत को लेकर तरह-तरह के चर्चे हम दोस्त किया करते। आपस में झगड़ते तो मिथून की ईस्टाईल में धिसूम-धुड़ूम वाली ध्वनि मुंह से खुद ब खुद निकलते। अक्षय और सन्नी देओल में कौन ताकतवर है के सवाल से जूझते रहते। हमारी सिनेमाई समझ खुद की विकसित की हुई समझ थी- बिना किसी फिल्मी पत्रिकाओं और अखबारों के। हम किस सीन पर घंटों चर्चा करते- कोई कहता हिरो-हिरोईन के बीच में शीशा लगा होता है, एक ही गाने में इतने कपड़े कैसे बदल जाते हैं-जैसे मासूम सवालों में उलझना अच्छा लगता था।
(जारी..)

कुछ चीजों का लौटना नहीं होता....

 क्या ऐसे भी बुदबुदाया जा सकता है?  कुछ जो न कहा जा सके,  जो रहे हमेशा ही चलता भीतर  एक हाथ भर की दूरी पर रहने वाली बातें, उन बातों को याद क...