Sunday, March 15, 2020

माँओ के बारे में

मुझे लगने लगा है कि हम माँओं के बारे में कितना कम जानते हैं। उनके बारे में कितना कम लिखा गया है। मां और बेटे या फिर बेटी के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश नहीं की गयी है।

या तो माँ बहुत महान होगी, या फिर बेटा विलेन। फिल्मों से लेकर कहानी तक यही नैरेटिव बिखरा पड़ा है।

क्या ऐसा नहीं होता कि माएँ भी हद तक इरेटेटिंग हो सकती हैं? कि माएँ अपने बारे में अपनी जिन्दगी के बारे में भी हद दर्जे तक स्वार्थी हो सकती हैं।

वो। उनका स्पेस। उनकी जिन्दगी। उनका प्रेम। उनका लोगों से रिश्ता। सबकुछ को अच्छा-अच्छा या महानता के चश्मे से ही देखने का प्रेशर क्यों?

ये त्याग, ये अनकंडिशनल लव क्या हमने दुनिया की सारी माँओ पर थोप नहीं दिया है?

एक ऐसी जंजीर जिसमें वो जिकड़ी रहती हैं। अपने सपनों को कभी जाहिर नहीं करती, अपनी चाहतों पर ताला डाल कर रखती हैं और फिर उन चाहतों की बजाय 'बच्चों की चाहतें' ही उनकी चाहत बन जाती है।

और फिर कई बार ये भी तो होता है कि माँ की चाहतों में बच्चे बंधने जैसा महसूस करने लगते हैं।

कई बार ये भी तो होता है कि हम अपने लिये चाहे गए इच्छाओं में बंद सा महसूस करते हैं.


न हमारी माँओ के लिये अच्छा, न हमारे लिये। फिर ये महानता किसके हक में है?

क्यों महानता की जगह सहजता नहीं होना चाहिए..

माँ के अपने खुद के लिये सपने, चाहतें, सुख उनके बच्चों से अलग हों...

बच्चों की चाहतें, माँओ से अलग रहे.

कोई विलेन न हो, कोई भगवान न हो.

इंसानी फितरत से भरा एक जिन्दा रिश्ता रहे।

क्या ये हो सकना इतना मुश्किल है?


भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...