Saturday, January 25, 2014

गणतन्त्र दिवस पर बाबा नागार्जुन की एक कविता


अजय आनन्द के फेसबुक वॉल से


किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है

चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पंद्रह अगस्त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
 
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
 
धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
 
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।

Thursday, January 16, 2014

orkut की तस्वीरों के बहाने कुछ यादें






     मैट्रीक बोर्ड खत्म हो चुका था। पटना में आकर डेरा लिए भी दो साल होने चले थे। दोस्तों के बीच ऑर्कुट काफी पॉपुलर हो चुका था। अरे स्क्रैपबुक है रे, फलाने ने लड़की का फैक प्रोफाइल बनाकर खूब गदहा बनाया है, अमुक कम्यूनिटि में एड करो, उसको फ्रेंड लिस्ट में जोड़ा, फलाने लड़की के फोटो पर कमेंट करो- और ऐसी ही कितनी ही बातें जो पल्ले ना पड़े। सुनायी देने लगी थी।

डेरा के आसपास राजीव नगर में कई कंप्यूटर क्लास चलते थे। लेकिन दिक्कत ये था कि हर बार डिप्लोमा इन कंप्यूटर एप्लीकेसन (डीसीए) को ज्वॉयन तो करता था लेकिन डेमो क्लास के बाद छोड़ देता। वजह कोर्स के सबसे आखरी पड़ाव में इंटरनेट पढ़ाया जाता था।
इंटरनेट तक पहुंचने की जल्दी में पेन्ट, एमएस वर्ड, पावर प्वाइंट, एक्सेल सब थोड़ा-थोड़ा डेमो क्लास में सीख तो गया था लेकिन इंटरनेट तक पहुंच नही पाया।

इसी बीच मोहल्ले में साईबर कैफे खुलने लगे थे। साईबर कैफे जहां इन्टरनेट होता था, जहां मैट्रीक का रिजल्ट देखने जाता था, जहां गुगल पर टॉप टेन मॉस कम्यूनिकेशन कॉलेज सर्च करता था (देशभर के करीब सौ से उपर कॉलजों का पता, फोन न., बेबसाइटों का संग्रह हो गया था) और जहां पहली बार ऑर्कुट की दुनिया खुली थी।
हालांकि मोहल्ले का वो साईबर कैफे 20 रुपये प्रति घंटा की चार्ज वाला हर हफ्ते भी अफोर्ड नहीं कर पाता था। कुछ दिनों तक सारा पॉकेट मनी इसी मुए इन्टरनेट और ऑर्कुट के हवाले रहा।
लेकिन कुछ दिनों बाद एक नयी रोशनी बनके आया था- सी साईबर कैफे।

जी हां, सी साईबर कैफे। डेरा से यही कोई दो किलोमीटर दूर। जहां सुबह 8 से 10 के बीच सिर्फ पांच रुपये प्रति घंटा की दर से नेट सर्फ कर सकते थे। फोटो स्कैन के भी सिर्फ 5 रुपये। अलबम से फोटो निकाल-निकाल, स्कैन करा-करा अपलोड करता था ऑर्कुट पर।

फिर क्या था...हफ्ते में करीब दो या कई बार तीन-तीन दिन सोकर उठने के बाद नियम बन गया- साईकिल उठा सी-साईबर कैफे। याद आता है कई बार ऐसा भी हुआ कि सुबह आठ बजे से पहले ही वहां पहुंचा हुआ हूं। कैफे अभी खुली नहीं है। मैं बाहर में बैठा हूं..ईयरफोन पर गाना सुन रहा हूं- दुकान वाला आया तो आँख मलते हुए हैरान और हंसी का मिक्सर बना मेरी तरफ फेंक दे रहा है।
इसी जमाने में ब्लॉग पर पहला अकाउंट भी खुला, जीमेल भी हुआ। और फोटो डालने का चस्का भी लगा।

फोटो ऐसे-वैसे नहीं। दोस्त यार बताते कि ऑर्कुट पर अच्छी तस्वीर जानी चाहिए। लेकिन अच्छी तस्वीर के लिए अच्छे कपड़े, जूते-चश्मे सबकुछ अच्छा चाहिए। वो तो है ही नहीं। कैमरा वाला मोबाईल भी नहीं है। कोई बात नहीं- इस बार सहारा दोस्तों की तरफ से आया था।

ये तस्वीरें जो अभी शेयर कर रहा हूं- शायद सबसे पहली तस्वीरें हैं जिसे इन्टरनेट पर साझा किया था। पूरी तैयारी के साथ। दोस्त के घर पहुंचा तो था अपने उसी ढ़ीले-ढाले पैन्ट और टी-शर्ट को डाले। लेकिन वहां दोस्तों का चश्मा, हाफ बंडी, जूता, शर्ट सबकुछ पहले से मौजूद था। एक ही दिन में तीन-चार सेट कपड़े और पोज बदल-बदल कर उस दोस्त ने नोकिया, एन-70 से ये तस्वीरें उतारी थी। 
हां, अफसोस बस इस बात का है कि दोस्तों के लाख कहने के बावजूद उस दिन मैंने उनकी जिंस नहीं पहनी थी। आज नीचे की तस्वीरों में ढीले-ढाले पैंट के उपर चुस्त-दुरुस्त शर्ट और पैरों में स्पोर्ट्स शूज थोड़े उधारी टाइप लग ही रहे हैं।
बांकि नदी में काफी पानी बह चुका है।





बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...