Thursday, January 14, 2016

दिल्ली की एक शाम जनवरी में

साउथ दिल्ली में एक कैफे। कैफे में बैठे लोग। एक-दूसरे को चुमते एक जोड़ा। एक-दूसरे से बराबार की दूरी बनाये एक और जोड़ा। कुछ कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियों का झुंड। चार लोगों के बैठने के टेबल को अकेले घेर पर बैठा मैं। कैफे में सर्व कर रहा लड़का बेहद खूबसूरत और जहीन। यही कोई 21-22 साल का। लगता है पार्ट टाइम पर लगा है।
मुझे नहीं पता इस तरह के कैफे में क्या ऑर्डर करना चाहिए, कैसे सलीके से बीहेव किया जाना चाहिए। वैसे मुझे कुछ भी तो नहीं पता है। कैसे जीना चाहिए, कैसे अवसाद और अकेलेपन से बचा जाना चाहिए, कैसे लिखा जाना चाहिए, कैसे पढ़ा जाना चाहिए, चाय की कौन सी वेरायटी पी जानी चाहिए, कैसे सुसाइड की जानी चाहिए। मरने का कौन सा रास्ता सबसे माकूल हो- नहीं पता।
पुराने दोस्तों को बचाने की तरकीब नहीं पता। नये लोगों से बतियाने की तरकीब नहीं पता।
दफ्तरी चालाकी नहीं पता। प्रेम करना नहीं पता। नफ़रत करना नहीं पता। अकेले रहते हुए खुश रहना नहीं पता। भीड़ में मुस्कुराना नहीं पता।
मानो जीवन ही गलत पते पर चल रहा हो। कल किसी दोस्त ने पूछा, आगे क्या करने का ईरादा है।
मैंने तपाक जवाब दिया, सुसाइड
वो सोच रहा होगा स्साला पगला गया। या स्साला बन रहा है।
लेकिन मुझे भी नहीं पता कैसे मेरे मुंह से अचानक निकल गया- सुसाइड।
स्वदेश दीपक की किताब पढ़ रहा हूं। पागल होने के दिनों को लिखा है। शायद इसलिए भी लग रहा हो कि मैं पगला गया हूं। अक्सर ऐसा होता है, हम किसी किताब और कहानी में इतने खो जाते हैं कि उसके पात्रों की जीने लगते हैं। लो जी फिर आ गया- किताब कैसे पढ़े नहीं पता।

लिखने का मोह न के बराबर। छपने-छपाने का मोह खत्म। भाषा खत्म। शब्द खत्म। नौकरी चकाचक। दुनियादारी चकाचक। खुद खत्म।

बड़े अच्छे-अच्छे लोगों का भ्रम खत्म। मोह नहीं। जीवन गढ़मढ़। ढमगढ़।
अंदर का फर्जीपन इतना बड़ा हो गया है कि आसपास हर कुछ फेक सा लगने लगा है। और नाउम्मीदी इतनी है कि लगता है अब सुसाइडल नोट्स भी नहीं लिखी जायेगी मुझसे।
लोगों से मिलना-जुलना न के बराबर। थोड़ी-बहुत पढ़ाई की स्पीड बढ़ी है।
दिल्ली...फेसबुक..आसपास का जीवन..लोग सब मिलकर मानो गैवियार्ड बन गए हैं..एक कब्र।
अहा। जीवन के बेहतरीन दिनों में भी मैं उदास हूँ। जनवरी की सर्दी है। बसंत की दस्तक है। अबतक की सबसे बड़ी यात्रा की तैयारी है। फिर भी दुखी हूं..मेरा कुछ नहीं हो सकता।
कुछ लोग दुखी होने के लिये ही बने हैं..नौकरी..प्रेम..दोस्ती के बावजूद वो दुखी ही रहेंगे। मैं दुखी ही रहूंगा।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...