Wednesday, September 27, 2023

भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने.

इधर-उधर की बातें. बातें बीतती जाती बातें. समय. लोग. जगह. स्नेह. एहसास. बस नहीं बदलता तो भीतर कहीं धँसा एक मन. मन जो बैचेनियों को लिये फिरता है.

कितना सुकून है इन दिनों. उपर उपर. सेहत खराब होते होने के बावजूद. भीतर धँसा मन इतना भागता क्यों है.

पता नहीं किस सवाल की तलाश में उत्तरों को खोजता रहता है. एक उपर का मन. जो हर रोज की जिन्दगी जीता है या जीने की कोशिश करता है. बिल्कुल सामान्य होने की कोशिश में. दिखने की कोशिश में. पूरी कोशिश किये रहता है. 

बहोत मजबूती से खुद को संभालना. सहेजना मुश्किल है न. कभी कभी सोचता हूं. किसको खोज रहा हूं. क्या सच में कोई सवाल, या कोई लोग. या कोई जगह. या बस ऐसे ही. गुजर जाने की कोशिश को टालते चलते की कोशिश.

बहोत रोमांच में भी खुद को सामान्य होते देखने कितना गिल्ट भरता है. नहीं गिल्ट नहीं. शायद. खुद को देख सकना. खुद के साथ रह सकना.

एक उम्र के बाद

चाहतें 

सिमटी होती हैं

छोटी-छोटी चीजों में

किसी रात एक अच्छी नींद

किसी सुबह गुम गए दोस्त के साथ

एक चाय

किसी दुपहर एक पसंद की जगह पर चुपचाप बैठना

किसी शाम शोर का न होना.

या इनमें से कुछ भी नहीं.


Thursday, September 16, 2021

इतिहास मुड़ मुड़ कर चला आता है

 हमारी आधी जिन्दगी देजावू जैसी ही लगती है. हर रोज उठकर लगता है बीता हुआ कल जी रहे हैं. बीता हुआ कल फिर वापिस चला आता है. कल जो आज को डर में बदल दे.

बहुत पहले जो बीत गया, किसी और के साथ जो बीत गया, वो फिर किसी नये के साथ कैसे हो सकता है?

फिर से पुराना ही किस्सा दोहराया जाता है.

क्या बीत गये से कुछ सीखा जा सकता है

कि जो अब पलट कर आय़े इतिहास को थोड़ा-थोड़ा उस सीख से ठीक रखा जा सकता है?



Friday, May 14, 2021

बाबु जी का जन्मदिन




आज बाबु जी का जन्मदिन है. मैंने उनको सिर्फ तस्वीरों में देखा है. वो भी गिनती के कुछ तस्वीर. उनके साथ की मेरी कोई तस्वीर नहीं. न ही उनकी कोई याद.

उनके बारे में जितना जाना है वो सब सिर्फ किस्सों में. उनके संघर्ष को, उनके आंदोलन को, उनकी आवाम के हक में उठी आवाजों को. सब कहानियों में है. कई बार यकीन नही होता कि मेरे खुद के पिता ऐसे थे. इतने साहसी. सिर्फ उन्नीस साल की उम्र में एक कम्यूनिस्ट कार्यकर्ता बन गए, जमीन बंटवारे की लड़ाई लड़ी, घर-मकान, खेत-खलिहान में लाल झंडा लहराया.

जानते हुए भी कि एक दिन जान चली जायेगी, एक ईंच पीछे नहीं हटे. और एक दिन सिर्फ 31 की उम्र में शहीद हुए. आज भी उनके कॉमरेड्स हर साल उनके शहीद दिवस पर रैली निकालते हैं, उनको याद करने के लिये एकजुट होते हैं. मैंने अपने पिता को उन्ही रैलियों और सभाओं में दिये गए भाषणों से जाना. इसलिये बहुत सालों तक अविश्वास में रहा. और शायद इसलिए हमेशा उनके बारे में बोलने-लिखने औऱ बताने से बचता रहा. उनके बारे में कहे गए किस्सों से भी भागता रहा. सालों साल यही सिलसिला चला. मैं हमेशा खुद की तुलना अपने पिता से करता रहा. उनके साहस की, उनके जुझारुपन की. कुछ भी तो नहीं है मुझमें.


मेरी माँ को लगता है कई बार कि मैं अपने पिता को याद नहीं करता. लेकिन सच बात तो है कि मेरे पास याद ही नहीं. बहुत सालों तक मैंने उनसे सच में अपने पिता के बारे में बात नहीं की, हमेशा लगता रहा कि उनको दुख होगा, बीत चुके के बारे में बात करने से. 

लेकिन अब मैं सुनना चाहता हूं उनके बारे में. उनके बारे में बताना चाहता हूं. उनको ऑउन करना चाहता हूं. क्या पता शायद ऐसा करके मैं भी अपने पिता की तरह बन पाऊं. उनकी तरह हिम्मत और प्यार कर सकने की ललक जगी है.

जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक कॉमरेड

लाल सलाम. आपके सपनो को मंजिल तक पहुंचायेंगे.

Friday, January 29, 2021

लाल कमरे में बंद

उस कमरे में लाल रौशनी थी. पूरा कमरा ही लाल था. इतना लाल की चेहरे का रंग भी लाल दिखने लगा. 


वो उस कमरे के एक लाल कोने में बैठी थी. कमरे के ऊपर छत नहीं थी.


छत के ऊपर का रंग काले और लाल रंग का मिक्स था.

आसपास सारे घर टूटे पड़े थे, पूरा शहर टूटा पड़ा था, लोग टूटे पड़े थे, लोगों के टूटने से पहले विचारों का टूटना हुआ था, विचारो के टूटने से पहले संवेदनाएँ बिखरी थीं. संवेदनाओं ने पानी को खत्म किया, पानी ने नदियों को, पहाड़ों को और जंगलों को. नदी, पहाड़, जंगल के लिये जरुरी था पानी का बचे रहना.

फिर पूरा देश ही बिखर गया. जैसे कोई बड़ा युद्ध हुआ हो. बस वो कमरा बचा रह गया था, 

कमरा नहीं बस उसकी दिवारें, लाल दिवारें, उनके बीच लाल रंग और लाल कोना. जहां वो बैठी थी. अपने घुटनों को पेट में घुसाये.

आँखों को घुटनों में घुसाये. सारे बिखराव को आँख मीच कर खत्म कर देने की कोशिशों में.

तभी उसे दूर नदी की आवाज सुनायी पड़ी. उससे भी दूर सरहद के पार एक सूखा हुआ पेड़ जिसमें एक पत्ता लटक रहा था.

पत्ते का रंग लाल था.

जो अभी भी टूटा नहीं था.

उसी लाल रंग से कमरे तक लाल रौशनी आ रही थी. जहां वो अब भी घुटनों में मुंह घुसाये बैठी थी.

Tuesday, August 18, 2020

हमें एवरेज होने से डर क्यों लगता है?

आजकल हर सुबह एक उदास ख्याल के साथ जगता हूं। एकदिन ख्याल आया कि मैं अपने घर पर हूं। इस कमरे, इस शहर से बहोत दूर।

फिर एकदिन लगा, मैं लिखना भूल गया हूं। अब मैं लिखना चाहता भी नहीं। शायद ऐसे ही हम अपने प्रेम को जाने देते हैं। जिन जिन चीजों से एक वक्त में हमें प्रेम रहा, उनके जाने को स्वीकार करने में लंबा वक्त लगता है।

शायद।

मैंने 'शायद' शब्द का खूब इस्तेमाल किया है अबतक। लेकिन वो अब बेतुका बचाव भर लगता है बस।

हां तो आज मैं एक दूसरे ही ख्याल के साथ जगा। खुद के औसत होने को हम क्यों नहीं स्वीकार कर पाते। हम क्यों नहीं स्वीकार पाते कि परफेक्ट होना ही आपका होना नहीं है। हम सब और कम से कम हममें से ज्यादातर औसत, मीडियोकर हैं और यही सामान्य बात है।

फिर मीडियोकर होने को लेकर इतनी घृणा क्यों?

क्यों हर काम में हमें परफेक्ट होने की कोशिश करते रहना है?

बीच बीच में रहकर भी जिन्दगी जीने में कोई हर्ज नहीं।

बहुत रोमेंटिसाइज्ड लाइफ से कहीं बेहतर है एक सामान्य जिन्दगी जीना, उसको सामान्य, सुंदर और सीमित बनाने की कोशिश करते रहना।

मुझे गुस्सा क्यों आ रहा है? यह सब लिखते हुए, किसपर ?

खुद के बीते ख्यालों पर। शायद.


Sunday, May 3, 2020

किसी रोज के बारे में




वो किसी एक जगह क्यों नहीं टिक पाता है? कोई एक बिंदू जहां वो अटक जाये तो कितना अच्छा हो। सुकून हो। लेकिन उस एक बिंदू पर पहुंच कर थोड़ी देर सुस्ता भर पाता है और फिर वहां बेचैनी।

फिर किसी और बिंदू की तलाश। हर तरफ कुछ नया करने की ललक। जो कर रहा हो उससे जल्दी ही असंतुष्टि।





लेकिन क्या ये असंतुष्टि उसके अकेले का है। उसका अपना है। या फिर दुनिया के डर ने पैदा किया है?

क्या यह सबकुछ ही। शर्मनाक चाहतों से नहीं जुड़ा। या कि दमित कुंठाओं से। या कि ऐसी स्मृतियों से जिसका सिरा न पकड़ में आता हो?




वो एकदिन उठकर चुपचाप चला गया। बुदबुदाते हुए अपने ही भीतर। जब लौटा तो उसके हाथों में फूलों की टहनियां थी, और ऊंगलियों में कांटे चुभ रहे थे।


Sunday, March 15, 2020

माँओ के बारे में

मुझे लगने लगा है कि हम माँओं के बारे में कितना कम जानते हैं। उनके बारे में कितना कम लिखा गया है। मां और बेटे या फिर बेटी के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश नहीं की गयी है।

या तो माँ बहुत महान होगी, या फिर बेटा विलेन। फिल्मों से लेकर कहानी तक यही नैरेटिव बिखरा पड़ा है।

क्या ऐसा नहीं होता कि माएँ भी हद तक इरेटेटिंग हो सकती हैं? कि माएँ अपने बारे में अपनी जिन्दगी के बारे में भी हद दर्जे तक स्वार्थी हो सकती हैं।

वो। उनका स्पेस। उनकी जिन्दगी। उनका प्रेम। उनका लोगों से रिश्ता। सबकुछ को अच्छा-अच्छा या महानता के चश्मे से ही देखने का प्रेशर क्यों?

ये त्याग, ये अनकंडिशनल लव क्या हमने दुनिया की सारी माँओ पर थोप नहीं दिया है?

एक ऐसी जंजीर जिसमें वो जिकड़ी रहती हैं। अपने सपनों को कभी जाहिर नहीं करती, अपनी चाहतों पर ताला डाल कर रखती हैं और फिर उन चाहतों की बजाय 'बच्चों की चाहतें' ही उनकी चाहत बन जाती है।

और फिर कई बार ये भी तो होता है कि माँ की चाहतों में बच्चे बंधने जैसा महसूस करने लगते हैं।

कई बार ये भी तो होता है कि हम अपने लिये चाहे गए इच्छाओं में बंद सा महसूस करते हैं.


न हमारी माँओ के लिये अच्छा, न हमारे लिये। फिर ये महानता किसके हक में है?

क्यों महानता की जगह सहजता नहीं होना चाहिए..

माँ के अपने खुद के लिये सपने, चाहतें, सुख उनके बच्चों से अलग हों...

बच्चों की चाहतें, माँओ से अलग रहे.

कोई विलेन न हो, कोई भगवान न हो.

इंसानी फितरत से भरा एक जिन्दा रिश्ता रहे।

क्या ये हो सकना इतना मुश्किल है?


भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...