Thursday, May 29, 2014

घर को मनीऑर्डर

लगता है इस हफ्ते भी घर को पैसे नहीं भेजा पाउंगा। दो दिन बचे हैं और काम इत्ता। बिजी। पिछले दो महीने से घर पैसे नहीं भेज पा रहा। समझता हूं। घर इंतजार में होगा, माँ भी। हर महीने पैसे अकाउंट में भेजने की कोशिश करता हूं लेकिन इस बार काम थोड़ा ज्यादा है इसलिए।

याद है, जबतक कॉलेज में रहा-घर से हर महीने पांच तारीख तक पैसे अकाउंट में आते रहे। अगर कभी देर हो जाय तो कैसा फील होता था न। मकान किराया, अखबार बिल, किराना वाले का उधार और भी बहुत कुछ। जो हर महीने के एक तय तारीख को चुकाना जरुरी होता था।

लेकिन जब खुद की बारी आई है तो निश्चिंत पड़े हैं। काम का बहाना है, जहां रहता हूं वहां एक ही एसबीआई का ब्रांच है। भीड़ इतनी कि पूछो मत। इंटरनेट बैंकिंग अभी तक मेरे गांव वाले ब्रांच तक नहीं पहुंच पायी है।

मनीऑर्डर की सुविधा होगी शायद। कल सिंगरौली के एक गांव में रहूंगा तो पोस्ट ऑफिस जाकर एक बार पता ही कर लूंगा। मनीऑर्डर सेफ रहेगा ये कहना मुश्किल है। बचपन में कितनी बार अपने गांव के डाकिये को मार खाते, लोगों को उससे झगड़ा करते देखा है- शहरों से, नौकरी से लोग पैसा भेजते और वो उन पैसों की दारु पी जाता। बाद में बतौर कर्ज चुकाता रहता।

लेकिन मनीऑर्डर की खुशी। आह। जब भी घर में मनीऑर्डर आता पूरा घर खुशी के झूले पर। दिनभर डोलता रहता। जब मौसी के यहां कश्मीर के बोर्डर पर तैनात मौसा जी मनीऑर्डर भेजते थे। उनकी माँ कितनी खुश होती थी, डाकिये को टिप दी जाती, शाम को बाजार से मिठायी लाकर बांटी जाती। महीनों इंतजार होता। ज्यादा देर होने पर चिट्ठी लिखी जाती- बेटा, तबीयत खराब है, बहु को बच्चा होने वाला है, चापाकल बनवाना है, खेत में पानी पटाने का मौसम आ गया है, अबकी सोच रहे हैं बारिश में खप्परा ठीक करवा लें, होली में न सही छठ में तो सबके लिए साड़ी लेना ही होगा न। तो जितनी जल्दी हो सके पैसा मनीऑर्डर कर दो।

उधर से बेटे की चिट्ठी आती- इस बार मनीऑर्डर भेजने में देरी हो रही है। सरकार पैसा नहीं दे रही, छुट्टी का पैसा ज्यादा काट लिया है, इस महीने बिमार पड़ गए- डॉक्टर को दिखाना पड़ गया। जल्द ही पैसे भेजेंगे। छठ तक कोशिश करेंगे खुद आने की। तबतक सकुशल रहिये।

माँ परेशान होती। गाँव के साहुकारों से सैकड़ा पर ब्याज सहित कुछ पैसे उधार लिये जाते। घर के काम निपटाये जाते और मनीऑर्डर का इंतजार किया जाता।

एक दिन डाकिया आता। अंगूठा लगवा के मनीऑर्डर पकड़वा जाता। फिर सारे उधार चुकते किये जाते। घर के बाकी बचे काम पूरे किये जाते और दो-तीन दिन रुककर बेटे को मनीऑर्डर मिलने की सूचना भेजी जाती।

मेरा घर उतना खुशनसीब रहा नहीं कि कोई मनीऑर्डर भेजे। मेरे घर में भले मनीऑर्डर नहीं पहुंचा हो लेकिन वो आसपास रहने वालों के मनीऑर्डर का इंतजार और मिलने की खुशी में सहभागी रहा है। स्वाभाविक ही है मेरे घर को भी तो कभी लालसा हुई ही होगी न- काश, मेरे घर भी आता मनीऑर्डर।

हालांकि अब शायद ही आता हो मनीऑर्डर। तकनीक और बैंकिग की सुविधा ने उस लंबे इंतजार के बाद मिलने वाली खुशी को गायब कर दिया है। अच्छा है। अब जिन्दगी आसान है।

लेकिन फिर भी जाने क्यों मन हो रहा है - एक मनीऑर्डर घर भेजने का। शायद इसी बहाने मेरा घर भी मनीऑर्डर की खुशी को अपनी यादों में सहेज सके। शायद।



हनुमान बनने के समय में

हो सकता है आप इसे कहानी समझें, कोई इसे संस्मरण का नाम देने के लिए भी आजाद है लेकिन खुद इसे लिखने वाले ने इसे कमेंट्री का नाम दिया है। कमेंट्री समाज पर भी, राजनीति पर भी और हो सकता है इन सबसे बढ़कर हमारी मानवीय संवेदना पर। फेसबुक स्टेट्स के दौर में कुछ इस तरह का भी पढ़ा और लिखा जाना जरुरी है.....लिखा विनय सुल्तान ने है


घर से दूर दिल्ली में मेरे जैसे बेरोजगार युवक के पास शाम में करने के लिए कुछ ख़ास होता नहीं हैं। फिल्म सिटी के हर दफ्तर में में सीवी के साथ चक्कर काटने के बाद अक्सर शाम को मैं ऐसे किसी मेट्रो स्टेशन पर उतर जाता हूँ जहां पर भीड़-भाड़ हो।  मेरी बेरोजगारी ने मुझे लाजपत नगर, चांदनी चौक, चावड़ी बाजार, पहाड़ गंज सहित दिल्ली के तमाम बाजारों की सैर करवा दी। 

 इन सब में कनाट प्लेस मेरी पसंदीदा जगह है. यह कोई कहानी नहीं है और ना ही कोई संस्मरण. यह एक तरह की लिखित कमेंट्री है. जो दोस्त एक बढ़िया क्लाइमेक्स के इन्तेजार में हैं, उनके हाथ मायूसी लगने वाली है।

 तो इस लम्बी भूमिका के बाद घटना की तरफ बढ़ा जाए. शनिवार की शाम थी. मैं नोएडा के एक दफ्तर से मायूस लौट रहा था. मायूसी अपने उफान पर थी इस लिए वक़्त की हत्या करने के लिए(टाइम किलिंग) मैंने राजीव चौक का रुख किया. पिंड बलूची होते हुए मैं हनुमान मंदिर पहुंचा. पिंड बलूची मेरे लिए एक रहस्य है. फेंटेसी के भीतर की फेंटेसी. पता नहीं अन्दर से कैसा है पर जब भी ये नाम सुनता हूँ तो लाल कुरते और जलेबी मूंछो वाला दरबान सामने आ जाता है. हनुमान में मेरी कोई श्रद्धा ना होने के बावजूद मैं अक्सर सीपी के हनुमान मंदिर की तरफ बढ़ जाता हूँ. एक दोस्त ने गंगा ढाबे पर समोसा खाते हुए कहा था कि भारतीय बहुत होशियार होते हैं. आलू से पेट भर लेते हैं. इस उधार की होशियारी से उपजी चेतना और खाली पेट को भरने के लिए हनुमान मंदिर के बाहर लगी सब्जी कचौड़ी की दूकान सबसे मुफ़ीद जगह थी. 

मैं एक प्लेट सब्जी कचौड़ी खाने के बाद वहीँ किनारे बैठ जाता हूँ. ऊपर की जेब में पड़ी मुरझाई हुई सिगरेट निकाल कर उसे सुलगा लेता हूँ. शाम का वक़्त था. दुसरे पहर में बारिश का अहसास देने के नाम पर हुई बूंदा-बांदी के बाद हवाएं निर्मल वर्मा के उपन्यासों जैसी चल रही थी. एक बन्दर परिवार पीपल के पेड़ पर बैठा था. बंदरों के बच्चे खेल रहे थे. मुझे शक है कि बंदरों को पकड़ा-पकड़ी के अलावा कोई खेल शायद आता हो. मैंने अक्सर बन्दर के बच्चो को बिना वजह एक-दुसरे के पीछे भागते देखा है. खेल-खेल में एक बन्दर के बच्चे ने अपनी औकात से बढ़ कर छलांग लगा दी. उसकी गलती का अहसास उससे पहले उसकी मां को हो गया. उसके हाथ से टहनी छिटकने से पहले उसकी बांह उसकी मां के हाथ में थी. 

 रिवोली के ठीक सामने एक चार साला लड़का हनुमान बना खड़ा था. उसका परिवार ठीक उसके पीछे बैठा था. लोग बाल हनुमान के सामने निकल रहे थे. कुछ उसके हाथ में सिक्के थमा रहे थे. उसकी एक बहन थोड़ी दूर पर गुब्बारे बेच रही थी. इसी बीच एक सरदार जी अपनी महिला साथी के साथ रिवोली में सिनेमा देखने पहुंचे. सरदार जी का आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण करने के लिए हम उदय प्रकाश से कुछ समय के लिए फैंटेसी उधार ले लेते हैं. सरदार जी दिल्ली के किसी पॉश इलाके के रहने वाले थे. जो महिला उनके साथ थी वो उनके शो रूम में काम करने वाली मुलाजिम हो सकती है. ये महज खालिस कल्पना हो सकती है. अगर यह झूठ साबित होती है तो पुलिसिया दस्तावेज का शब्द 'प्रथम दृष्टया' मेरे बचाव का सबसे बढ़ा हथियार है. 

तो हुआ यों कि सरदार जी अपनी महिला मित्र के सामने रुआब गांठने की गरज से पास की गुमटी से एक कोकाकोला की बोतल खरीद कर बाल हनुमान के हाथ में पकड़ा दिया. इस बीच वो अपनी मित्र से कुछ कह रहे थे जिसका लब्बोलुआब यह था कि भीख मांगने  वाले इस बाल हनुमान का बाप चोर और शराबी है. इस वजह से पैसा देने की जगह वो इसे कुछ खिला कर अपने पुण्य अकाउंट को मजबूत कर रहे हैं. लड़की सिर्फ गर्दन हिला रही थी. कोकाकोला की बोतल को खोल कर सरदार ने बाल हनुमान के मुंह में वो बोतल लगभग ठूंस दी. हनुमान ने उसमे से दो अपनी औकात से बड़े दो घूँट खींचे और मुड़ कर अपने परिवार की तरफ देखने लगा.

 उसकी एक गर्भवती बहन, दादी और एक दो साल की बहन की नजर कोकाकोला की बोतल पर टिकी हुई थी. सरदार के रिवोली में घुसते ही लड़का सड़क के किनारे बैठे अपने परिवार की तरफ भागा. उसने कोकाकोला की बोतल अपनी दादी के हाथ में थमाई और फिर से अपनी जगह आ कर खड़ा हो गया. इसी बीच भीख मांग रही उसकी मां एक ऐसे आदमी के पीछे भागने लगी जिसके हाथ में केलों से भरा एक थैला था. आदमी उसकी मां को अपनी जबान से लतिया रहा था. 'गंदी औरत मैं तुझे एक केला नहीं दूंगा.' उसने आधा दर्जन बार इस बात को इतनी उंची आवाज में कहा कि वहां मौजूद हर आदमी को पता लग गया कि बाल हनुमान की मां एक गंदी औरत है. इसके बाद वो रिवोली के पास वाली गली की तरफ मुड़ गया. मां भी पीछे-पीछे भाग रही थी. 

इसके बाद गली से हल्ले की आवाज आने लगी. हनुमान ने गदा छोड़ कर गली की तरफ दौड़ लगा दी. मेरे दिमाग ने बन्दर के बच्चे और उसकी मां का दृश्य एक बार फिर ताजा हो गया.

Monday, May 26, 2014

एक आदमी बनना भूल गये हैं.......

एनडीटीवी पर चली एक खबर का स्क्रीन शॉट सोशल साइट पर खूब शेयर हो रहा है। उसमें मोदी के गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाने जाने की खबर है। बस गलती इतनी है कि गाँधी की जगह मोदी टाइप हो गया है और खबर बन गयी है- मोदी की समाधि पर नरेन्द्र मोदी।

इस स्क्रीन शॉट को लेकर लगातार लोग मीडिया को गरिया रहे हैं। कोई मोदी के मीडिया के साथ संबंधों की ले रहा है तो कोई चूंकि एनडीटीवी है तो उसकी ले रहा है।

और इन सारे बहसों, चुटकुलों, मजाकों के बीच सबसे ज्यादा जिस आदमी के पीड़ित होने का खतरा है वो है इस कार्यक्रम के टिकर पर बैठकर लिखने वाला आदमी। टिकर या फिर हेडलाइन जो भी हो। फेसबुक पर चले इस अभियान की आखरी सफलता क्या होगी- चैनल इसके लिए माफी मांग लेगा बस।

लेकिन सोचिये जरा, इस तरह की टाइपिंग मिस्टेक करने वाले उस टीवी कर्मचारी के साथ चैनल में बैठा बॉस क्या बिहेव कर रहा होगा, पूरे दफ्तर में आज उसके साथ लोग कैसा बिहेव कर रहे होंगे, हो सकता है एनडीटीवी में ज्यादा संवेदनशील लोग बैठे हों तो हल्की-फुल्की डांट लग जाये और बात रफा-दफा हो जाय लेकिन होने को यह भी हो सकता है कि उस कर्मचारी को नौकरी से ही निकाल दिया जाय।


लेकिन हमलोगों का क्या है?  हम लोग मोदी आलोचक हैं, हमलोग एक खास विचारधारा में लिपटे आदमी हैं, हम अपना काम कर रहे हैं, हमारी संवेदनशीलता लार्जर मास के साथ जुड़ी हुई है, उस एक अदने से टीवी कर्मचारी की नौकरी रहे या जाय हमें क्या मतलब।


वो जो बारह-चौदह घंटे बैठकर कभी टिकर, कभी ब्रेकिंग लिखता रहता है, हो सकता है अभी नया आया हो, पत्रकारिता के जज्बे से लैस। लेकिन उसे टीवी पर टिकर लिखने बैठा दिया गया हो, हो सकता है वो पांच साल से टीवी का टिकर ही लिख रहा हो, उसके भीतर का पत्रकार एक मशीन बन गया हो, उसके काम करने की परिस्थिति बद से बदतर हो, पत्रकारिता के पर्दे पर चमकता हुआ नाम बनने आया वो शख्स हो सकता है कि खुद को एक कम लागत में ज्यादा घंटे काम करने वाला स्किल मजदूर बनना स्वीकार कर लिया हो। लेकिन हमें क्या है। हम उसकी ये परिस्थितियां भला क्यों समझने लगे।


हमें तो आलोचना चाहिए, फेसबुक पर लाइक और ट्रेंड करवाने का ठेका चाहिए, हम तो वहीं करेंगे। मसाला है तो उसकी दुकानदारी जरुरी भी तो है न।

शायद उस टीवी कर्मचारी की ही गलती है, जिसने एक ऐसे काम को चुना जहां छोटी गलतियों के लिए भी स्पेस नहीं। कौन गलती नहीं करता, अपने हर रोज के दफ्तरी काम में, कौन है जो मिस्टर परफेक्टनिस्ट है अपने काम में। लेकिन उस टिकर टाइप करने वाले ने नहीं समझा कि उसका काम भले लोग नोटिस न करे, उसकी गलतियों को उछालने वाले लोग टीवी के बाहर अपना मोबाईल फोन लेकर बैठे हुए हैं।

मैं टीवी का आदमी नहीं हूं लेकिन फिर भी समझने की कोशिश कर रहा हूं। टीवी में लगातार दिन-रात मोदी-मोदी चलता रहता है। टीवी कर्मचारी रात-दिन मोदी-मोदी ही टाइप करता रहता है। पूरा टीवी मोदीमय हो गया है। ऐसे प्रेशर में काम करने वाले आदमी से गलती होना बेहद सामान्य सी बात है। जो टीवी के जानकार हैं समझते हैं इस प्रेशर को, इस गलती को। लेकिन अब काम ऐसा है कि छोटी सी गलती भी दिख जाती है। ठीक है कि हम उस गलती को पकड़ लिये, ठीक है कि हर चीज को अपलोड करने की हमारी आदत है, ठीक है कि इस अपलोड से हमको ज्यादा लाइक्स मिल जायेगा, ठीक है कि हमको मोदी और मीडिया की आलोचना करने का मौका मिल जायेगा।

 लेकिन इन सबके बीच क्या यह सच नहीं है कि हम सब असंवदनशील होते जा रहे लोग हैं जो विचारधारा और जनसरोकारी, बौद्धिक बनने की होड़ में एक आदमी बनना भूल गये हैं.......


Sunday, May 25, 2014

पटना पर कुछ फेसबुक स्टेट्स

अपना शहर तो वही है न। जहां एक जगह जाने के आपको दस रास्ते मालूम हो और आप कंफ्यूज हो कि किस डगर चलें। फिर उसी जगह जाने के बीच एक की जगह चार रास्तों को समेट कर पहुंचा जाय। सड़क पर देर रात बाइक चलाते हुए जोर-जोर से गाने का मन हो और बाइक की स्पीड 70-80-90 लेकिन अचानक से याद आए- ओह, गाड़ी का मीटर ही खराब है। फिर भी फिक्र नहीं- गिरे भी तो पचास लोग उठाने चले आयेंगे का विश्वास रहे।
महेन्द्रु- जहां हर रोज दस किलोमीटर का सफर तय करके दिल्ली का अखबार और पुराने मैगजीन लेने जाता था, अशोक राजपथ, गांधी मैदान, फ्रेजर रोड, मौर्या कॉम्पलेक्स होते हुए बोरिंग रोड और पॉलिटेक्निक होते हुए राजा बजार के पीछे से दीघा-कुर्जी निकलते वक्त लगे कि बाइक आप नहीं ये शहर ही चला रहा है।
पटना इस मायने में सच में अपना शहर ही तो है जो मेरे लंबे हो गए बालों के लिए फ्रिकमंद नजर आता है।



साल-दर-साल बदलता जा रहा है लेकिन पटना है कि जड़ है। ये शहर फैल रहा है, बदल नहीं रहा। हर बार होर्डिंग का साइज बढ़ जाता है, मकानों का उपरी तल्ला बढ़ता जाता है लेकिन शहर है कि वहीं का वहीं रहता है। न एक कदम आगे और न एक कदम पीछे।
शहर का मिजाज आज भी चाय दुकानों और लिट्टी चोखे के स्वाद में अटका-सा लगता है।
एक दम ईमानदार, गंवई और अपने तरह का अलग ही सिविक सेंस 'डेवलप' कर चुका शहर है पटना। बड़े-बड़े कॉलेज-यूनिवर्सिटि खुले तो हैं लेकिन अपने चारदिवारी में कैद ही रहते हैं-अजनबी या फिर अलग 'क्लास' का फील लिए।

शहर की जान तो PU और MU में ही अटकी रहती है। बड़े-बड़े प्रायवेट हॉस्पिटल जरुर चमकते दिखते हैं लेकिन PMCH आज भी आस्था का विषय है। इस शहर को नीतीश ने कितना बदला और कितना समय ने ये अभी तय होना बचा रह गया है.....
in sort I m in Patna 

गरमी में अपना देस बहुत याद आता है..........

लीची की तस्वीर गुगल से लेकर लगानी पड़े- वाकई बुरे दिन आ गए हैं


लीची मिल गयी। इस सीजन में पहली बार लीची का स्वाद चखा। यहां सिंगरौली में लीची। अपने देस से दूर बहुत दूर लीची का स्वाद। अचानक। पिछले कई दिनों से यहां के लोकल मार्केट में लीची खोजने का काम जारी था लेकिन यहां तो किसी को लीची के बारे में पता ही नहीं।

आज अचानक खाने के टेबल पर रखी पॉलिथिन में एक लीची दिख गयी- आखरी बची लीची। शायद इस साल की पहली और आखरी लीची। लीची का रस मुंह में और आँख में पानी। हम कमजोर लोग हैं जो हर चीज को सहेज कर, हर याद को संभाल कर रखने की कोशिश करते हैं।

अक्सर पास की चीज को हम महसूस नहीं कर पाते। नहीं तो कभी मैंने सोचा था कि एक दिन दूर देस में बैठकर इस लीची को याद करुंगा या फिर इस छोटी से लीची पर लिखूंगा।

एकाएक फ्लैशबैक में जा रहा हूं। लीची के स्वाद को याद कर रहा हूं। लीची से जुड़े अंतहीन किस्से याद आ रहे हैं। गरमी के दिनों में हम नानी गांव में होते थे। नानाजी के पास लीची का पेड़ हुआ करता था। हम सारे भाई-बहन दिन भर लीची के पेड़ पर बैठे मिला करते। अक्सर गांव के दूसरे बच्चे लीची चुराने आते। हम छिप कर औगरवाही (चौकीदारी) किया करते। कभी कोई पेड़ पर चढ़ने में सफल हो भी गया तो उसे चटाक से जमीन पर खींच कर लड़ जाते, हल्ला होता- चोर...चोर..वो बच्चे भागते और हम उनके पीछे। एक तरह से ये बच्चों के चोर-पुलिस खेल का थोड़ा-थोड़ा रियल वर्जन ही था।

तो हमारे नानाजी के रिश्तेदारों के यहां भी खूब लीची हुआ करती थी। उन दिनों हर तीसरे-चौथे दिन किसी न किसी बस से लीची का कार्टून बतौर बैना भेज दिया जाता था। आज नरहन से कल रोसड़ा से मामी के घर से। फिर हर दोपहर नाना-नानी, मामा और हम बच्चे बैठकर कार्टून खोलते- लीची निकाली जाती। बाजी लगायी जाती। मैंने पचास खाए, मैंने सौ। गिनती के साथ मार्किंग भी। नरहन वाले की लीची ज्यादा अच्छी है तो रोसड़ा वाली लीची इस बार थोड़ी कम मीठी है। लीची की बुराई को मायके की बुराई या फिर अपमान सा समझ लिया जाता। तभी तो रोसड़ा वाली मामी सफाई देती- इस बार बारिश नहीं हुई इसलिए मीठी कम है।

लीची के स्वाद से घर-गांव की अस्मिता जुड़ जाती।

नाना जी के यहां से भी लीची पेठाया (भेजा) जाता लेकिन कार्टून में कम ही- अक्सर पॉलिथिन में। उसी पॉलिथिन में जिसमें कभी मामी हाजीपुर से साड़ी खरीद कर लायी थी। एक तरह से शगुन या फिर औपचारिकता के लिए। नाना जी को ये सब रिवाज ज्यादा नहीं लुभाते थे शायद। उनकी चिंता थी कि हमारे नातिन-नाती, पोते-पोती भरपेट-भरमन खा ले फिर रिश्तेदारों को जाय।

नाना जी उन दिनों हमारे खाने-पीने को लेकर विशेष उत्साहित होते। लीची खाकर पानी नहीं पीना है, ब्रश कर लिये तो लीची क्यों नहीं खा रहे हो जैसे हजार नसीहतें घर के आंगन में गूंजा करती।

नानीगांव से जब हम लोग अपने घर लौटते तो बोरी भर लीची हुआ करती। आस-पड़ोस वाले को बांटते हुए बड़ा प्राउड फील होता- हमारे पास सैकड़ा के हिसाब से खरीदी गयी लीची नहीं है, बेहिसाब बोरी भरी लीची है- का प्राउड।

स्कूल खत्म हुए तो साथ में गर्मी की छुट्टी भी। फिर हमलोग पटना में रहने लगे डेरा लेकर। उस साल से आजतक जा नहीं पाये दुबारा लीची खाने नानी गांव। हर साल नानी बुलाती रही लेकिन कॉलेज और करियर ने गांव-घर के मोह को तो छुड़ाया ही साथ में लीची को भी हमसे दूर ले गया। लेकिन नाना जी कहां मानने वाले। उस उम्र में भी लीचियों का कार्टून लेकर पहुंच जाते पटना वाले डेरा पर। खुद न आ सके तो किसी और के हाथ ही थमा दिया एक कार्टून लीची।


जबतक पटना में रहा लीची टाइम से मिलती रही। जिस समय हमारे डेरा में लीची आती दोस्त यार का मजमा लगा रहता। कॉलेज से निकलकर सारे दोस्त-यार लीची खाने रुम पर आते। कभी-कभी तो पूरा कार्टून खत्म करके ही हमलोग उठते।

लेकिन पटना छूटने के बाद सब खत्म हो गया। बिहार के गांवों से निकलने वाले लड़के पटना तक जाने-अनजाने अपनी मिट्टी, अपने गांव, गांव के दूध-दही, आम-लीची, सब्जी, आटा, चावल, गेंहू, ककरी, तरबूजा, अस्पताल के बहाने पटना आए मामा-मामी, अपने बेटे का बोर्ड में नंबर बढ़वाने के लिए पैरवी करवाने आए चच्चा-फूफा इन सबसे जुड़ा रहता है लेकिन पटना से निकलने वाली ट्रेन पर जब वो बैठता है तो सिर्फ पटना ही नहीं छूटता उसके साथ-साथ गांव-घर के ये सौगात भी छूटते चले जाते हैं।

इसलिए दिल्ली बिल्कुल पराई सी लगती है। और यहां सिंगरौली मध्यप्रदेश में जब मैं अकेला हूं तो ये सब चीजें ज्यादा शिद्दत से याद आती हैं। याद आती है लीची और आम। आम का टिकोला। हर रात बारिश और तेज आँधी के बाद सुबह-सुबह बोरी लेकर आम के बगीचे में जाना। टिकोला चुनकर लाना।  याद आता है नानी का सिलोट में पीसकर टिकोला की चटनी बनाना। याद आता है आम के बगीचे में ही दोस्तों के साथ नमक में टिकोला को सटा-सटा कर खाना।

याद आता है दोपहर बारह बजे आम के पेड़ पर आने वाले भूत का डर। याद आती है वो लड़की जो हर दोपहर हमारे साथ आम के बगीचे में बैठकर शादी करने और आने वाले कल की चिंता में पांच-छह टिकोले खा जाती थी। याद आता है गरमी के दिनों में आम के बगीचे में ही खाट लगाकर एक टॉर्च के सहारे रात बिताना, याद आता है घर वालों से छिपकर पोखरी (तालाब) में नंगा नहाना।

गरमी में अपना देस बहुत याद आता है..........

Saturday, May 17, 2014

..... और सड़कछाप दोस्ती !!!

पटना में तकरीबन एक साल बाद





बहुत दूर जाकर घर लौट आने जैसा लगता है उनसे मिलना। या फिर सफर के बीच का स्टेशन जैसा, जहां दो-चार मिनट के लिए सुस्ताने को रुकते हैं हम। हम तीनों की जिन्दगी की अपनी-अपनी अलग-अलग प्रायवेट डायरी है। खूब सारी घटनाओं, ब्यौरों, लोगों से भरी हुई। जिसमें उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, प्यार-नफरत सबकुछ है। लेकिन हम इन प्रायवेट डायरियों के किसी एक खास हिस्से को अपनी गोपनियता बचाए रखते हुए एक-दूसरे से बांट भर लेते हैं बस।

हम दोनों की बहुत सी कहानी एक सी है
नेहा, रिमझिम से मेरी दोस्ती इन बांटे हुए हिस्सों से कहीं दूर का कुछ है। मिलने पर ढ़ेर सारी हँसी, एक-दूसरे की टांग खिंचाई, किसी सिनेमा हॉल में जाकर एकाध मूवी, एक बाइक पर ट्रिपल सवारी करते हुए शहर भ्रमण। कहने को बेहद आम, बेहद साधारण दोस्ती। हमारी दोस्ती में एक-दूसरे की निजी जिन्दगी में झांकने, एक-दूसरे के दुखों को बांटने का स्कोप बेहद कम है। है तो बस ढ़ेर-सा हँसी, थोड़ा मजाक, कुछ स्माईली ऑइकॉन :)   और सड़कछाप दोस्ती।

दरअसल ये दोस्ती लादी हुई मिली हमें। कैंपस में हम तीनों में कोई खास बातचीत नहीं थी। मुझे लगता रहा कि ये लोग विरोधी (राईटिस्ट-सेन्ट्रीक) खेमे के लोग हैं, जो मुझे एक निकम्मा, बिना स्कोप वाला बेवकूफ टाइप कुछ समझती होंगी (शायद इनके लिए मेरा एक्जिटनेंस ही न हो जैसे)

लेकिन जब हमें एक साथ एक शहर में पहली नौकरी के लिए पटना भेजा गया तो हम चारों (सरोज भी) ही एक-दूसरे का सहारा बने। मैं खुश था कि सरोज( कैंपस में मेरा बेस्ट फ्रेंड...जिसके छूटने का दुख हमेशा रहा) के साथ एक ही शहर में काम करने का मौका मिला। नहीं लगा था कि नेहा, रिमझिम के साथ प्रोफेशनल रिश्ते से आगे इमोश्नल-सा कुछ जुड़ाव होगा। नेहा हमेशा डेल्हाइट लगी तो रिमझिम के बारे में सोचता रहा कि शायद ये हमें बेवकूफ समझती होगी।

हम दोनों की एक भी कहानी एक सी नहीं है
लेकिन पहले असाइनमेंट तक आते-आते ऐसा हुआ कि हम तीनों ही एक ही असाइनमेंट पर एक साथ गए। वो शुरुआत भर था। उस सफर का जो पूरे एक साल तक चला, उस सफर का जिसमें एक साल बाद हम लोग भींगी आँखों के साथ अलग हुए, उस सफर का जिसमें हम लोगों ने खूब मैगी बनाये, खूब मस्ती की, कुछ फिल्में देखी, कुछ मन-मुटाव किया और अभी तक, आजतक एक साथ खड़े हैं।

पिछले दिनों पटना में था। नेहा भी थी। रिमझिम भी। हम तीनों थे। हमारे बीच के एक साल का गैप नहीं था। हम फिर से एक ही बाइक पर ट्रैफिक की धज्जी उड़ाते हुए सिनेमा हॉल की तरफ बढ़ रहे थे, हमतीनों दुकान में खरीदारी कर रहे थे, हम तीनों मौर्या लोक में जाकर गोलगप्पे खा रहे थे, हम तीनों ऑफिस के गॉसिप में बिजी थे।

हम तीनों की दोस्ती ऐसी ही है। बिना किसी को बहुत कुछ कहे एक-दूसरे को जान लेने की। एक-दूसरे के दुख में दुखी होने से ज्यादा एक-दूसरे के सुख में सुखी होने की। पर्सनली फील करता हूं कि मुझे इनकी जरुरत है, जहां मैं रोता नहीं, बस हँसाना चाहता हूं क्योंकि मालूम है-

मेरी हर बात पर इनको हँसी छूट जाती है  :) 

Friday, May 16, 2014

तु जिन्दा है तो जिन्दगी की जीत पर यकीन कर




कल जब मोदी के जीत की खबर चैनलों पर दहाड़ मार रही थी, हम महान संघर्ष समिति के एक बैठक में सुहिरा गांव में थे। एक दोस्त ने मोबाइल इंटरनेट पर देखकर बताया कि मोदी तीन सौ से ज्यादा सीटों पर लीड कर रहा है।

लीडिंग के इस खबर को सुनकर हरदयाल सिंह गोंड मेरे पास आकर धीरे से पूछता है- अब जंगल कट जाएगा न ?

हरदयाल एक आदिवासी है। यही कोई 22-24 साल का लड़का। वो पिछले तीन साल से अपने जंगल को बचाने के लिए एस्सार के प्रस्तावित कोयला खदान के खिलाफ आंदोलन कर रहा है। वो समझता है कि मोदी की जीत के उसके लिये क्या मायने हैं, वो जानता है कि एस्सार-अंबानी के मोदी के साथ क्या रिश्ते हैं।

इसलिए उसकी आवाज में निराशा है, बेउम्मीदपन है। मोदी की जीत हाशिये पर खड़े आदिवासियों-दलितों-मुस्लिमों के लिए अच्छा संदेश तो नहीं है। भले मोदी समर्थक दावा करें कि इन तबकों का भी उन्हें समर्थन मिला है।

आदिवासियों से उनका जंगल पहले भी छीना जाता रहा है लेकिन अब इसकी रफ्तार अपनी निर्ममता को छुएगी, जिस ब्राह्मणवादी आरएसएस की पॉलिटिक्स के सबसे बड़े नेता के बतौर मोदी उभरे हैं, वो दलितों को पीछे ले जाने वाली साबित हो सकती है। इन चुनावों में जिस तरह से समाज में धर्म के आधार पर धुव्रीकरण हुआ है वो अल्पसंख्यकों और अमन पसंद लोगों के लिए शुभ संकेत नहीं देता। एक दक्षिणपंथी, रुढ़िवादी समाज और सरकार में पिछड़ों-महिलाओं-अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्ग के लोगों के साथ किस तरह का बर्ताव किया जाता है ये हम पूरी दुनिया के फासिस्ट सरकारों के शासनकाल में देख चुके हैं।


हम सबके लिए ये आलोचनात्मक होने का समय है- खुद के लिए। कहां चुक हुई? कहां पीछे रह गए हम? गंगा-जमुना तहजीब वाले अपने इस देश को बचाने में क्या चुक हुई हमसे? क्या सच में हम अपने लिए एक नयी जनता के आने का इंतजार कर रहे हैं?

लेकिन इन सबके बावजूद एक उम्मीद है। उसी उम्मीद की वजह से मैं हरदयाल को उसके तीन सालों के संघर्ष को, मेहनत को, प्रतिबद्धता को याद दिलाता हूं।
उम्मीद इसलिए भी कि इस चुनाव में जिस तरह से फेसबुक-ट्विटर से लेकर समाजिक मंचों तक पर देश के अमनपसंद तबका ने मोदी विरोध के झंडे को थामा है वो सराहनीय है।

मोदी का जो लहर करोड़ों-अरबों खर्च करके दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पीआर एजेंसी एपको ने संभाल रखी थी, उसके खिलाफ सोशल मीडिया पर अपने खर्चे से लगातार आवाज बुलंद करके साथियों ने बताया है कि भले मौसम उदास हो, हम सब उदास मौसम के बारे में भी गीत गायेंगे।

आप करने को आलोचना कर सकते हैं, आप करने को फेसबुक पर गाइडलाइन जारी कर सकते हैं, आप हमारी आलोचना की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन उसे इग्नोर नहीं कर सकते। लगातार मोदी के खिलाफ, फासिस्ट ताकतो के खिलाफ आवाज उठाकर साथियों ने अपनी भूमिका अदा की है और आगे भी करते रहेंगे।

इस बीच चुनौती बढ़ी है। कल रात देर तक हम सभी साथी गीत गाते रहे-
तु जिन्दा है तो जिन्दगी की जीत पर यकीन कर
गर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
तु जिन्दा ......
ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुजर, गुजर गए हजार दिन...
तु जिन्दा है...

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...