Monday, August 25, 2014

सुधर जाओ।। कॉमरेड्स

अपने एक दोस्त से पिछले दिनों बहस हो रही थी। वही सुविधाओं पर, महंगे लाइफ स्टाईल वगैरह..वगैरह।
बात जो निकल के आयी वो यही कि अगर कोई पांचसितारा जीवन जीना चाहता है तो ये एकदम व्यक्तिगत पसंद है उसकी। इसमें कुछ भी सही या गलत खोजने का कोई मतलब नहीं है। शर्त बस इतनी जरुर हो कि सारी सुविधाएँ ईमानदारी से की गयी मेहनत से कमाया गया हो। बस।
नहीं तो अंबानियों और अदानियों जैसी सुविधाएँ इस देश को लूट कर ले रहे हैं उनका विरोध जरुरी भी है और स्वाभाविक भी।
लेकिन जहां व्यक्तिगत पसंद का मामला है वहां ये भी हो कि अगर कोई कम सुविधाओं वाली जिन्दगी जीने में ज्यादा आनंद महसूस कर रहा है तो उसे भी दिखावा कहकर खारिज नहीं कर देना चाहिए।
अगर मुझे किसी महंगे होटल में जाकर चार-पांच हजार लूटाना पसंद नहीं, एक्सपेंसिव कपड़े यूज करना भी पसंद नहीं तो ये बिल्कुल मेरी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला है।
किसी को जो खुशी होटल में जाकर मिलता है, अगर मुझे वही खुशी स्ट्रीट फुड में मिल जाये तो इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी तारीफ की जाय या फिर आलोचना।

दरअसल, हमें ब्लैक एंड व्हाईट देखने से बचते हुए अपनी जिन्दगी को, जीने के तरीके को खुद चुनने की आजादी मिले- यही आनंद है।

ऐसी बहसों से अक्सर अच्छी समझ के साथ बातें निकल कर आती हैं, नहीं तो मेरे बहुत सारे कॉमरेड दोस्त भी हैं जो जरुरी हवाई यात्राओं, कुछ महंगे होटलों में खाने, या फिर कभी कुछ ब्रांडेड कपड़े पहन लेने पर गैर-जनवादी का तमगा देने के लिए मचल उठते हैं। भले मौका मिलने पर सबसे पहली कतार में खड़े होते हैं, सारी सुविधाओं को जनता के हित में उपभोग करने के लिए 
मामला ब्लैक एंड व्हाईट नजरीये का ही है कॉमरेड्स। सुधर जाओ।।
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जिन्दा रहना जरुरी है कॉमरेड्स

एक दोस्त ने कल मैसेज किया। उसके कहने का जिस्ट यही था कि अगर आप दुनिया को बेहतर बनाने के सपने देखते हैं, अगर आप चीजों को ठीक करना चाहते हैं तो निश्चित तौर पर इसके लिए जीना होगा और खुलकर जीना होगा।
जबकि मैं अक्सर देखता हूं जो बेहतर दुनिया की चाहत रखते हैं वो धीरे-धीरे इस दुनिया और समाज से इतनेे कटे-कटे हो जाते हैं कि कई बार महसूस ही नहीं होता कि वो जिन्दा भी हैं या मर गए।

मतलब साफ है। अगर आप जिन्दा हैं तो बेहतरी के सपनों की तरफ बढ़ने के लिए कुछ करिये, ये नहीं कि बस दुनिया को कोसते हुए किसी अँधेरे बंद कमरे में खुद को कैद कर लीजिए।
कुछ बेहतर होने के लिए, कुछ सुंदर करने के लिए हमारा जीना जरुरी है, अपनी जिन्दगी से शिद्दत से मोहब्बत जरुरी है।
जिन्दा रहेंगे तभी तो निजाम बदलेंगे कॉमरेड्स।।

Friday, August 22, 2014

कुछ चेहरे बहुत कुछ कहते हैं

महान जंगल, सिंगरौली के एक गांव में, जो कोयले की खदान से विस्थापित होने वाला है



गांव के लोग कुछ रास्ता तलाश रहे हैं- संघर्ष, आंदोलन या फिर विस्थापन

संघर्ष और विस्थापन में से इन्होंने चुना है अपने लिये संघर्ष। आदिवासियों का संघर्ष।।

आदिवासियों का संघर्ष है अपने जंगल बचाने को, हमारी दुनिया भी


जीत या हार। जरुरी है संघर्ष परिणाम चाहे जो हो। उम्मीद और आंदोलन। आशाएँ



संघर्ष के लिए जरुरी है एकता। इसलिए आसपास के गांव वाले संगठित हो गए हैं। आवाज दो हम एक हैं।





अब गांव के लोग सवाल करना सीख गए हैं, सीख गए हैं शक की निगाह से निजाम को देखना





संघर्ष के सफर में ये कभी जीतते हैं, कभी हारते, लेकिन लड़ाई की खुशी और जज्बा ज्यों-का-त्यों बरकरार



उम्मीद की हँसी ज्यादा बड़ी है न। हार या जीत से कहीं ज्यादा। महान जंगल जिन्दाबाद




इसलिए हमने हँसना ठाना है। हमने लड़ना ठाना है। अपनी मुस्कुराहटों को हासिल करना ठाना है। जिन्दाबाद


पिक्स क्रेडिट - अविनाश कुमार चंचल

Tuesday, August 19, 2014

बड़ी बेटी

सबसे बड़ी बेटी थी और उसके ठीक बाद एक बेटा भी हो चुका था। इसलिए पैदा होते ही वो अपने बाप के लिए बोझ नहीं बनी थी।
बचपन के चार-पांच साल खूब लाड़-दुलार में बीता।
पिता गरीब थे लेकिन अपनी बड़ी बेटी को पढ़ाना चाहते थे। शायद यह लोभ भी था कि घर की बड़ी बेटी पढ़ लेगी तो उसके पीठ पीछे बेटा भी पढ़ने लगेगा। लेकिन उस जमाने में जब एक पैसे में चॉकलेट और एक रुपये में एक किलो चीनी-गेंहू खरीदी जा सके पढ़ाई के लिए पैसे जुटाना आसान न था।
बड़ी बेटी को हमेशा फ्राक के नीचे भाई वाला हाफ पेंट ही पहनने को मिला। दिवाली-दशहरा में भी, मेले-ठेले में भी- वही पुराना फ्रॉक। माँ का मायका थोड़ा ठीक था तो पढ़ने और पलने दोनों के लिए उसे भेज दिया गया- ननिहाल।
ननिहाल। मिथिलांचल का इलाका। सुखी-संपंन्न परिवार। मामा और मामी। नाना-नानी पहले ही मर चुके थे।
मामा बड़े प्यारे थे। पान खाते थे। पान तो मामी भी खाती थी लेकिन वो प्यारी नहीं थी। खूब सारा काम करवाती थी, खूब मारती थी, स्कूल नहीं जाने देती। घर में मछली बनता तो खाने नहीं देती। मेले-ठेले में लेकर नहीं जाती, घर में बंद कर देती। बुखार होने पर बंद अँधेरे कोठरी में छोड़ जाती।
लेकिन बड़ी बेटी जिद्दी थी। मानती ही न थी। चोरी-छिपे स्कूल जाती, ट्यूशन के पैसे न थे तो दोस्त से मांगकर नोट्स बनाती। वो हर रोज स्कूल जाना चाहती- शायद इसलिए भी कि लौटते हुए अपने सखी के घर पर चली जाती। मामी के डांट से, मार से थोड़े समय की राहत और भरपेट खाना दोनों मिल जाता।
मिथिलांचल में आम का बगीचा प्रसिद्ध है। मामा के पास भी था एक बगीचा। हर बारिश और आँधी के बाद आम गिरता। बड़ी बेटी को बोरा लेकर भेज दिया जाता वो आम बीछ कर लाती लेकिन उसे खाने को नहीं मिलता।
एक बार की बात है बड़ी बेटी को बुखार हुआ। वाइरल से भी ज्यादा तेज बुखार। मामी ने फिर अँधेरे कोठरी में बंद कर दिया। इस बार सहा न गया। वापस जाएगी तो पढ़ाई बीच में छूट जाएगा सोच बड़ी बेटी हिचकती रही और इधर उसका बुखार बढ़ता रहा।
एक दिन एक सखी आयी, देखा ये तो मर ही जाएगा। लौटी तो सीधे डाकखाने गयी। पोस्टकार्ड डाल दिया बड़ी बेटी के घर- अप्पन बेटी के लिवा लू, न त यहां मर जायत।
पिता ने पोस्टकार्ड पढ़ते ही गाड़ी पकड़ी। पहुंचे ससुराल अपने। जमीन-आसमान को एक कर दिया और अपनी बेटी को लिवा लाय घर। रुखी-सूखी खायेंगे लेकिन अपने घर पर ही जियेंगे और मरेंगे।
अब बड़ी बेटी अपने घर, अपने गांव, अपने माँ-पिता के पास थी। गांव में खाने का भी संकंट। बड़ी बेटी दूसरे के खेत में जाकर बथुआ तोड़ती, फिर छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। गांव में कोई हाईस्कूल नहीं था, तो प्रायवेट से जाकर बोर्ड का एग्जाम दे आयी अपने ननिहाल जाकर।
बड़ी बेटी ने खूब दुख झेले, खूब आँसू बहाए लेकिन चलती रही, रुकना उसके फितरत में था भी नहीं। फट्टे फॉर्क में ही जवानी आयी। उम्र सोलह साल। बाप को बेटी के शादी की चिंता। बड़ी बेटी के बाद दो और बेटी पीठ पीछे आ गयी थी। किसी तरह शादी के लिए एक रिश्ता आया।
लड़का जमींदार परिवार से। खूब कमाने वाला। खूब रुतबे वाला खानदान। इलाके भर में खानदान का रौब। लड़का इतना ईमानदार, इतना सीधा-सादा-सज्जन और ढ़ेर सारे आदर्शों वाला। किस्मत वाली है बड़ी बेटी- अक्सर गांव के लोग कहते।
खूब ढोल-बाजे के साथ बड़ी बेटी की शादी हुई। मोटरसाईकिल और कार उस जमाने में ऐसी गाड़ियों वाला पति। अहा। कितना सौभाग्यशाली है बड़ी बेटी। चलो दुख का अंत हुआ।
लेकिन बड़ी बेटी के संघर्षों का यह सिर्फ विराम था। अवसान बाकी था अभी। बड़ी बेटी के पति की कहानी फिर कभी। फिलहाल इतना परिचय कि वो कम्यूनिस्ट आंदोलन के बडे़ इलाके भर में मशहूर नेता हुए, उनके भाई भी। अपनी चालीसों बीघे जमीन पर मुसहरों को बसाकर शुरू किया भूमि आंदोलन।
बड़े-बड़े जमींदारों के जमीनों पर गरीबों का कब्जा होने लगा। लगा एक लाल सुबह आने को ही है। गांव के गांव, नये लड़के-बूढ़े-बच्चे सब सम्मोहित थे दोनों भाई से।
आंदोलन और पार्टी का काम बढ़ने लगा। इधर व्यव्साय भी। बडी बेटी अब खुद ही भरपेट नहीं खाती थी बल्कि गांव-गांव, पार्टी के कार्यकर्ता, गरीब, भूखा सबको बनाकर खिलाने लगी। अपने मायके से अलग ही दुनिया थी ये उसके लिए। उसे अच्छा लगने लगा। पति भी पढ़ने को प्रेरित करते और बडी बेटी ने बीए फर्स्ट ईयर में नाम भी लिखवा लिया। इस बीच तीन बच्चे भी हुए। सबकुछ सुखद। मायके की पूरी जिम्मेवारी भी बड़ी बेटी के पति ने उठा लिया। एक बेहतर जिन्दगी की तलाश पूरी होने को थी। बहुत सी ख्वाहिशे पूरी होने लगी थी और नये सपने बुनने लगी थी बड़ी बेटी।
लेकिन एक दिन फिर दुख ने बड़ी बेटी के उपर हमला किया। इसबार बेहद गहरा, ताजिन्दगी के लिए, लगा कभी न समाप्त होने वाला, अंतहीन निराशा और आँसूओं की धार वाला।
पति बीच मझधार में, सफर में कुछ कदम साथ चलने के तुरंत बाद साथ छोड़ चुके थे।
अब बड़ी बेटी बहुत बड़ी हो गयी थी। उसके जीवन का कागज एकदम कोरा और सेफद हो चुका था। सच में बड़ी बेटी बहुत बड़ी हो चुकी थी। तीन बच्चों की माँ, इक्कीस की उम्र और एक दम अकेले।। अंतहीन समय के लिए अकेले।
(लेकिन बड़ी बेटी की असली कहानी यहीं से शुरू होती है। एक खत्म हो चुके सफर के बाद की कहानी...संघर्षों, समाजों के खिलाफ खड़ी महिला की कहानी, जुनून और जज्बे की कहानी, अदम्य हिम्मत की कहानी। बड़ी बेटी की कहानी। लिखूंगा कभी जरुर। बड़ी बेटी की कहानी)

Monday, August 18, 2014

जो छूट गया के पास लौटना

पहले मैं बहुत करियरिस्टिक था। मैं दिन रात करियर करियर ही सोचता रहताा था। हालांंकि ये शुरुआती दौर से बिल्कुल नहीं था। ये तो बाद में दिल्ली आने के बाद लगा कि करियर बनाना है।
कॉलेज के दिनों में मैं सोचा करता कि किसी तरह जर्नलिज्म का कोर्स कर लूंगा, फिर किसी अखबार में इंटर्न लग जाउंगा और दिन-रात घूमा करुंगा एक झोला, एक कुर्ता, एक जिंस और कैमरा लेकर। खूब लिखने और खूब पढ़ने के सपने थे। लिखना लोगों के लिए, पढ़ना खुद के लिये। दिन रात किसी छोटे से शहर के छोटे से गली में कम किराये वाला कमरा होगा, जिसमें मैं दिनभर के स्टोरी जुटाकर फिर रात को लिखूंगा।

बहुत अच्छे वेतन, अच्छी जिन्दगी की चाहता नहीं थी। ये सब तो आईआईएमसी आकर हुआ। बड़ा कैंपस, दिल्ली की बड़ी दुनिया और मैं। एक छोटे से शहर का लड़का। पता नहीं कहां कहां से, आसपास देखते सुनते सपने भी मेरे बदलने लगे। अच्छा प्लेसमेंट, अच्छी नौकरी और मीडिया का चमकता चेहरा। मजबुरी की नौकरी कब इच्छा बन गयी पता भी नहीं चला।

कॉलेज से पहले जब मैं औसत छात्र था, जो मानकर चलता था कि साइंस तो पढ़नी है नहीं और बिना साइंस पढ़े जीवन में कुछ बेहतर हो ही नहीं सकता। उस जमाने में मैं किसी चाय के ढाबे को खोलने जितना बड़ा सपना था, जहां किताबें होंगी और मैं लिखा करुंगा।

लेकिन आज सबकुछ करियर में तब्दील हो गया है। पहले कैंपस से हिन्दुस्तान की नौकरी। एक विस्तार मिला। लगा अब बस। लेकिन नहीं। एकाध साल में सपने और बड़े हुए और नौकरी भी। फिर छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट वाली नौकरी को कैसे साल भर में बदलूं, फिर अगले साल कैसे नौकरी को एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर और आगे बढ़ा पाउं।

यही सब सोचते-करते जीवन की पटरी पर गाड़ी आगे बढ़ने लगी। सैलरी बढ़ा, नौकरी बेहतर हुई, खूब काम किया खूब लिखा-पढ़ी भी।
लेकिन इन सबके बीच करियर, कॉन्ट्रैक्ट बढ़ने, बेहतर ऑप्चुर्निटी की तलाश। सबकुछ की चिंता चलती रही।

इन सबके बीच छूट गया, खूब घूमना, खूब पढ़ना और दुनिया को बेफ्रिक अंदाज में जीना।
अभी भी मौके हैं, अभी भी बहुत कुछ छूटा नहीं है। पक़ड़ा जा सकता है। तो चलें। कोशिश करते हैं फिर से जीवन के डोर को अपने हाथों में लेने की।।

Friday, August 8, 2014

एक रक्षा बंधन ऐसा भीः जंगलवासियों का राखी महोत्सव

कहानी एक ऐसे गांव की जिसने अनूठे अंदाज में मनायी राखी महोत्सव

हर साल राखी का उत्सव आता है। तैयारियां होती हैं। इस साल भी राखी की तैयारियां पूरे देश में जोर-शोर से हो रही है लेकिन इन तैयारियों के बीच एक गांव ऐसा भी है जिसने रक्षा बंधन को बिल्कुल नयी परिभाषा देने की ठानी है।
मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले में स्थित गांव अमिलिया तथा उसके आस-पास के लगभग 15 से 20 गांव इस बार राखी जैसे खूबसूरत उत्सव को नया आयाम दे रहे हैं। इन गांवों के लोगों ने रक्षा बंधन  के दिन अपने जंगल में जाकर पेड़ों पर राखी बांधने का निर्णय लिया है।
दरअसल कुछ दशक पहले तक मध्यप्रदेश का सिंगरौली जिला अपने जंगलों के लिए प्रसिद्ध था। कहते हैं जब पुराने जमाने में राजा-महराजा को किसी को सजा देनी होती थी तो उसे सिंगरौली के जंगलों में भेज दिया जाता था। ये जंगल इतने घने होते थे कि यहां से फिर कोई दुबारा लौट नहीं पाता, लेकिन आज यह इलाका कोयला खदानों के लिए मशहूर हो गया है। जंगलों की जगह बड़े-बड़े कोयला खदानों ने ले लिये हैं और सिंगरौली को देश की ऊर्जा राजधानी कहा जाने लगा।
अमिलिया सहित आसपास के दूसरे गांवों के लोग पिछले कुछ साल तक खुद को खुशनसीब समझते थे क्योंकि सिंगरौली का बचा-खुचा जंगल अब उनके हिस्से में ही है। स्थानीय ग्रामीण जिनमें ज्यादातर आदिवासी और दलित समुदाय के लोग थे, इन्हीं जंगलों में जाकर अपनी जीविका चलाते हैं। जंगल से उन्हें महुआ, तेंदू, चार, चिंरौची, सूखी लकड़ी और यहां तक की जड़ी-बुटी भी मिलता है। लेकिन आज इस जंगल पर और लोगों की जीविका पर संकट मंडरा रहा है। महान नदी के नाम पर इस जंगल का नाम भी महान ही है, जिसे सरकार ने कोयल खदान के लिए आवंटित कर दिया है।
अब वहां जंगल की जगह कोयला और बड़े-बड़े पहाड़ की जगह खदान की खाई प्रस्तावित हुई है। लेकिन गांव के लोग अपने जंगल को खोना नहीं चाहते। वे बचाना चाहते हैं अपने जंगल को भी, पर्यावरण और इस दुनिया को भी। इसलिए उन्होंने अपना एक संगठन महान संघर्ष समिति बनाया है जो लगातार जंगल पर अपने हक की लड़ाई को ठाने हुए हैं। जंगल के प्रति अपने इसी प्यार और समर्पण को दिखाने के लिए गांव वालों ने इस रक्षा बंधन पेड़ों को राखी बांधकर जंगल को बचाने का संकल्प लेंगे और दुनिया को जंगल बचाओ, जीवन बचाओ का संदेश भी।
यह अनूठी पहल है। इसको समझाते हुए अमिलिया गांव के आदिवासी उजराज सिंह खैरवरा बताते हैं,  यह जंगल कभी हमारा बाप बनकर हमें पालता है तो कभी माँ बनकर दुलार भी करता है। आज हमलोग राखी के दिन इस जंगल से एक नया रिश्ता जोड़ रहे हैं। ये रिश्ता है- भाई-बहन का, आपसी विश्वास और समर्पण का। जैसे भाई-बहन आपस में राखी बांधकर एक-दूसरे की रक्षा का संकल्प लेते हैं, वैसे ही आज हम भी पेड़ों में राखी बांधकर इनकी रक्षा का संकल्प ले रहे हैं। लगभग 9 हजार राखियां हमने जुटाये हैं, इनमें एक राखी 54 फीट लंबी है, जिसे खदान परियोजना से प्रभावित होने वाले 54 गांवों का प्रतीक बनाया गया है

आदिवासियों और जंगलवासियों का जंगल से यह संबंध, यह समर्पण और यह अनूठा रिश्ता शहरों में रहने वाले लोगों के समझ में भले न आये, जो लगातार अपनी हरकतों से पर्यावरण को खत्म करने पर तुले हैं लेकिन आज भी देश के सुदूर इलाकों में ऐसे हजारों उदाहरण हैं, जहां प्रकृति और जीवन एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बल्कि पारस्परिक साहचर्य के साथ जीवन बिता रहे हैं। उम्मीद है इस पारस्परिक जीवन और जंगल बचाने की उम्मीद को हम शहर वालों की नजर न लगे।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...