Monday, August 18, 2014

जो छूट गया के पास लौटना

पहले मैं बहुत करियरिस्टिक था। मैं दिन रात करियर करियर ही सोचता रहताा था। हालांंकि ये शुरुआती दौर से बिल्कुल नहीं था। ये तो बाद में दिल्ली आने के बाद लगा कि करियर बनाना है।
कॉलेज के दिनों में मैं सोचा करता कि किसी तरह जर्नलिज्म का कोर्स कर लूंगा, फिर किसी अखबार में इंटर्न लग जाउंगा और दिन-रात घूमा करुंगा एक झोला, एक कुर्ता, एक जिंस और कैमरा लेकर। खूब लिखने और खूब पढ़ने के सपने थे। लिखना लोगों के लिए, पढ़ना खुद के लिये। दिन रात किसी छोटे से शहर के छोटे से गली में कम किराये वाला कमरा होगा, जिसमें मैं दिनभर के स्टोरी जुटाकर फिर रात को लिखूंगा।

बहुत अच्छे वेतन, अच्छी जिन्दगी की चाहता नहीं थी। ये सब तो आईआईएमसी आकर हुआ। बड़ा कैंपस, दिल्ली की बड़ी दुनिया और मैं। एक छोटे से शहर का लड़का। पता नहीं कहां कहां से, आसपास देखते सुनते सपने भी मेरे बदलने लगे। अच्छा प्लेसमेंट, अच्छी नौकरी और मीडिया का चमकता चेहरा। मजबुरी की नौकरी कब इच्छा बन गयी पता भी नहीं चला।

कॉलेज से पहले जब मैं औसत छात्र था, जो मानकर चलता था कि साइंस तो पढ़नी है नहीं और बिना साइंस पढ़े जीवन में कुछ बेहतर हो ही नहीं सकता। उस जमाने में मैं किसी चाय के ढाबे को खोलने जितना बड़ा सपना था, जहां किताबें होंगी और मैं लिखा करुंगा।

लेकिन आज सबकुछ करियर में तब्दील हो गया है। पहले कैंपस से हिन्दुस्तान की नौकरी। एक विस्तार मिला। लगा अब बस। लेकिन नहीं। एकाध साल में सपने और बड़े हुए और नौकरी भी। फिर छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट वाली नौकरी को कैसे साल भर में बदलूं, फिर अगले साल कैसे नौकरी को एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर और आगे बढ़ा पाउं।

यही सब सोचते-करते जीवन की पटरी पर गाड़ी आगे बढ़ने लगी। सैलरी बढ़ा, नौकरी बेहतर हुई, खूब काम किया खूब लिखा-पढ़ी भी।
लेकिन इन सबके बीच करियर, कॉन्ट्रैक्ट बढ़ने, बेहतर ऑप्चुर्निटी की तलाश। सबकुछ की चिंता चलती रही।

इन सबके बीच छूट गया, खूब घूमना, खूब पढ़ना और दुनिया को बेफ्रिक अंदाज में जीना।
अभी भी मौके हैं, अभी भी बहुत कुछ छूटा नहीं है। पक़ड़ा जा सकता है। तो चलें। कोशिश करते हैं फिर से जीवन के डोर को अपने हाथों में लेने की।।

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