Friday, September 25, 2015

बिहार चुनाव में बिहारी छवि और अस्मिता का सवाल


बात बहुत पुरानी नहीं है। गाँव से आठ किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन है। लोकल बाजार पांच किलोमीटर और बड़ा बाजार बीस किलोमीटर। स्कूल की शुरुआती पढ़ाई के बाद जब भी हम छूट्टियों में वहां जाते तो हमें स्टेशन से आठ किलोमीटर का सफर पैदल तय करना पड़ता। अगर कोई महिला साथ में हो तो रिक्शा या टमटम किराये पर लिया जाता। बारिश में रिक्शा-टमटम तो छोड़िये घर के दरवाजे तक मोटरसाईकिल भी नहीं पहुंच पाते थे।
आने-जाने में सबसे ज्यादा आसानी बाढ़ के समय होती थी- जब सरकारी नाव की सुविधा होती। उस समय ज्यादातर लोग जो महीनों हाट-बाजार नहीं जाते, वे भी झक सफेद धीतो-कुर्ता पहनकर नाव पर बैठे मिलते।
कभी-कभी गाँव के वे दोस्त काम आते जिन्हें हम शहर में रहने वाले अकड़ू लोग ढेला भर भी भाव नहीं देते थे। वही साईकिल से स्टेशन छोड़ आते। फिर बाद में बीच-बीच कोई हिम्मती बस वाला उन सड़कों पर हर सुबह गाड़ी भी चलाने लगा था- सभी उसे छह बजिया बस कहा करते थे। गाँव से बाहर जाने का एक मात्र सार्वजनिक सहारा। गांव से जिला बेगूसराय तो दूर पुलिस थाने बछवाड़ा तक नहीं पहुंचा जा सकता था।
आज पिछले एक साल के भीतर गाँव में घर तक पक्की सड़क पहुंच गयी है। आज फोन पर एक दोस्त बड़े ही गर्व से बता रहा था, अब घंटे भर में एक गाड़ी जाती है बाजार और स्टेशन के लिये। अब लोगों को अस्पताल खाट पर लेट कर नहीं जाना पड़ता, लोग आधे घंटे में बाजार-स्टेशन-सरकारी दफ्तर-पुलिस थाना तक पहुंच जाते हैं।
जब वह दोस्त फोन पर मुझे यह सब बता रहा था, उस समय मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक अखबार में बिहार चुनाव पर विश्लेषण दिये गए थे। ज्यादातर जातिय समीकरण के नजरिये से चुनाव को आंका गया था। कितने ओबीसी, कितने जनरल, कितने दलित किस तरफ जायेंगे, प्रतिशत में बताया गया था। 
इस बात से इन्कार नहीं है कि बिहार चुनाव में यह समीकरण मायने रखते हैं, लेकिन इस वक्त की एक मासूम सच्चाई यह भी है बिहार के गाँव, लोग, युवा विकास की तरफ बढ़ रहे हैं। विकास के प्रति उनके भीतर भी कुलबुलाहट है। तमाम दल जब अपने-अपने हिसाब से जातीय समीकरण फिट करने में लगे हैं, तो उसी वक्त बिहार का एक बड़ा तबका विकास के लिये भी वोट करेगा, बेरोजगारी, पलायन के खिलाफ भी वोट करेगा।
 मीडिया को उस बड़े तबके को भी अपने चुनावी विश्लेषण में शामिल करना चाहिए, जिन्होंने इस बिहार चुनाव में विकास को अपना मुद्दा बनाया है, उन गाँवों को भी शामिल करना चाहिए जहां विकास की रौशनी कुलबुला रही है। यह विधानसभा चुनाव सही वक्त है, जब बिहार की उस छवि पर बहस की जा सकती थी, जो देश के विकास के पथ पर संग-संग दौड़ना चाहती है। लेकिन अफसोस मीडिया से लेकर राजनेता तक बिहार चुनाव को जातिय समीकरणों में लपेट कर ही रखना चाह रहे हैं, जो न बिहार के लिये अच्छा और न ही दूरगामी रूप में देश के लिये।


बेकाबू

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