Saturday, February 15, 2014

वैचारिक प्रतिबद्धता बनाम एआईएसफ की “इमेज” बचाओ अभियान


13 फरवरी की बात है। एआईएसएफ के एक सदस्य द्वारा एआईएसएफ के कुछ सदस्यों के साथ मारपीट और गाली-गलौच किया जाता है। मारपीट और गाली-गलौच दो महिला साथियों के साथ भी होता है। घटना अबतक के सबसे जनवादी कैम्पस जेएनयू में होता है। ठीक गंगा ढ़ाबा पर।
  उस समय संगठन के लोगों द्वारा मामले को आपस में सुलझा लेने का निर्णय किया जाता है लेकिन 48 घंटे के बाद भी सार्वजनिक रुप से अंजाम दिए गए घटना के खिलाफ सार्वजनिक रुप से एक कठोर मैसेज तक देने में संगठन असफल रहता है। दो दिन तक बैठकें होती रहती हैं....दयावाद और अपराध के कारणों पर चर्चा होती रहती है। कुल मिलाकर मामले को रफा-दफा करने की सड़ी-गली पद्धति की तरफ बढ़ा जाता है।

हर तीसरे दिन सड़कों पर छात्रों के सवाल पर लाठी खाने वाला, पटना से लेकर भोपाल तक हर मुद्दे पर मुखर होकर बोलने वाला एक जुझारु वामपंथी छात्र संगठन को जब अपने ही पार्टी कॉमरेड के द्वारा महिला कॉमरेडों के साथ किए दुर्व्यवहार पर 48 घंटे तक कोई सार्वजनिक कार्रवायी करने की बजाय मामले को बाहर न जाने दिया जाय पर ज्यादा चिंतित होते दिखता है।

यकीन मानिये अभी भी इसी संगठन से जनता के मुद्दों पर खड़े होने की उम्मीद है...
 उल्टे मेरे सवाल उठाने के बाद आप  मेरी पूरी समझ को कटघरे में खड़ा कर रहे हों लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि न तो आपका पुलिसिया डंडे से खाया चोट दिखावा है और न ही आपके विचार।
लेकिन साथी, क्या बेहतर न होता कि एक सार्वजनिक रुप से घटी घटना के खिलाफ आप सार्वजनिक रुप से एक कठोर कार्रवायी करके मैसेज देते बजाय इसके कि दूसरे लोगों के सामने संगठन की इज्जत चली जाएगी- जैसे मुद्दों को तवज्जों देने के।

और आपके इस तर्क को कि पीड़ित संगठन के एक्शन से संतुष्ट है - तो मैं क्यों लिख रहा हूं- के तर्क को भी मैं नहीं मानता।
अगर ऐसा है तो आप भी आगे से पीड़ितों के पक्ष में बोलना बंद कर दें- क्या गलत निर्णयों के खिलाफ बोलने के लिए पीड़ितों की सहमति आवश्यक है ?

और रही बात व्यक्तिगत रुप से एफआईआर करने का तर्क देने के का। तो सुन लीजिए....ये बिल्कूल भी व्यक्तिगत मामला नहीं है..एक संगठन के लोग ने संगठन की वजह से संगठन के महिलाओं पर हमला किया है तो ये अगर व्यक्तिगत मामला है तो आप भी आईंदा से पीड़ित महिलाओं के मुद्दे पर बोलना छोड़ दीजिए उनको "व्यक्तिगत" हाल पर छोड़ दीजिए।

हां, मुझे बहिष्कृत करने की बजाय अगर संगठन कार्रवायी करने में ऊर्जा खपत करे तो बेहतर।
 
"संगठन का कुछ नहीं बिगड़ेगा। हां, तुम्हारा और संगठन का रिश्ता खराब होगा"
मेरे फेसबुक पर स्टेट्स को पढ़ने के बाद उक्त संगठन के नेताजी का फोन आया..चलिये इसे धमकी नहीं माना जाय...बड़ा भाई मानता रहा हूं उन्हें अबतक तो प्यार भरा उलाहना के बतौर ही लेता हूं।
लेकिन बड़े भैया, गजब कह रहे हैं आप - रिश्ते खराब मेरे हो जायेंगे संगठन से और वो जो सरेआम गंगा ढाबा पर महिलाओं के साथ मारपीट किया है, गाली गलौज किया है उससे संबंध आपलोग बेहतर बनाये रखिये संगठन का।
जानता हूं...मैं बेहद अदना सा आदमी हूं..संगठन का कुछ बिगाड़ पाने की न तो क्षमता है और न ही मंशा।
ये भी जानता हूं कि आपलोग एकजुट होकर सोशल मीडिया से लेकर हर मंच पर मेरी अवसरवादिता से लेकर मेरे मां-बहन सबको कैरेक्टर सर्टिफिकेट भी बंटवाने की क्षमता रखते हैं।
लेकिन मैं बड़े ही मजबूती के साथ सोचता हूं कि इस घोर सामंती घटना के खिलाफ खुलेआम न खड़े होकर आप सांगठनिक संड़ाध को ही बढ़ावा दे रहे हैं।
सार्वजनिक रुप से संगठन की आलोचना तबतक नहीं होती जबतक आप इस घटना के खिलाफ एक कठोर मैसेज देने का काम करते।

लेकिन उल्टे आप मेरे साथ संगठन के रिश्ते खत्म होने की धमकी दे रहे हैं।
ठीक है साथी, आपकी अगर ये समझ है तो हमें कबूल है। आईये कुछ गाली दे जाईये...हमें गंभीर परिणाम भुगता जाईये।
वैसे भी ऐसे संगठन के साथ संबंध का आचार तो डालेंगे नहीं...आप हो सके तो मोरब्बा ही बना लीजिए।


चांद, सूरज और तारे

Sabhar- Google



लोक कथाओं के क्रम में आज एक बुन्देली लोककथा

चांद, सूरज और तारे


एक भाई-बहिन थे। भाई का नाम था सूरज और बहिन का चंदा। दोनों अपने बाल-बच्चों के साथ प्रेम पूर्वक रहते थे। सूरज पंचाग्नि तप कर तपस्या करते थे। एक दिन सूरज ने क्रोधित होकर उन बालकों की तरफ अग्नि-किरण फेंकी, जिससे कुछ बच्चे जल गए। उन्हें जलता देखकर चंदा ने  सबको अपने गालों के भीतर छिपा लिया।

तपस्या के बाद जब सूरज, तब चंदा ने कहा- "तुमने कितने ही बच्चों को भस्म कर दिया। तुम्हारे जैसा पापी दूसरा न होगा। जाओ, आज से हमारी छाया तक न देख पाओगे और न हम तुम्हारी देखेंगे।"

कहते हैं कि तभी से सूरज अकेला निकलता है और चंदा अपने बच्चों और भतीजों को लेकर आती है। वे तारे होकर उसके आसपास दमकते रहते हैं। तभी से चंदा और सूरज ने एक दूसरे को नहीं देखा।

Friday, February 7, 2014

समय से मुठभेड़

इसी समय से

ये अजबी समय है..हर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है...ये खिलाफत उसकी चुनी हुई नहीं, है थोपी हुई....फिर अकड़ ऐसी है जैसे यही हो जाय सौ फीसदी खरा यथार्थ..एक ऐसे समय में जब जिन्दगी की पूरी सच्चाई को प्लेसमेंट नाम के किसी पोटली में बांध कर बांटने में व्यस्त है कोई एमएनसी।
इसी समय में एक तबका ऐसा भी है जो घिरा है कई वादों से। कभी रायट..कभी लेफ्ट  चलते हुए हर कोई अपनी सुविधा अनुसार सेट होने में लगा है।
इसी समय में कोई मीडिया जनसरोकार..जनसरोकार चिल्ला रहा है गला फाड़ के..और कोई एनजीओ भर  रहा है जनाआंदोलनों की हुंकार।
इसी समय में माँ को घर के चौखटे पर खड़े हम सब चले आए हैं मेट्रो शहरों में- अपनी तकदीर लिखने और फिर लौटने की बजाय हम माँ को भेज रहे हैं महीने में इक तयशुदा रकम...रकम जिसे माँ खर्च करती है बचा-बचा कर। कुछ सब्जियों में, कुछ दवाईयों में और बांकि बैंक के खाते में।
रुपये के नोट न तो माँ के अकेलेपन को भर पाते हैं और न हमारी नौकरी माँ के विकल्प को। ऐसे ही हम दोनों रह जाते हैं अधूरे-आधे।
जिनको मिल गयी है जीने की मकसद वो हल्ला कर रहे हैं चिल्ला-चिल्ला कर-बांकि अपने नारों-झंड़ो और रंगों को झाड़-पोंछ कर ठीक करने में लगे हैं।
इसी समय में एक साथ घटती हैं रोज कई देश, कई राज्य, कई खबरों का सिलसिला। कभी सब्ससिडि में गैसे मिलने पर बढ़ जाती है खुशी और पेट्रोल के दाम के साथ ही घट जाती है हमारी खुशी। हमारा खुश होना सब्सिडी के गैस और पेट्रोल के दामों की गिरफ्त में कैद कर दिए गए हैं।
जो करना चाहते हैं समय से मुठभेड़- वो चिल्लाते हैं- लेकिन उनकी आवाज गले में ही अटकी रह जाती है-कहीं भीतर।
औऱ मौज करो, लोड न लो की तमाम नसीहतें भी फीकी पड़ने लगती है किसी उदास शाम को। तो जीने का मकसद खोजने निकलते हैं हम और लौट आते हैं चौराह की चाय दुकान पर शर्मा जी से बहस करके।
ये बहसें ही लगती है कभी-कभी हमें अपनी नौकरी से बाहर जिन्दगी जीने का अहसास करा जाती हैं।

यह दिन




एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष काव्य संग्रह से शुंतारो तानीकावा की एक कविता
-यह दिन।
घोर उदासी भरा दिन हम सबके जिन्दगी का हिस्सा हैं, गाहे-बगाहे लौट कर आता ही रहता है यह दिन। शुंतारो ने इसी एक दिन पर लिखी है ये कविता-अनुवाद अशोक पांडे ने की है। 

यह दिन 


कुछ शुरू हुआ उस दिन मेरे लिए
कुछ खत्म हुआ उस दिन मेरे लिए

हर कोई खामोश था उस दिन
मेपल की पत्तियों पर चमक रहा था मुलायम सूरज
उबासियां ले रहे थे फ़रिश्ते उस दिन

आज जैसा एक दिन
बीते कल जैसा एक दिन

कुछ भी शुरू नहीं हुआ किसी और के लिए उस दिन
कुछ भी खत्म नहीं हुआ किसी और के लिए उस दिन

अकेले पार की मैंने एक रेलवे क्रासिंग
फिर वापस गुज़रा और फिर वापस
उसके बाद मैं पटरियों के बीच झुक कर बैठ गया
मैंने पटरियों को देखा
मैंने डूबते सूरज को देखा

आज का जैसा वह दिन
आने वाले कल जैसा दिन

मैं चुप रहता हूं, आज रो न पाते हुए
गर्भ के भीतर कोई घूमना शुरू करता है

कुछ शुरू होता है आज मेरे लिए इस दिन
कुछ खत्म होता है आज मेरे लिए इस दिन

छीली जाती हैं मटर की फलियां
एक बिल्ली का बच्चा नदी में गिर जाता है इस दिन

जीवन के बीच मृत्यु का एक दिन.

Tuesday, February 4, 2014

Blog Banaras

बनारस
बनारस पर हजारों नहीं नहीं लाखों तस्वीरें और शब्दों को खर्च किया गया है..यहां पोस्ट की गई तस्वीरें बेहद ही साधारण है..जानते हुए भी सिर्फ इसलिए पोस्ट कर रहा हूं- क्योंकि मेरा पर्सनल मन रहा है कि बनारस की कुछ तस्वीरों से अपने ब्लॉग को सजाउँ। बस।
एक और बनारस

चोला माटी के राम

देर रात कुहरे में लिपटी रात और बनारस का घाट

चाय की दुकान बनारस की शान

रंगों का कोराबार

खत्म होते पोस्टर क्लचर के लिए..सिनेमॉल के खिलाफ

जीवन इन बनारस

बनारस घाट

ठंड में भी नहाने का साहस इन बनारस

गंगा इन बनारस

रीडिंग एट घाट

विदेशियों को अट्रैक्ट करता बनारस

Sunday, February 2, 2014

क्रांतिकारी की कथा


हरिशंकर परिसाई  से पहली बार रूबरु हुआ था- दो नाक वाले लोग। को पढ़कर। तबसे आज तक कई लेख-रचनाओं से गुजरा। आईआईएमसी गया तो उनके भोलाराम का जीव नाटक पर किरदार भी निभाया। हिन्दी में हरिशंकर परसाई सबसे आगे की पंक्ति के व्यंग्यकार हैं। उतने ही प्रतिबद्ध कॉमरेड भी। जिन्दगी भर जबलपुर में सीपीआई को सींचते रहे। हाल फिलहाल में जबलपुर जाना बढ़ा है, बीच में कुछ मित्रों से उनके किस्से सुनने के मौके भी मिले हैं। परसाई जी और पसंदीदा होते जा रहे हैं। पेश है- ये कहानी एक क्रांतिकारी की। - रात का रिपोर्टर


क्रांतिकारी' उसने उपनाम रखा था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ, सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही। मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे-ग्वेवारा का खास भक्त।
कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बातें करता। हमेशा क्रांतिकारिता के तनाव में रहता। सब उलट-पुलट देना है। सब बदल देना है। बाल बड़े, दाढ़ी करीने से बढ़ाई हुई।
विद्रोह की घोषणा करता। कुछ करने का मौका ढूँढ़ता। कहता, "मेरे पिता की पीढ़ी को जल्दी मरना चाहिए। मेरे पिता घोर दकियानूस, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी हैं। ठेठ बुर्जुआ। जब वे मरेंगे तब मैं न मुंडन कराऊँगा, न उनका श्राद्ध करूँगा। मैं सब परंपराओं का नाश कर दूँगा। चे-ग्वेवारा जिंदाबाद।"
कोई साथी कहता, "पर तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते हैं।"
क्रांतिकारी कहता, "प्यार? हाँ, हर बुर्जुआ क्रांतिकारिता को मारने के लिए प्यार करता है। यह प्यार षड्यंत्र है। तुम लोग नहीं समझते। इस समय मेरा बाप किसी ब्राह्मण की तलाश में है जिससे बीस-पच्चीस हजार रुपए ले कर उसकी लड़की से मेरी शादी कर देगा। पर मैं नहीं होने दूँगा। मैं जाति में शादी करूँगा ही नहीं। मैं दूसरी जाति की, किसी नीच जाति की लड़की से शादी करूँगा। मेरा बाप सिर धुनता बैठा रहेगा।"

साथी ने कहा, "अगर तुम्हारा प्यार किसी लड़की से हो जाए और संयोग से वह ब्राह्मण हो तो तुम शादी करोगे न?"
उसने कहा, "हरगिज नहीं। मैं उसे छोड़ दूँगा। कोई क्रांतिकारी अपनी जाति की लड़की से न प्यार करता है, न शादी। मेरा प्यार है एक कायस्थ लड़की से। मैं उससे शादी करूँगा।"

एक दिन उसने कायस्थ लड़की से कोर्ट में शादी कर ली। उसे ले कर अपने शहर आया और दोस्त के घर पर ठहर गया। बड़े शहीदाना मूड में था। कह रहा था, "आई ब्रोक देअर नेक। मेरा बाप इस समय सिर धुन रहा होगा, माँ रो रही होगी। मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को इकट्ठा करके मेरा बाप कह रहा होगा, 'हमारे लिए लड़का मर चुका।' वह मुझे त्याग देगा। मुझे प्रापर्टी से वंचित कर देगा। आई डोंट केअर। मैं कोई भी बलिदान करने को तैयार हूँ। वह घर मेरे लिए दुश्मन का घर हो गया। बट आई विल फाइट टू दी एंड-टू दी एंड।"
वह बरामदे में तना हुआ घूमता। फिर बैठ जाता, कहता, "बस संघर्ष आ ही रहा है।"

उसका एक दोस्त आया। बोला, "तुम्हारे फादर कह रहे थे कि तुम पत्नी को ले कर सीधे घर क्यों नहीं आए। वे तो काफी शांत थे। कह रहे थे, लड़के और बहू को घर ले आओ।"

वह उत्तेजित हो गया, "हूँ, बुर्जुआ हिपोक्रेसी। यह एक षड्यंत्र है। वे मुझे घर बुला कर फिर अपमान करके, हल्ला करके निकालेंगे। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो मैं क्यों समझौता करूँ। मैं दो कमरे किराए पर ले कर रहूँगा।"

दोस्त ने कहा, "पर तुम्हें त्यागा कहाँ है?"
उसने कहा, "मैं सब जानता हूँ - आई विल फाइट।"

दोस्त ने कहा, "जब लड़ाई है ही नहीं तो फाइट क्या करोगे?"

क्रांतिकारी कल्पनाओं में था। हथियार पैने कर रहा था। बारूद सुखा रहा था। क्रांति का निर्णायक क्षण आनेवाला है। मैं वीरता से लड़ूँगा। बलिदान हो जाऊँगा।
तीसरे दिन उसका एक खास दोस्त आया। उसने कहा, "तुम्हारे माता-पिता टैक्सी ले कर तुम्हें लेने आ रहे हैं। इतवार को तुम्हारी शादी के उपलक्ष्य में भोज है। यह निमंत्रण-पत्र बाँटा जा रहा है।"
क्रांतिकारी ने सर ठोंक लिया। पसीना बहने लगा। पीला हो गया। बोला, "हाय, सब खत्म हो गया। जिंदगी भर की संघर्ष-साधना खत्म हो गई। नो स्ट्रगल। नो रेवोल्यूशन। मैं हार गया। वे मुझे लेने आ रहे है। मैं लड़ना चाहता था। मेरी क्रांतिकारिता! मेरी क्रांतिकारिता! देवी, तू मेरे बाप से मेरा तिरस्कार करवा। चे-ग्वेवारा! डियर चे!"

उसकी पत्नी चतुर थी। वह दो-तीन दिनों से क्रांतिकारिता देख रही थी और हँस रही थी। उसने कहा, "डियर एक बात कहूँ। तुम क्रांतिकारी नहीं हो।"
उसने पूछा, "नहीं हूँ। फिर क्या हूँ?"
पत्नी ने कहा, "तुम एक बुर्जुआ बौड़म हो। पर मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।"

बैगा मिथकथाः बैगा और धरती


लोककथाएँ हम सबके जिन्दगी का एक टुकड़ा रहा है लेकिन कथाओं का यह वाचिक परम्परा अपने अंतिम समय से गुजर रहा है। ऐसे में जरुरी है कि इन्हें सहेज कर रखा जाय। खासकर, जनजातियों की लोककथाओं के साथ मुश्किलें ज्यादा हैं। इन कथाओं को बचाने या फिर इन्हें ऑनलाइन पाठकों तक पहुंचाने की एक कोशिश के तहत पहली कहानी एक बैगा मिथकथा को पोस्ट कर रहा हूं। आगे भी कोशिश जारी रहेगी.... (Raat ka Reporter)

बहुत पहले चारों ओर जल ही जल था। उस जल के ऊपर एक पुराना पत्ता तैर रहा था। उसपर भगवान बैठे रहते थे। ऐसे कई दिन  निकल गए। भगवान दिन-रात सोच में रहने लगे। मन में विचार करने लगे। यहां तो जल ही जल है। धरती कहीं है ही नहीं। भगवान ने अपनी छाती से मैल निकालकर एक कौआ बनाया। इसके बाद कौए को उन्होंने आदेश दिया कि- जा रे कौए। तुम जाकर धरती का पता लगाओ। कौआ उड़ चला। उड़ते-उड़ते कुँवर ककरामल नाम का कछुआ दिखाई दिया। उसके बड़े-बड़े डाढ़ थे। डाढ़ पर कौआ थककर बैठ गया। कौआ बोला- कुँवर ककरामल। तू झूठ मत बोलना, मुझे ईमानदारी से धरती का पता बता दे। मैं धरती की मिट्टी लेने आया हूं। यह सुनकर ककरामल कछुए ने कौए को डाढ़ में दबाया और पाताल लोक की ओर ले चला। धरती की मिट्टी या धरती राजा किचकमल ने दबाकर रख ली थी। माँगने पर राजा ने कौए को धरती की मिट्टी दे दी। ककरामल कौए को लेकर पाताल लोक से ऊपर आ गया। कौए ने धरती की मिट्टी भगवान को दी।

    भगवान ने एक बरतन बुलवाया, उसमें सर्प की गेरी बनाई और उसी की मथानी बनाई। उस मिट्टी को बरतन में डाला। मिट्टी डालकर उसे मथने लगे। अच्छी तरह मथकर भगवान ने उस मिट्टी को पूरे पानी में बिखेर दिया। तब पानी के ऊपर धरती बन गई। इसके बाद भगवान ने धरती पर चारों दिशाओं में घूम-फिर देखा। धरती इधर-उधर डोल रही थी। भगवान ने तत्काल लोहे का कार्य करने वाले अगरिया को बनाया। अगरिया ने चार बड़ी-बड़ी लोहे की कीलें बनाई। उसके बाद भगवान ने नागा बैगा बनाया। नागा बैगा ने धरती के चारों कोनों में कीलें ठोक दीं। तबसे पृथ्वी का हिलना-डुलना बन्द हो गया। तबसे बैगा धरती के रक्षक हो गए।

- वसन्त निरगुणे

(अगर आपके पास भी कोई लोककथा हो तो जरुर मेल करें- avinashk48@gmail,com

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...