Friday, February 7, 2014

यह दिन




एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष काव्य संग्रह से शुंतारो तानीकावा की एक कविता
-यह दिन।
घोर उदासी भरा दिन हम सबके जिन्दगी का हिस्सा हैं, गाहे-बगाहे लौट कर आता ही रहता है यह दिन। शुंतारो ने इसी एक दिन पर लिखी है ये कविता-अनुवाद अशोक पांडे ने की है। 

यह दिन 


कुछ शुरू हुआ उस दिन मेरे लिए
कुछ खत्म हुआ उस दिन मेरे लिए

हर कोई खामोश था उस दिन
मेपल की पत्तियों पर चमक रहा था मुलायम सूरज
उबासियां ले रहे थे फ़रिश्ते उस दिन

आज जैसा एक दिन
बीते कल जैसा एक दिन

कुछ भी शुरू नहीं हुआ किसी और के लिए उस दिन
कुछ भी खत्म नहीं हुआ किसी और के लिए उस दिन

अकेले पार की मैंने एक रेलवे क्रासिंग
फिर वापस गुज़रा और फिर वापस
उसके बाद मैं पटरियों के बीच झुक कर बैठ गया
मैंने पटरियों को देखा
मैंने डूबते सूरज को देखा

आज का जैसा वह दिन
आने वाले कल जैसा दिन

मैं चुप रहता हूं, आज रो न पाते हुए
गर्भ के भीतर कोई घूमना शुरू करता है

कुछ शुरू होता है आज मेरे लिए इस दिन
कुछ खत्म होता है आज मेरे लिए इस दिन

छीली जाती हैं मटर की फलियां
एक बिल्ली का बच्चा नदी में गिर जाता है इस दिन

जीवन के बीच मृत्यु का एक दिन.

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