Friday, February 7, 2014

समय से मुठभेड़

इसी समय से

ये अजबी समय है..हर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है...ये खिलाफत उसकी चुनी हुई नहीं, है थोपी हुई....फिर अकड़ ऐसी है जैसे यही हो जाय सौ फीसदी खरा यथार्थ..एक ऐसे समय में जब जिन्दगी की पूरी सच्चाई को प्लेसमेंट नाम के किसी पोटली में बांध कर बांटने में व्यस्त है कोई एमएनसी।
इसी समय में एक तबका ऐसा भी है जो घिरा है कई वादों से। कभी रायट..कभी लेफ्ट  चलते हुए हर कोई अपनी सुविधा अनुसार सेट होने में लगा है।
इसी समय में कोई मीडिया जनसरोकार..जनसरोकार चिल्ला रहा है गला फाड़ के..और कोई एनजीओ भर  रहा है जनाआंदोलनों की हुंकार।
इसी समय में माँ को घर के चौखटे पर खड़े हम सब चले आए हैं मेट्रो शहरों में- अपनी तकदीर लिखने और फिर लौटने की बजाय हम माँ को भेज रहे हैं महीने में इक तयशुदा रकम...रकम जिसे माँ खर्च करती है बचा-बचा कर। कुछ सब्जियों में, कुछ दवाईयों में और बांकि बैंक के खाते में।
रुपये के नोट न तो माँ के अकेलेपन को भर पाते हैं और न हमारी नौकरी माँ के विकल्प को। ऐसे ही हम दोनों रह जाते हैं अधूरे-आधे।
जिनको मिल गयी है जीने की मकसद वो हल्ला कर रहे हैं चिल्ला-चिल्ला कर-बांकि अपने नारों-झंड़ो और रंगों को झाड़-पोंछ कर ठीक करने में लगे हैं।
इसी समय में एक साथ घटती हैं रोज कई देश, कई राज्य, कई खबरों का सिलसिला। कभी सब्ससिडि में गैसे मिलने पर बढ़ जाती है खुशी और पेट्रोल के दाम के साथ ही घट जाती है हमारी खुशी। हमारा खुश होना सब्सिडी के गैस और पेट्रोल के दामों की गिरफ्त में कैद कर दिए गए हैं।
जो करना चाहते हैं समय से मुठभेड़- वो चिल्लाते हैं- लेकिन उनकी आवाज गले में ही अटकी रह जाती है-कहीं भीतर।
औऱ मौज करो, लोड न लो की तमाम नसीहतें भी फीकी पड़ने लगती है किसी उदास शाम को। तो जीने का मकसद खोजने निकलते हैं हम और लौट आते हैं चौराह की चाय दुकान पर शर्मा जी से बहस करके।
ये बहसें ही लगती है कभी-कभी हमें अपनी नौकरी से बाहर जिन्दगी जीने का अहसास करा जाती हैं।

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