Saturday, February 11, 2017

खत्म होते बेटे का माँ को चिट्ठी

प्रिय माँ

ये जब लिख रहा हूं तो अकेला हूं। नहीं सिर्फ इस शहर में नहीं, दफ्तर के इस कमरे में नहीं बल्कि हर जगह। तुम लौट चुकी हो, हजार शिकायतों, दुखों, उदासियों को अपने साथ लिये। मैं पीछे छूट गया हूं पिछले तीन दिन की तसल्ली भरे समय को लिये। तुमने जाने के बाद फोन भी किया, मैं ना-नुकुर में बात करता रहा। पिछले तीन दिन तो ऐसे ही बीते। बहुत बहुत कम बातचीत के साथ- तुम हमेशा चाहती रही बातें हो, चाहती रही हम साथ बैठे, लेकिन मैं व्यस्त रहा- अपने स्मार्टफोन में, अपनी दुनिया में जो ज्यादातर बार कृत्रिम सा लगता है। तुम शिकायत करती रही- हमेशा फोन में क्यों खोए रहते हो, और मैं स्क्रॉल करता रहा। इस बीच महीने भर की यात्रा में गंदे पड़े कपड़े कब साफ हुए, नहीं पता चल सका- दफ्तर के लिये निकला तो देखा, इस बीच अपनी गर्दन झुकाये मैं फोन में रहा- और हाथ में चाय मिलती रही, खाना खाता रहा, अपने दफ्तर जाता रहा।

 

तुमने ठीक ही कहा, ऐसा मिलना तो फोन पर मिलने जैसा ही है। ऐसा मत समझो कि मैं ये सब लिखकर अपनी गलतियों को छिपा रहा हूं. न...बिल्कुल नहीं। बस एक स्वीकोरक्ति है, बस मैं स्वीकार कर रहा हूं...तुम्हें पता है माँ लिखने वाले लोग बड़े बेईमान से होते हैं- अपनी हर गलती पर भावुक शब्द खोज लेते हैं, जबकि सच्चाई है कि घोर भावुकता में कोई शब्द नहीं सूझता। मुझे अभी सूझ रहा है- यही मेरी बेईमानी है, यही दुख है, यही स्वीकोरक्ति है।

दरअसल मुझे लग रहा है मेरे अंदर का मैं मरता जा रहा है। मेरे अंदर की सारी संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं और ऐसा मैं जानबूझकर होने दे रहा हूं...उससे भी ज्यादा इन सब चीजों में मुझे मजा आने लगा है। मैं सुख में हूं- अपनी सारी संवेदनाओं को खत्म करके।

लगता है जैसे सारी संवेदनशीलता मैंने पेशेवर शब्दों तक समेट दिया है। शायद यह एक लंबी प्रक्रिया है। याद है तुम्हें अक्सर अपने बहुत सारे बाहर के काम संभालने होते थे- हम दोनों भाई तुम्हारे रसोई में हाथ बांटते थे, बर्तन धोने से लेकर दूसरे छोटे-छोटे काम। घर-गाँव के लोग कितना मजाक उड़ाते थे- कि घर का काम करता है, लड़की है, और न जाने कितनी बकवास। लेकिन हमें अच्छा लगता था- तुम्हारे मीटिंग में जाने के बाद पीछे साड़ी धो के रख देनी जैसी छोटी-छोटी बातें सुख देती थी। लगता था मम्मी आज आयेगी तो कितना खुश होगी...ऐसी ढ़ेरों बातें याद हैं- तुम्हारी खुशी में हमें सुख महसूस होता था।

 

लेकिन आज वो सुख कहां गया…मैं खुद नहीं समझ पा रहा। पिछले न जाने कितनी मुलाकतें याद है मुझे- जहां मैंने कभी तुम्हारे लिये चाय नहीं बनायी, कभी तुम्हारे साथ रसोई का कोई काम नहीं कर पाया, हालांकि सोचता रहा करुंगा, करना चाहिए, लेकिन नहीं किया...क्यों..

शायद बदल गया हूं...फेसबुक पे, लंबे-लंबे आर्टिकल्स लिखने लगा हूं कि महिलाओं की आजादी की बात, उनके रसोई से आजादी की बात- खूब वाहवाही मिलती है वहां, अब उसी में सुख महसूस होने लगा है- तो वो जो पुराना वाला सुख है अब सूखने लगा है। अब ज्ञान है कि रसोई में मर्दों को भी जाना चाहिए, लेकिन वो इमोशन नहीं है कि माँ को अच्छा लगेगा- उसके लिये रात का खाना बनाया जाय, माँ को अच्छा लगेगा- उसके लिये बेड टी बनायी जाय, कि माँ को अच्छा लगेगा उसके कपड़े धो दिये जायें।

 

मुझे याद है- बचपन में हम अपने कपड़े खुद धुलते थे। अब भी जब तुम पूछती हो- गंदे कपड़े दो, मैं नहीं देता, तुम खुद बैग से निकाल लेती हो, धुल देती हो और मैं पहन लेता हूं- बस इतना ही। कोई दुख, अफसोस और सुख नहीं दिखता वहां।

 

कितना अजीब होता जा रहा हूं। बेहद अंसवेदनशील। दुनिया में हँसते-मिलते-बैठते समझ में नहीं आता लेकिन जब अकेले में बैठो तो वो फर्क महसूस करता हूं...खुद को खोता चला जा रहा हूं- नहीं इसमें कोई शिकायत भी नहीं है...मैं खुश हूं...

याद आता है पहली बार अखबार ज्वॉयन किया था, गोल्फ क्लब की रिपोर्टिंग के लिये गया था।  वहां बहुत आलीशान महफिल जमी थी। लोग खा-पी रहे थे, खेल कम, भव्यता ज्यादा थी। मुझे लगा था कहाँ आ गया...रो पड़ा था।

और एक आज का दिन है- खुद पता नहीं कितनी मंहगी पार्टियों का हिस्सा बनता हूं, मँहगे रेस्तरां, कैफे, जीवन में ही सुखी हूं.....खुद को लगता है कुछ हासिल किया...अहा, उपर से दावा ये कि नौकरी अपनी माँ की खुशी के लिये कर रहा हूं।

हाहाहा, कितनी मक्कारी है न। नौकरी, शहर की मंहगी जिन्दगी, ट्रैवल, सबकुछ खुद करता हूं, और नौकरी करने का सारा इल्जाम तुम पर लगाता हूं। और तुम वहीं हो, जहां हम थे बीस साल पहले, दस साल पहले- अपने दुख और अकेलेपन के साथ। अब तुम्हारा रोना भी परेशान नहीं करता, बस चुप हो जाता हूं...तुम चली जाती हो फिर अपनी दुनिया, अपनी महफिल में खुश हो जाता हूं।

 

करीब पन्द्रह साल से तुमसे दूर रह रहा हूं...इस बीच पिछले पाँच साल में मैं खुद को बेहद असंवेदनशील होते पाया है। जितना तुमसे दूर होता रहा, हमारी मुलाकातें कमती रहीं मैं अंसवेदनशील होता चला गया।

यह सिर्फ तुम्हारे लिये नहीं, दुनिया के लिये भी। तुम्हें बताउं वैसे तो दर्जनों केस हैं- लेकिन एक किस्सा हाल का है- एक दोस्त है। थोड़ा खास सा ही। हाहाहा। ये भी अजीब है जो जितना खास होता है, वो उतनी ही तेजी से गुम हो जाता है। खैर, तो उस दोस्त के साथ कहीं घूमने गया था, मेरी गलतियों की वजह से उसका कीमती सामान गुम गया। हम सब परेशान हुए- लेकिन बहुत फर्क नहीं पड़ा- हमने इधर-उधर खोज की, फिर फोटो खिंचने लगे, अपने फोन में गुम होने लगे। इस बीच वो दोस्त बेहद परेशान रहा। फिलहाल अब उससे वैसा नहीं है। बाद में मैंने उसे कंपनसेट करने की कोशिश की। भूल गया उसके सामान का मुआवजा दे सकता हूं, लेकिन अपने असंवेदनशील होने की कीमत दूंगा...सॉरी..नहीं ये भी फिजूल की बात है।

 

दरअसल ऐसा ही हो गया हूं- किसी के मरने की खबर आती है, फेसबुक स्टेट्स अपडेट कर देता हूं, कई बार समझ नहीं आता तो कुछ नहीं भी लिखता हूं, लेकिन रोता कभी नहीं। आँसू नहीं गिरते, आसपास बड़ी से बड़ी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, लेकिन दिल उफ्फ नहीं करता। अपने रोजमर्रा के काम खुशी-खुशी निपटाता हूं...अब कोई फर्क सा पड़ना बंद हो गया है। अजीब है। दुख जबतक नितांत प्राईवेट न हो, कोई फर्क ही नहीं पड़ता।

सरोकार खत्म हो गये हैं, लोगों के लिये मन में स्नेह नहीं बची है, एक भी दोस्त-यार नहीं जिनके बारे में मैं कह सकूं कि इसे मै प्रेम करता हूं- खुद से प्रेम बढ़ता चला जा रहा है- तुम हो अपना घर है, जहाँ आखिरी उम्मीद बची है- पता नहीं कब वो प्रेम भी खत्म हो जाये, हालांकि जो बचा है वो भी तुम सबकी तरफ से ही है- मुझ में तो उसका छँटाक भी नहीं।

 

माँ, मुझे तुम्हारी जरुरी है...मैं कह नहीं पाउंगा...हो सकता है तुम्हारे साथ रहूं तो बचा रहूं...लेकिन एक मन ये भी कहता है कि अकेले रहो, आजाद रहो...खुद की सोचो...खुद में रमो...सारा सुख अपने लिये बचा लो...और पता है उस मन की मैं आजकल ज्यादा सुनने लगा हूं...

बस इतना ही..

तुम्हारा

बेईमान होता जा रहा बेटा

लिखे में बेईमान, जिये में बेईमान

कहे में बेईमान, ईमानदारी कहीं नहीं।

Ps- कुछ चीजों के बारे में लिखना मुश्किल है। आपके साथ कुछ होता है और आप उसे लिखने बैठ जाते हो- फिर या तो आप उसे ड्रामा बना देते हो या फिर उसे बेहद कम करके आंकते हो, गलत हिस्से को बढ़ा-चढ़ा के लिखते हो या फिर जरुरी हिस्से को इग्नोर कर देते हो। किसी भी हाल में, आप उसे वैसे नहीं लिख पाते, जैसा चाहते हो।
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द अनब्रिज्ड जर्नल्स ऑफ सिल्विया पाथ

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