Tuesday, February 19, 2019

भरोसा नहीं होना

एक कमाल की बात है। आजतक कोई एक ऐसा नहीं मिला जिसके सामने अपने मन की गांठ खोल पाउं।

बचपन से। कई बार सोचा किसी के साथ इस गांठ को खोला जाये। लेकिन सालों साल बीतते रहे और वो हो नहीं पाया। इस एक गांठ ने लोगों छूटवाये। इस एक गांठ ने पूरा का पूरा गांव उजाड़ा। इस गांठ ने किसी चीज को अपना न होने दिया।

लेकिन अब लगता है धीरे-धीरे उस गांठ के खुलने का वक्त आया है।

Monday, February 18, 2019

पराये शहर में

रातभर कबीर को सुनते रहने के बाद की सुबह। फरवरी की सुबह। सर्दी में बारिश थोड़ी सी उदासी लेकर गिरता है। मन सोचता है। क्या एकदिन ऐसा आता है जब पराये शहर में रहते हुए हम अपने घर को बिल्कुल भूल जाते हैं?

कि सालों साल दूसरे शहर में जीते हुए हमें याद नहीं रहता हम कहां से आय़े थे..हमारा अपना शहर या गांव का रंग कैसा था..


उस खेत को भूल जाते हैं जहां पहली बार छिपकर बीड़ी पी थी या कि उस गली को जहां जोर से चिल्लाकर प्रेम को स्वीकार किया था। या उस नदी को जहां बैठकर कवितायें पढ़ी थीं और प्रेम को करीब से देखा था।


या कि उस शहर को जहां सबसे ज्यादा तपी हुई जिन्दगी देखी और सारी खुश खबरें भी वहीं सुनी। ये याद रहता है कि खेत में मटर तोड़ते वक्त ओस से पैरों में मिट्टी लग जाती है- एकदम कीचड़ जैसा।

यहां इस पराये शहर में तो हर दिन मेला है। फिर वो अक्टूबर याद आता है? पुजा और मेला का दिन?

शायद नहीं।

अच्छा मुझे लगता है ...खैर जाने दो।

मन क्या चाहता है तु बतायेगा कभी।
मैं हवा में बात करने लगा था। औऱ अब जब ये लिख रहा हूं तो आँखे बेंद कर ली हैं। आंख बंद कर टाइपिंग किये जा रहा हूं। ये क्या कोई टैलेंट है या फिर बीमारी। बीमार औऱ गुलाम। इन की बोर्डस का।


Sunday, February 10, 2019

दिल में इक पत्थर लिये चलते हैं

उसे काफी दिनों तक लगता रहा कि उसने ऑपरेट करवा लिया है और अब वो पत्थर वहां नहीं है, जिसे दिल कहते हैं। लेकिन उस दिन अचानक। तेज बारिश हुई थी। ठंड थोड़ी और। शाम के बीतने का वक्त रहा होगा।

वो यूं ही कहीं बैठा था। शहर के किसी एक जंगल में। चाय पी थी। और अचानक दर्द शुरू हुआ। उसे समझ नहीं आया। दर्द तो जाना-पहचाना सा था। अभी कुछ दिन पहले तक तो आदत में शुमार। लेकिन काफी दिन पहले अचानक से गायब भी हो गया था। अचानक नहीं शायद। धीरे-धीरे ही सही।

फिर आज। अचानक। क्यों। वो घबरा गया। हड़बड़ी में तेज चलने लगा। तेज चलने से दर्द कहां जाता है भला। वो जमा रहा।

कराह। आँसू। वो तेज गाने लगा। तेज गाने से दर्द कहां जाता है भला।

क्या दर्द ने फिर से उसे याद किया था। नहीं, नहीं। वो तो ऑपरेट हो चुका था। पत्थर निकाल कर उसने खुद ही तो बहुत दूर समुंद्र में बहाया था।

क्या पत्थर भी तैरना जानते हैं? वो तो काफी भारी होते हैं। भीतर पानी में खो जाते हैं। उन्हें तैरना कहां आता है भला। वो क्या खाक वापिस होंगे।

कहीं किसी हिचकोले में तो नहीं ऊपर आ गए। और फिर किसी ने किनारे में फेंक दिया हो उठाकर।

नहीं। नहीं। दर्द में आदमी क्या क्या सोचने लगता है। लेकिन ये दर्द। उसने तो ऑपरेट करवा लिया था।फिर अचानक। वो भाग कर समुंद्र की तरफ जाना चाह रहा था। उसने दौड़ लगायी। औऱ पहाड़ पर चढ़ गया।


उसे ऊंचाई से बहोत डर लगता था....

Tuesday, February 5, 2019

शहर में अपना तुम्हारा कोना

बहुत पहले उसने एक कैफे के बारे में बताते हुए लिखा था कि कैसे शहर का कोई कोई कोना आपका बहोत अपना सा हो जाता है। फिर क्या...
उस कोने को आप साझा करते हैं...और जब वो साझा करने वाला चला जाता है तो फिर आप उस कोने की तरफ जाने से बचने लगते हैं।


उसने उस शहर में रहते हुए ऐसे कई कोने बना लिये थे..जिन्हें वो अक्सर दूसरों से साझा किया करता...और फिर एक दिन वहां जाने से बचता।

धीरे-धीरे उसके सारे कोने खत्म होते गए। बहोत दिन बाद उसे भान हुआ कि कुछ कोने अपने लिये बनाने जरुरी हैं। वो अब अक्सर ऐसे कोने खोजने लगा जहां उसका आना-जाना अकेले का होता है। जहां वो सिर्फ एक सिगरेट जलाता है, एक कप चाय पीता है और सामने की दुनिया को टुक-टुक देखता है।

दुनिया जो अपने टेबल पर बैठी दुनिया की बात करती है। दुनिया जो लैंपपोस्ट की पीली रौशनी में भागी चली जाती है। दुनिया जो पुलों को क्रॉस करती चली जाती है- बिना ये सोचे कि उस पुल के नीचे एक नदी है और नदी का एक किनारा है जहां से बैठकर नदी-पुल और खुद को देखा जा सकता है।

वो अक्सर अब ऐसी जगहों में अकेले ही होना चाहता है।
वो जानता है। वो डरता है। वो साझा नहीं करना चाहता। उसे लगता है कि कहीं ये कोना भी यादों में खो न जाये।

क्या तुम्हारे शहर में भी तुम्हारा अपना कोना है? अपना सिर्फ अपना। जिसे तुमने किसी के साथ साझा नहीं किया...जिसे साझा करते हुए तुम्हें डर लगता है.. कहीं वो भी 'कैजुअल' जगह न हो जाये...?

भटक कर चला आना

 अरसे बाद आज फिर भटकते भटकते अचानक इस तरफ चला आया. उस ओर जाना जहां का रास्ता भूल गए हों, कैसा लगता है. बस यही समझने. इधर-उधर की बातें. बातें...