Monday, February 18, 2019

पराये शहर में

रातभर कबीर को सुनते रहने के बाद की सुबह। फरवरी की सुबह। सर्दी में बारिश थोड़ी सी उदासी लेकर गिरता है। मन सोचता है। क्या एकदिन ऐसा आता है जब पराये शहर में रहते हुए हम अपने घर को बिल्कुल भूल जाते हैं?

कि सालों साल दूसरे शहर में जीते हुए हमें याद नहीं रहता हम कहां से आय़े थे..हमारा अपना शहर या गांव का रंग कैसा था..


उस खेत को भूल जाते हैं जहां पहली बार छिपकर बीड़ी पी थी या कि उस गली को जहां जोर से चिल्लाकर प्रेम को स्वीकार किया था। या उस नदी को जहां बैठकर कवितायें पढ़ी थीं और प्रेम को करीब से देखा था।


या कि उस शहर को जहां सबसे ज्यादा तपी हुई जिन्दगी देखी और सारी खुश खबरें भी वहीं सुनी। ये याद रहता है कि खेत में मटर तोड़ते वक्त ओस से पैरों में मिट्टी लग जाती है- एकदम कीचड़ जैसा।

यहां इस पराये शहर में तो हर दिन मेला है। फिर वो अक्टूबर याद आता है? पुजा और मेला का दिन?

शायद नहीं।

अच्छा मुझे लगता है ...खैर जाने दो।

मन क्या चाहता है तु बतायेगा कभी।
मैं हवा में बात करने लगा था। औऱ अब जब ये लिख रहा हूं तो आँखे बेंद कर ली हैं। आंख बंद कर टाइपिंग किये जा रहा हूं। ये क्या कोई टैलेंट है या फिर बीमारी। बीमार औऱ गुलाम। इन की बोर्डस का।


2 comments:

  1. आपका लेखन अद्भुत है जैसे खुद को बिना लिखे पढ़ लिया।

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  2. आपका लेखन अद्भुत है जैसे खुद को बिना लिखे पढ़ लिया।

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