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माँ के पास पहुंच कर |
बॉलकोनी में बैठा हुआ हूं।
चांद दिख रहा है। रात के यही कोई दस बजे हैं। अकेला हूं। कोई नहीं है। पिछले एक
साल से। बिल्कूल अकेला।
खूब घूमता हूं, खूब दुनिया
देखता हूं, खूब खिलखिलाता हूं लेकिन अकेला हूं। अकेले ही ये सब करता चलता हूं।
अपने इस निंतात अकेलेपन में ही माँ के अकेलेपन को फील कर पा रहा हूं।
पिछले पन्द्रह साल से वो
अकेली है। एक घर है। एक पलंग है और मेरी माँ है जो हर रात उस पलंग पर अपने अकेलेपन
को महसूस करते हुए सोती है और हर सुबह चार बजे कुछ गीतों को गाते हुए उठती है। माँ
गीतों में अपने अकेलेपन को खोजती है, शायद इसलिए मैं वैसे ही कुछ शब्दों में अकेलेपन
को टटोलने की कोशिश करता हूं।
माँ अच्छा गाती है, माँ के
गानों में भक्ति और क्रांति दोनों हैं। मेरे पास न तो भक्ति है और न सच्ची
क्रांति। शायद इसलिए माँ को खूबसूरत गाने मिल जाते हैं, मुझे शब्द नहीं मिलते।
जब शब्द नहीं मिलते तो मैं
माँ को याद करता हूं। इतनी रात जब माँ सो रही होगी तो मैं फोन भी नहीं करना चाहता।
जानता हूं उसके अकेलेपन को दूर नहीं कर सकता इसलिए उसकी नींद को खराब नहीं करना
चाहता। वो याद आ रही है। बेतहाशा। बेउम्मीद हुआ जा रहा हूं। माँ के कमरे के उस
पलंग पर दुबारा से जाना चाहता हूं, माँ के बगल में चुपचाप सोना चाहता हूं- सारी
चिंताओं, बेचैनियों, लोगों से दूर एक बेफ्रिक नींद लेना चाहता हूं। फिर से माँ के
गानों से न चाहते हुए भी अपनी सुबह की नींद खराब करना चाहता हूं।
एक दम जनवरी के ठंड में माँ
जब अपने पानी से भींगे हाथ को गालों पर लगाकर सुबह उठाना चाहे मैं फिर से नाराज हो
ठुनक-ठुनक रोना चाहता हूं। हर रात नींद में ही न चाहते हुए भी माँ के डांटों को
सुन गर्म दूध पीना चाहता हूं।
ये सब चाहता हूं। आज। अभी।
इससे पहले नहीं चाहता था। जब पटना में था, कॉलेज कैंपस में। या फिर दिल्ली में
दोस्तों से घिरे होने पर। जब होली में भी घर नहीं गया था। माँ हमेशा यादों के किसी
कोने में बैठी रही लेकिन इतनी शिद्दत से, बेतहाशा बैचेन होकर उन्हें याद नहीं
किया।
आज सिंगरौली में हूं।
बिल्कूल अकेले। एकाध साथ काम करने वाले अच्छे-प्यारे कलीग हैं लेकिन कोई दोस्त
नहीं है। तो माँ को याद कर रहा हूं। उन्हें समझ पा रहा हूं। माँ के तमाम दोस्तों
को शुक्रिया कहने का मन कर रहा है। जानता हूं उन सबसे इतना फॉर्मल रिश्ता नहीं कि
शुक्रिया कहने की जरुरत हो। फिर भी माँ के सारे दोस्तों को सलाम करने को जी करता
है।
सलाम। मेरी माँ के अकेलेपन को बांटने के लिए। आप
सबको मेरी उम्र लगे।
फिलहाल माँ की जरुरत महसूस
हो रही है। सबको मुसीबत में पिता याद आते हैं मुझे माँ।
माँ का कहा याद आ रहा है।
माँ का भरोसा हमेशा साथ रहता है कि जबतक मन का काम मिले करो, जबरदस्ती और अपने
उसूलों से इतर कभी काम मत करना। लौट आना घर। मैं खिलाउंगी बैठा कर। इसी भरोसे चला
जा रहा हूं। बिना किसी ठोस रोडमैप के। बिना किसी करियरिस्टिक माइल स्टोन को गेन
करने की परवाह किए। उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने में रिस्क है, डर लगता है रिस्क
लेने में। लेकिन गीली मिट्टी के रास्तों में मुझे चलना अच्छा लगता है माँ जानती
है। इसलिए भरोसा दे रखा है। उसी भरोसे के दम पर मैं कच्चे सड़क पर चलने की कोशिश
करने में लगा हूं।
माँ नहीं पढ़ेगी कभी मेरे
इस लिखे को। जानता हूं । इसलिए लिख दे रहा हूं।
जब पढ़ेगी तो रोएगी। वैसे
ही जैसे जब मैं उससे मिलकर लौटता हूं अपनी बनायी दुनिया में। वो रोती रहती हैं उस
पार। हफ्तों। मुझे पता है वो बताती नहीं। इधर मैं भी रो रहा हूं। मैं भी माँ को
बताता नहीं।
(शुक्र है माँ-बेटे के बीच
अनकहा ही है ज्यादा कुछ। क्योंकि शब्द मुझे मिलते नहीं)