Saturday, September 28, 2013

Zindagi via Cinema 2


इस बीच घर ने अपने डांट-फटकार के बावजूद भी मेरे सिनेमाई ललक को कम होता न देख वो फैसला लेने पर मजबूर हुआ, जिसने रातों-रात मेरे दोस्तों के बीच मेरा ओहदा काफी उंचा कर गया। एक दिन ठेले पर ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी को अपने दरवाजे चढ़ते देखा, साथ में एक छोटी सी बैटरी भी। आनन-फानन में एक बांस काट कर लाया गया। अंटिना सेट करते हुए मामा को हमलोग बताते रहे- आ गया, झिलमिला रहा है, चला गया जैसे शब्द उस दिन रात तक आंगन में गोल-गोल चक्कर काटते रहे। शुक्रवार की उस रात गांव-टोले भर में बात फैल चुकी थी कि मेरे घर में टीवी आ चुका है। आस-पड़ोस वाले जिनके यहां से काफी घरेलू रिश्ता था हमारा। बड़े ही अधिकार से उस रात साढ़े नौ से पहले ही आ जमे थे। चाय की केतली गरम होने को चढ़ा दी गयी। बड़े-बूढ़ों के लिए कुर्सी और बच्चे जमीन पर। तकरीबन पचास से ज्यादा लोगों की दर्शक-दिर्घा तो रही ही होगी। पहली फिल्म चली- प्रेमरोग। घर थोड़ा बेगूसराय वाले क्रांतिकारी पृष्ठभूमि का तो था ही। फिल्म अंत तक न जाने कितने बूंद आँसू टपकाए। हमें तो लूट लिया- भवरें ने खिलाए फूल-फूल कोई ले गया राजकुमर। टीवी वाला घर बनने की उत्तर-कथा ये हुई कि अब मेरे दोस्त मेरी खुशामद करने लगे, किसी से लड़ाई होने पर उसकी सजा अपने घर टीवी नहीं देखने की धमकी के रुप में दिया जाने लगा, इसी टीवी को देखने का दरवाजा खुलते ही लड़ाई भी खत्म हो जाती। इस तरह सिनेमा हम दोस्तों की लड़ाई और सुलह को तय करने लगा था।
  एक घटना और याद हो चला आता है। एक बार पटना गए थे। जिन रिश्तेदार के यहां रात में रुकना हुआ उनके घर रंगीन टीवी केबल के साथ लगा देखा। पहली बार रंगीन टीवी और उसपर भी रात-दिन सिनेमा आने वाला चैनल जी-सिनेमा। रात भर आवाद धीमी करके टीवी पर सिनेमा देखता रहा था। करिश्मा-गोविंदा-बादशाह-अहले जब चार बजे सुबह के करीब माँ ने कान उमेठ डांटना शुरू किया तब जाकर सोया था उस रात।
   रंगीन टीवी देखने के बाद अपना टीवी कुछ फीका सा लगने लगा। बिहारियों में असुविधाओं के विकल्प खोजने की जबरदस्त ताकत है, जिसे जुगाड़ टेक्नोलॉजी कहते हैं। इस जुगाड़ टेक्नोलॉजी से ही न जाने कितने घरों में गोबर गैस की बत्तियां जलती हैं और न जाने डिल्ली-बम्बई-कलकत्ता में मजे की जिन्दगी भी। तो मैंने भी अपने टीवी को रंगीन करने की ठानी। पटने में ही मिला एक शीशा-चारों तरफ ब्लू..बीच में लाल..और थोड़ा-थोड़ा हरा भी। उस ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पर उपर से चिपका दिया गया। रंगीन टीवी के पूरे मार्केट को ठेंगा दिखाते हमारी ऑनिडा ने भी रंगीन कलर में सिनेमा दिखाने लगी।
डीभीडी और सीडी का हमारे गांव तक आना
उस समय तक डीभीडी काफी प्रचलित था लेकिन धीरे-धीरे डीवीडी और सीडी में बनकर नयी-नयी फिल्में हमारे गांव तक का रास्ता तय करने लगी थी। तमाम तरह के मेले-ठेले, तीज-त्योहार में हम गांव में चंदा करते। कभी ज्यादा पैसे होने पर परदे पर प्रोजेक्टर के सहारे सिनेमा दिखायी जाती। कम पैसे होने पर डीवीडी प्लेयर में सीडी दिखा काम चलाया जाता। हां, एक बात और दोनों ही माध्यमों में पहली फिल्म का धार्मिक विषय होना अनिवार्य सा रहता। देर रात कोई भूतहा फिल्म लगाया जाता।
  ये जिन्दगी सिनेमा के नाम
बेगूसराय के जिस सुदूर दियारा इलाके के गांव से मैं आता हूं। उसके बारे में मशहूर है कि बारह-तेरह साल की उमर में अगर बम फेंकना न सीखे, तमजा खोंस कर चलना न सीखें तो शक की काफी गुंजाईश है कि वो बच्चा उसी गांव का है कि कहीं सरईसा से उठ आया है। तो मैं पांचवी में था। सावन का महीना। अंतिम सोमवारी। गांव से सात किलोमीटर दूर विद्यापति धाम, जहां हर सोमवारी भारी संख्या में लोग जल चढ़ाने आते। स्कूल के दोस्तों ने कहा चलो बाबा के यहां जल चढ़ाते हैं। मैंने मना कर दिया। जानता था जल तो बहाना है असली काम भिडियो हॉल में सिनेमा देखने जाना है। लेकिन दोस्तों को यूं ही कोई कमीना थोड़े न कहता है। बाबा शिव का ऐसा डर दिखाया कि घर का डर एक बार को बहुत टुच्चा सा लगने लगा। आज भी याद है सावन के उस बारिश में केले के पत्ते की ओट में हम भागते-भागते सीधा सिनेमा हॉल ही पहुंचे थे। बाबा को जल चढ़ाने का मतलब था फिल्म आधी छूट जाना इसलिए पोस्टपोन्ड।
फिल्म थी- अर्जून पंडित। सन्नी देओल। शायद पेशे से वकील था। प्यार-मोहब्बत-बदले की कहानी। एक-एक रुपये की टिकट ले हमने जमीन वाली सीट बुक कर ली थी। फिल्म देख घर को लौटे- दरवाजे पर खड़ी वो भीड़ आज भी जस का तस याद है। लगा कोई दुर्घटना हुई। दिल धक्क। जाकर देखा तो माँ रो रही थी। लोग हमें खोजने के लिए चारों तरफ भेज दिए गए थे। अपहरण का अंदेशा था। पिटायी नहीं हुई थी उस दिन। एक खतरनाक चुप्पी थी जिसे हमने रात की रोटी को कुतरते हुए महसूस किया था। सुबह वाली ट्रेन से हमें ननिहाल की तरफ भेजा जा चुका था। ननिहाल। जहां कड़े अनुशासन वाले मामा थे, दिन भर की खबर लेते नाना जी थे। आने वाले पांच साल यहीं बिताने थे मुझे। आज भी सोचता हूं अगर अर्जून पंडित न देखा होता तो शायद मैं भी गांव के अपने दूसरे दोस्तों की तरह कहीं गुमनामी में खड़ा तमचें और बम बनाना सीख रहा होता।
    लेकिन  इन सबके बीच साथ बना रहा तो मेरा सिनेमाई प्रेम। ननिहाल के कड़े अनुशासन वाले माहौल में नौ बजे रात तक रट्टा मार-मार पढ़ना जरुरी होता। फिर खाना और सोना। सिनेमा सिर्फ रविवार की शाम को देखने की इजाजत थी। आज भी याद है शुक्रवार और शनिवार की वो रातें जब अपने कंबल के एक कोने को उठा चुपके-चुपके पूरी फिल्म देखा करता। कभी-कभी तो रात भर कंबल के नीचे सर गोते सिर्फ आवाज के सहारे ही पूरी फिल्म आँखों से गुजर जाती। एक नयी बात ये जरुर हुई कि अब अखबारों और सरस सलिल के माध्यम से फिल्मी खबरें भी पढ़ने को मिलने लगी।
मेरे साथ हमेशा यही होता है जब अपनी यादों की पोटली पसार बैठता हूं तो उसे समेटना मुश्किल सा हो जाता है। मीडिल स्कूल के बाद हाईस्कूल में दाखिला लिया था हमने। सबसे दूर वाले स्कूल में। वजह ये कि वहां फिल्म के दो थियेटर थे। बड़े परदे पर फिल्म देखने की जो ललक दलसिहंसराय में जगी थी उसके पूरे होने के दिन शुरू होने वाले थे। साईकिल से पांच किलोमीटर की रोजाना यात्रा। स्कूल में हाजिरी भी जरुरी होता। पहले हाजिरी बनती। साईकिल हम बाहर ही रख छोड़ते। एक दोस्त स्कूल के बाहर बाउंड्री के पार वाले हिस्से में खड़ा होता। हम धीरे-धीरे अपना बस्ता उधर फेंक देते। फिर एक चाहरदिवारी नुमा छत से नीचे की छलांग। सारा ध्यान साईकिल के पैडल पर। स्पीड..स्पीड...और स्पीड। एक भी सीन छूटना नहीं चाहिए। इस तरह हिन्दी-भोजपुरी फिल्मों के संसार में धड़धड़ाते पहुंच जाते हम। बड़े परदे की फिल्में, कि फिल्म के बीच ब्लेड फेंक देने से पर्दा फटने की कहानियां और न जाने क्या-क्या। चार या पांच रुपये में बेंच पर बैठ कर फिल्म देखने का वह सुख जरुर फिर दोहराना चाहता हूं। सुख का तेज अनुभव उस दिन भी हुआ था जब हमने मैट्रीक की परीक्षा खत्म कर सिनेमा हॉल पहुंचे थे। थोड़े से बड़े होने के सुख ने सामने वाले फिल्मी परदे को भी उस दिन काफी बड़ा कर दिया था।

जारी....

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