Monday, July 20, 2015

अब : अशोक वाजपेजी

मैं अब रहता हूं
निराशा के घर में
उदासी की गली में ।

मैं दुख की बस पर सवार होता हूं
मैं उतरता हूं मैट्रो से
हताशा के स्टेशन पर ।

मैं, बिना आशा, हर जगह
जाता हूँ
मैं कहीं नहीं पहुँचता ।

Sunday, July 19, 2015

आधी रात को

सबकुछ कितना बेवजह है। जैसे ये लिखना। आधी रात लिखने बैठ गया हूं। घोर अकेलेपन से परेशान हो। हालांकि ये अकेलापन कई बार खुद का अर्जित किया हुआ लगता है। जैसे मैंने ही प्रयत्न कर-कर के लोगों को खुद से दूर किया हो। अभी-अभी ब्रेड पिट की फिल्म फ्यूरी खत्म की है। युद्ध की भयानक दास्तां वाली फिल्म। युद्ध की भयानकता जब खत्म हुई तो कमरे में शांति है और जीवन में भी। भयानक शांति। लेकिन जीवन में शांति हमेशा खामोशी की  प्रतीक नहीं होती। कभी-कभी तो इस अकेले की शांति में भयानक शोर सुनायी देता है।
वैसे ही शोर वाला शांति पसरा है कमरे में भी। दो दिन दिल्ली में रहकर माँ वापस लौट गयी है। दोपहर में माँ को छोड़ने गया था। माँ भी अजीब है। एयरपोर्ट के भीतर शीशे की दिवार से तब तक देखती रही जबतक मैं नजरों से ओझल न हो गया। मैं भी थोड़ी देर रुक देखता रहा। भर रास्ते हम में से किसी ने कहा कुछ  नहीं। लेकिन वहां कुछ पल के लिये शीशे के आर-पार हम दोनों ठहर से गए।  बोझिल मन से ही मुड़ना पड़ा। नहीं तो शायद घंटों जमे रह जाते। पीछे मुड़ा तो लगा माँ मेरे पीठ को ताक रही है। पीठ पर नजरों की आहट सी महसूस हुई। अभी भी आँखों के सामने माँ का शीशे के उस पार से ताकने का दृश्य ही  है। फ्लैशबैक में पिछले दो दिन का सारा हिसाब-किताब चल रहा है। ये दो दिन ऐसे गुजरे मानो मुट्ठी में रेत को पकड़ने की कोशिश की गयी हो।
लौटते में एक मन हुआ कि पैदल चला जाय। बारिश में भीगते हुए घर लौटा जाये। शायद, ऐसे ही भीतर की बारिश से बचा जा सकेगा। लेकिन एयरपोर्ट को शहर से दूर खदेड़ दिया गया है। वहां से कोई नहीं लौट पाता पैदल चलकर।
माँ थी तो कमरा घर सा था। किचेन, कमरे का फर्श, बेडशीट, तकिये का कवर, किवाड़ में लटके परदे। सबकुछ घर सा हो गया था दो दिनों के लिये। लेकिन अब वे भी उदास लटके पड़े हैं। दिन में पहने गए कपड़े बेडशीट पर ही पड़े हैं, कमरे में लूढ़कता गेंद एक कोने में चुपचाप दुबका सा है, मेज पर पड़ी दवाईयां- समय पर खाने की मां की हजार हिदायतों के बावजूद झोले में ही रखी है, डायरी, माचिस सब बिना यूज हुए फर्श पर गिरे हैं। ऐसा लगता है न जाने कब से इन चीजों का इस्तेमाल ही नहीं हुआ।
दोपहर बाद एक नये दोस्त से मिलने चला गया। उससे पहले राँची से दोस्त आये। उससे कुछ देर बात हुई। शाम को एक दोस्त ने जीवन के फ्रेम से हटने को कहा- मन टक से रह गया, एक दोस्त ने डिनर पर बुलाया था। एक रुटिन सा गया, लौट आया और … के साथ आज नॉर्मल बातचीत हुई। लेकिन एक तय वक्त के बाद फिर अकेला हो गया।
मन उदास रहा। मैंने आज फिर कहा, मुझे कोई नहीं समझ पाता।
उसने इसे रुटिन की तरह लिया।
एक मन हजार चीजें करने को चाहता है, दूसरा बिल्कुल सपाट पड़े रहने को कहता है। अँधेरे में कुछ देर बैठा रहा। एक धीमी पीली रौशनी कमरे में मौजूद थी। कमरे के पीलेपन ने मन के भारीपन को और बढ़ा दिया है। मैं झट से लाईट ऑन करता हूं।
कई बार लगता है मैं चूक गया हूं। दोस्ती करने में, प्रेम निबाहने में, लिखने में, पढ़ने में……जीने में…….
ये सब क्यों लिख रहा हूं, बेमतलब का। लेकिन दरअसल मुट्ठी एकदम खाली सा लगता है। तो जो ये जिया हुआ आज का वक्त है, दिन का ब्यौरा उसे ही दर्ज करने की कोशिश कर रहा हूं। हां, जानता हूं बेमतलब ही।

Thursday, July 9, 2015

रामविलास चा का किचेन


बैचलर या मर्द किचन का गंध कुछ अलग सा होता है। अधकटे प्याज, हफ्ते भर पहले लाये गए बैंगन, सिंक में पड़े बर्तन, गैस चूल्हे पर छिटक आया दाल, रात का बचा खाना और मैगी-ब्रेड-चूड़ा तक पसरा खाने का संसार।
आज भोपाल के एक बैचलर दोस्त के बड़े से किचेन में जानी-पहचानी गंध महसूस की, जो अरसा पहले बेगूसराय के पार्टी दफ्तर कार्यानंद भवन में महसूस करता था। हम जब-तब बेगूसराय किसी रैली या एक्जाम देने के बहाने जाते रहते। घर से कभी दूध, कभी फटे दूध का पनीर या फिर मलाई जैसा कुछ डब्बे में बंद कर ले जाते। वहां रामविलास चा थे। बीस-तीस साल से जिले के पार्टी नेताओं के खाने-पीने की जिम्मेवारी संभाले।
हमें देखते ही प्यार से बुलाते लेकिन रसोई की व्यवस्था सिर्फ हॉलटाइमरों के लिए होती।
रामविलास चा पूछते- भूखो लगलो हन?
हम कहते- न, घर से खाईये के चलबे करलिअई।
चचा- कै बजे।
हम- 6 बजिया पकड़ के। ( 6 बजे बेगूसराय के लिए पैसेंजर ट्रेन खुलती थी)
चचा- अरे बाप रे। रुक-रुक।
फिर चुपचाप रसोई के भीतर बुलाते। चार-पांच बची हुई रोटी होती, सब्जी कभी बचा देखा नहीं। शायद कॉमरेड लोग सब्जी ज्यादा खाते होंगे या कम बनता ही होगा। (सब्जी चंदा में कम ही मिलता है-गेंहू, चावल इतना नहीं)
फिर हम अपना पनीर-मलाई-दही वाला डब्बा निकालते। चचा और हम साथ-साथ खाते। वो घर-गांव-पार्टी सबका हाल पूछते रहते और हम भी अपनी छोटी-सी समझ के हिसाब से बड़ी-बड़ी बातें बताते रहते।
(ब्लॉग में फिर कभी रामविलास दा और पार्टी दफ्तर पर डिटेल में ....)

Wednesday, July 8, 2015

बारिश वाली रात

शहर के अख़बारों में मानसून के दस्तक देने की सूचना बांटी जा चुकी थी। सुबह से ही बारिश ने शहर को जाम कर रखा था। लड़का दिन भर बारिश को बड़ी ही शिद्दत से महसूस करता रहा था। बारिश। नदी। पहाड़। सागर। ठन्डे आकाश। को देखकर वैसे भी वो रुमानियत से भर उठता।
लेकिन देर रात गए भी जब बारिश ने थमने का नाम न लिया तो लड़का मकान न. 426 के बाहर आकर खड़ा हो गया।
बारिश की तेज फुहारों के बीच। लैंप पोस्ट की गहरी पीली रोशनी। गली में अलगनी पर सूखने के लिये टिंगा एक भीगा रहा शर्ट। दिवाल के सहारे टिका एक बजाज चेतक स्कूटर। सीमेंट की दो चार बोरियों और एक बंद दरवाजे के साथ गली में वो बिलकुल अकेला खड़ा था। 
ऐसे कि अगर कोई अजनबी गुजरे तो भूत समझ भाग खड़ा हो।
अक्सर पीली रौशनी उसे डिप्रेस्ड करता। आसपास बिखरा ढ़ेर सारा पीलापन उसके मन को भारी कर ही देते।
दिन भर जिस बारिश की रुमानियत में वो डूबा रहा था, उसी सेे उसे पहली बार डर सा लगा।
वो बचकर अपने बचपन के तहखाने में दुबक गया। जहाँ बारिश की हज़ार यादें ज़ेहन में तैर गयी...छप्पर वाला वो घर जहां बारिश आते ही माँ पानी टपकने वाली जगहों पर कटोरा रख आती... माँ को पता होता कहाँ कहाँ पानी गिरना है... भीगने के डर से बिस्तर आधे मोड़ दिया जाता। आँगन में पापड़ की तरह काई जम जाते जिसपर वो घंटों स्केटिंग जैसा कोई खेल खेला करता। स्कूल से भीगते हुए घर पहुँच डांट खाता। दरवाजे के घास पर जम गए पानी में कागज की कश्ती उतार दिया करता...और ऐसी ही कई किस्से।

अचानक हवा के एक तेज झोंके से उसके शरीर में ठिठुरन हुई। वो यादों से लौट चूका था। उसने खुद को माकन न. 426 के बाहर खड़ा पाया।
देह से पानी सोखाने के लिए उसने हल्का झटका दिया और वापिस मकान के भीतर चला गया।
उसके बदन से पानी की बूंदों के साथ साथ यादों की पोटली भी झिटक दूर कहीं जाकर गिरी थी।
मोबाइल पर माँ का मेसेज था- बारिश का एक बूंद पानी बाहर नहीं जा रहा आज भी।

Thursday, July 2, 2015

खालीपन को लादे एक दिन

मन के खालीपन का क्या किया जाये? कई दिन ऐसे होते हैं जब मन भारीपन लादे चलता है। बिना किसी वजह। बेमतलब ही खोया रहता है। पूछोगे कहां ? तो उसका पार भी नहीं चलता। बस भारी है तो है। धीरे-धीरे किसी गंभीर बिमारी की तरफ बढ़ने जैसा लगता है। कोई रहस्य है जिसके भीतर पहुंचना है। लेकिन रास्ते के किसी भूल-भूलैया में चक्कर काट रहे हैं।
एक सपाट जीवन जीने में सुख है। बहुत सुख है। आराम भी है। जहां सबकुछ बंधा-बंधाया है। लेकिन कुछ भी नया नहीं। पिछले गुरुवार को भी ऐसा ही दिन था...जो बीत गया था ऐसे ही जैसे आज बीत जाएगा। ऐसे ही अगले हफ्ते भी बीत जाएगा।
मन है कि भाग जाना चाहता है। कभी गाँव की तरफ। खेतों, आम के गाछी (बगान), बाँस के जंगलों, नदी के उस पार दूर बालू की रेतों की तरफ। और जो वहां पहुंचो तो यही मन कहेगा चलो शहर की तरफ। रोशनी, बाजार, स्ट्रीट लाइफ, जगमग जीवन की तरफ।
पटना वाला डेरा कितना अच्छा था। शहर और गाँव के बीच का पड़ाव। दो स्टेशनों के बीच का एक वेटिंग रूम। जिसमें बैठने से पहले पता था कि यहां रुकना नहीं है। चल देना है के भाव के बावजूद उस वेटिंग रूम में बैठने भर की जगह मिल जाने की खुशी किसी भी मंजिल पर पहुंचने से कम नहीं थी। तमाम अभावों, दिक्कतों को झेलते हुए भी एक अजीब सा सुकून था। एक हजार दिक्कतों के बावजूद, उस डेरे में सपने थे। खूब सारे। नये-नये। हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले। जैसा।
खूब सारा संघर्ष था। रोज-ब-रोज जिन्दा रहने की लड़ाई थी। अपना अस्तित्व बचा लेने की कसक। किताबों, अखबारों, पत्रिकाओं के पुलिंदों में दुबके हुए सपनों की तरफ जाने वाले रास्तों को तलाशने की ललक थी।
दोस्त-यार थे। बिना किसी सवाल-जवाब के। हाजिर रहने वाले। बिना कोई मुकदमा चलाये, बिना जजमेंटल हुए साथ-साथ छोटी-छोटी चीजों पर लड़ते-झगड़ते साथ चलते।
बड़े शहरों में मिले दोस्तों की तरह नहीं, जो अपना कटघरा साथ लिये चलते हैं। मौका मिला नहीं कि मुकदमा दायर, फैसला जारी। बड़े शहरों में सबकुछ वक्त के हिसाब से तय होता। आपके कितने दोस्त हैं, ये आपका वक्त तय करेगा, आप किसके दोस्त हैं ये भी आपका वक्त, ओहदा तय करेगा..यहां कुछ भी हम खुद तय नहीं करते, सबकुछ हमारा वक्त, हमारा अच्छा-बुरा तय करता है। 
जीवन के सपाटपन पर लिखते-लिखते कहां बह गया। सुख और दुख के बिताये क्षणों को याद कर नॉस्टेलेजिक हो जाना एक तरह से वर्तमान से भागने जैसा है। उन कोनों में छिपकर बैठ जाने जैसा जहां अँधेरा हो और हम किसी के डर से वहां दुबक गए हों।
और जीवन से ऊब इतनी बढ़ी है कि मन होता है किसी शमशान में जा बैठूं। हफ्तों वहीं बैठा रहूं...जीवन का मर्म हर रोज की दुनिया में रहते हुए तो समझ नहीं आया..

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...