Wednesday, July 8, 2015

बारिश वाली रात

शहर के अख़बारों में मानसून के दस्तक देने की सूचना बांटी जा चुकी थी। सुबह से ही बारिश ने शहर को जाम कर रखा था। लड़का दिन भर बारिश को बड़ी ही शिद्दत से महसूस करता रहा था। बारिश। नदी। पहाड़। सागर। ठन्डे आकाश। को देखकर वैसे भी वो रुमानियत से भर उठता।
लेकिन देर रात गए भी जब बारिश ने थमने का नाम न लिया तो लड़का मकान न. 426 के बाहर आकर खड़ा हो गया।
बारिश की तेज फुहारों के बीच। लैंप पोस्ट की गहरी पीली रोशनी। गली में अलगनी पर सूखने के लिये टिंगा एक भीगा रहा शर्ट। दिवाल के सहारे टिका एक बजाज चेतक स्कूटर। सीमेंट की दो चार बोरियों और एक बंद दरवाजे के साथ गली में वो बिलकुल अकेला खड़ा था। 
ऐसे कि अगर कोई अजनबी गुजरे तो भूत समझ भाग खड़ा हो।
अक्सर पीली रौशनी उसे डिप्रेस्ड करता। आसपास बिखरा ढ़ेर सारा पीलापन उसके मन को भारी कर ही देते।
दिन भर जिस बारिश की रुमानियत में वो डूबा रहा था, उसी सेे उसे पहली बार डर सा लगा।
वो बचकर अपने बचपन के तहखाने में दुबक गया। जहाँ बारिश की हज़ार यादें ज़ेहन में तैर गयी...छप्पर वाला वो घर जहां बारिश आते ही माँ पानी टपकने वाली जगहों पर कटोरा रख आती... माँ को पता होता कहाँ कहाँ पानी गिरना है... भीगने के डर से बिस्तर आधे मोड़ दिया जाता। आँगन में पापड़ की तरह काई जम जाते जिसपर वो घंटों स्केटिंग जैसा कोई खेल खेला करता। स्कूल से भीगते हुए घर पहुँच डांट खाता। दरवाजे के घास पर जम गए पानी में कागज की कश्ती उतार दिया करता...और ऐसी ही कई किस्से।

अचानक हवा के एक तेज झोंके से उसके शरीर में ठिठुरन हुई। वो यादों से लौट चूका था। उसने खुद को माकन न. 426 के बाहर खड़ा पाया।
देह से पानी सोखाने के लिए उसने हल्का झटका दिया और वापिस मकान के भीतर चला गया।
उसके बदन से पानी की बूंदों के साथ साथ यादों की पोटली भी झिटक दूर कहीं जाकर गिरी थी।
मोबाइल पर माँ का मेसेज था- बारिश का एक बूंद पानी बाहर नहीं जा रहा आज भी।

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