Wednesday, October 15, 2014

हुदहुद के बहाने जलवायु परिवर्तन की घमक



जलवायु परिवर्तन से युद्ध स्तर पर निपटने की जरुरत

पिछले डेढ़ साल में तीसरी बार भारत एक बार फिर से प्राकृतिक आपदा के चपेट में आया है। इस बार यह आपदा समुद्री तुफान हुदहुद के रुप में आया था, जिससे आंध्र प्रदेश, ओडिशा के तटीय इलाके बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। हालांकि अच्छी बात यह है कि इस बार भारतीय मौसम विभाग के द्वारा समय रहते की गई घोषणा और राज्य सरकार के द्वारा बरती गयी मुस्तैदी की वजह से हुदहुद से आम जनजीवन उतना प्रभावित नहीं हुआ जितना होने की आशंका जतायी जा रही थी, लेकिन फिर भी इस तुफान की वजह से सिर्फ आंध्र प्रदेश में राजस्व विभाग के अनुसार पांच लोगों की मौत और कुल 2,48,004 लोग प्रभावित हुए हैं। इससे 70 मकों को भी नुकसान पहुंचा है और 34 पशु मारे गए हैं। इसी तरह दूसरे राज्यों में भी करोड़ों की सरकारी और निजी संपत्ति का नुकसान हुआ है।
बीते महीने जम्मू-कश्मीर को भी इसी तरह बाढ़ के प्रकोप का सामना करना पड़ा है, जिससे लगभग हजारों करोड़ संपत्ति का नुकसान हुआ और लाखों लोगों की जिन्दगी प्रभावित हुई है। अभी हाल ही में अमेरिकी मौसम विज्ञान सोसाइटी ने उत्तराखंड आपदा पर एक रिपोर्ट जारी किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड आपदा आदमी जनित जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। पिछले साल जून में उत्तराखंड में आयी भयानक बारिश को उन 16 चरम मौसम घटनाओं में से एक माना गया है जो जलवायु परिवर्तन की वजह से होते हैं। यह शायद पहली बार है जब भारत में हुए किसी भी खास प्राकृतिक आपदा को  जलवायु परिवर्तन के परिणाम के रुप में बताया गया है। सामान्यतः वैज्ञानिकों में भी जलवायु परिवर्तन को लेकर एक मत का अभाव ही देखा जाता है। वहीं, दूसरी तरफ सरकार का नजरिया भी जलवायु परिवर्तन को लेकर उपेक्षा का ही रहा है।
इससे पहले भी संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत आने वाली आईपीसीसी की रिपोर्ट में भी जलवायु परविर्तन की वजह से भारी बारिश, सूखा, भूकंप और बाढ़ की घटनाओं के बढ़ने की संभावना जतायी जा चुकी है। फरवरी में प्रकाशित आईपीसीसी की रिपोर्ट में भारत जैसे एशियाई देशों को इसके लिये विशेष तौर पर आगाह भी किया गया है।
अक्सर यह देखा जाता है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा के बाद सरकारी अमला आनन-फानन में कार्यशील हो जाती है और कोशिश की जाती है कि लोगों को कम से कम नुकसान उठाना पड़े। चाहे वो उत्तराखंड में आया भूकंप हो या फिर जम्मू-कश्मीर में आयी बाढ़ या फिर हुदहुद। सभी मामलों में सरकार द्वारा राहत कार्यों के लिये भारी-मरकम राशि की घोषणा की गयी, लेकिन वहीं दूसरी तरफ सरकार, मीडिया और समाज में इन प्राकृतिक आपदाओं से पहले की तैयारी पर न तो कोई ठोस पहल होती दिख रही है और न ही इस पर बहस किया जा रहा है।
लद्दाख में बादल फटने की घटना के बाद से, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और अब हुदहुद जैसे प्राकृतिक आपदाओं को झेलने के बाद भारत को सबक लेने की जरुरत है। यह सबसे सही वक्त है जब देश भर में प्राकृतिक आपदाओं से पहले बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में बात की जाय, जलवायु परिवर्तन की चेतावनियों को गंभीरता से लिया जाय। भारत के 84 जिलों, 13 राज्यों में तटीय शहर फैले हुए हैं, जहां लगभग देश की 25 प्रतिशत आबादी निवास करती है। इन तटीय शहरों को अपने विकास योजनाओं में जलवायु जोखिम प्रबंधन रणनीति अपनाने की जरुरत है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक पिछले 270 सालों में 23 प्रमुख साइक्लोन में जिसमें लगभग 10 हजार लोगों की जान गयी है में से 21 साइक्लोन भारत और बंगालदेश के आसापस ही घटित हुआ है। भारत के सारे शहरों में जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों से निपटने के लिये कोई योजना नहीं है। न तो पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिये कोई ठोस योजना तैयार की गयी है। ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जलवायु परिवर्तन या ऐसे किसी कारणों से होने वाली घटनाओं के लिये राज्य सरकार केन्द्र सरकार के सहारे बैठ जाती है, जबकि राज्य सरकारों को चाहिए कि वो खुद के स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिये ठोस नीतियों को लागू करे। साथ ही, विकास के वर्तमान मॉडल में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को लेकर भी एक सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ने की जरुरत है। यह नहीं हो सकता कि एक तरफ जंगलों को काटकर आर्थिक विकास की गति को तो तीव्र किया जाय वहीं दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा और पर्यावरण के मसले पर महज औपचारिक कदम उठाये जाये। इन सबके बीच सबसे अहम बात यह भी है कि अक्सर ऐसे किसी भी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से सबसे ज्यादा गरीब, कम सुविधा संपन्न तबका ही प्रभावित होता है, जिनकी संख्या हमारे देश में सबसे ज्यादा है। पर्यावरण संरक्षण की योजनाओं को युद्ध स्तर पर लागू न करके हम आने वाले समय में कई नये तरह के प्राकृतिक आपदाओं को ही निमंत्रण देंगे।


बेकाबू

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