Monday, September 30, 2013

अपने भरोसे

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब सात सौ किलोमीटर दूर सिंगरौली जिले में एक महान का जंगल है। इस जंगल को सरकार ने कोयला खदान के लिए चिह्नित कर दिया है। करीब बासठ गांवों के एक लाख से ज्यादा लोग अपनी जीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं। फिलहाल कंपनी (हिंडाल्को और एस्सार का संयुक्त उपक्रम महान कोल लिमिटेड) को छत्तीस शर्तों के साथ पर्यावरण मंत्रालय ने पहले चरण की इजाजत दे दी है, इसमें वनाधिकार कानून 2006 की शर्तें भी लागू होंगी।
वनाधिकार कानून कहता है कि सदियों से जंगल पर अपनी जीविका के लिए निर्भर लोगों का ही जंगल पर अधिकार है। इसलिए ग्रामसभा की अनुमति के बिना जंगल को निजी कंपनियों को नहीं दिया जा सकता है। लेकिन कंपनी और स्थानीय प्रशासन ने बिना निष्पक्ष ग्राम सभा आयोजित करवाए ही मुआवजा के नाम पर जंगल में महुआ पेड़ों की ‘मार्किंग’ करना शुरू कर दिया। ग्रामीणों द्वारा विरोध किए जाने पर प्रशासन ने पुलिस बल बुला लिया। हालात की गंभीरता को समझते ही गांव की महिलाएं आगे आ गर्इं और मोर्चा संभाल लिया।
अमिलिया गांव की निवासी कांति सिंह खैरवार उन महिलाओं में शामिल हैं, जिन्होंने जंगल में अवैध रूप से की जा रही मार्किंग का विरोध किया। कांति अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं कि तहसीलदार साब लोग कहे कि कंपनी को बैठने दिए तो पांव पसार रही है। (महान कोल लिमिटेड के पास ही एस्सार पावर प्लांट भी स्थापित है)। हमलोग कहे कि हमलोग न कंपनी को बैठने दिए, न पैर पसारने देंगे। इस पर तहसीलदार बोले कि कोयला खनन होगा। तुमलोगों का जंगल नहीं है। सरकार का जंगल है और तुमलोग इसको रोक नहीं सकते। लेकिन हम पूछते हैं कि जब जनता का जंगल पर कोई अधिकार ही नहीं है, तो काहे सरकार महुआ के पेड़ का मुआवजा हमलोग को देना चाह रही है।
गांव की एक और महिला समिलिया साफ लहजे में कहती हैं कि हमारा गुजर जंगल में है। वहीं से हमलोग जी रहे हैं। हमको न तो पुलिस से मतलब है, न पटवारी और तहसीलदार से। हम अपना जंगल जानते हैं, जहां
पुरखों से हम जी रहे हैं। हम जंगल नहीं छोड़ेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए। जंगल के बिना जीने की कल्पना करने से भी डरने वाली मनकुमरी देवी सीधा हिसाब जोड़ती हैं- ‘महुआ पत्ता, तेंदु, चाड़ और नहीं कुछ मिला तो जंगली लकड़ी। इन सबसे घर-परिवार के गुजर-बसर के लिए हम पैसा कमा लेते हैं।’ मेरे नोटबुक की ओर इशारा करते हुए मनकुमरी कहती हैं कि ‘लिख दीजिए कि हमलोग लड़ेंगे। इ जंगल हमारा राजा है। बाप-माई सब इ जंगले है। नहीं छोड़ेंगे।’
मनकुमरी देवी की बात को बीच में ही काटने वाली सुकमरिया देवी की चिंता थोड़ी अलग है। उन्हें डर है कि कहीं कंपनी और जंगल विभाग के द्वारा महुआ के पेड़ों की नंबरिंग और मार्किंग के नाम पर काटने-छिलने से नुकसान न पहुंचे। वह सीधी-सी बात बताती हैं- ‘कंपनी रुपया देकर गांव के अमीर लोग को खरीद सकती है, हम गरीब अपने जंगल के कोई कीमत नहीं लगा सकते हैं। कंपनी के पैसे से हमारा गुजर-बसर नहीं हो सकता। इसलिए हमको अपना जंगल चाहिए। बस!’ इन्हीं महिलाओं में से किसी ने जाते-जाते कहा- ‘हम लड़ने जाएंगे। किसी से डरते नहीं हैं। न दलाल, न कंपनी और न प्रशासन। पुरुष जाएं या नहीं जाएं, हम लड़ने जाएंगे। जरूर!’
दिल्ली से भोपाल तक समाज में महिलाओं की स्थिति पर बहस छिड़ी हुई है। समाज में महिलाओं की कमजोर स्थिति पर बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं। साहित्य से लेकर अकादमिक बहसों तक में हर रोज स्त्री-विमर्श पर एक नया अध्याय जोड़ा जा रहा है। ठीक इसी दौर में इन विमर्शों और बहसों से दूर महान जंगल में अपने जंगल-जमीन को बचाने के लिए आंदोलन कर रही आदिवासी महिलाएं स्त्री-विमर्श को नया आयाम दे रही हैं। यह अलग बात है कि मध्यवर्ग में केंद्रित देश और राज्यों की राजधानियों में चल रहे स्त्री-विमर्श के सेमिनारों में इन आदिवासी महिलाओं की लड़ाई के लिए कोई जगह नहीं है।

( यह लेख जनसत्ता में छप चुका है- यहां पढ़ सकते हैं)

Saturday, September 28, 2013

पड़ोसी 2


आँगन के अहाते में
रस्सी पे टँगे कपड़े
अफ़साना सुनाते हैं
एहवाल बताते हैं
कुछ रोज रुठाई के,
माँ बाप के घर रह कर
फिर मेरे पड़ोसी की
बीवी लौट आयी है।

दो चार दिनों में फिर,
पहले सी फिज़ा होगी,
आकाश भरा होगा,
और रात को आँगन से
कुछ कॉमेट गुज़रेंगे।
कुछ तश्तरियां उतरेंगी।
Gulzar

Zindagi via cinema part 3

(कहानी के इस अंतिम भाग को सबसे अंत में ही पढ़े...पार्ट वन, पार्ट टू और पार्ट थ्री..)
हाईस्कूल के बाद बेगूसराय शहर के एक लॉज में ठिकाना बना। लॉज भी एक दम दीपशिखा (शहर का सबसे सस्ता सिनेमाहॉल) के पास लिया गया था। कभी घर को फोन करके तो कभी बिना बताए ही। हम सिनेमा हॉल जाते रहते। कभी ना-नु करने पर लॉज के दोस्तों का रेडिमेड तर्क तैयार रहता- दिन भर पढ़ो और रात को तो सोना ही है तो उस टाइम में फिल्म देख लो। स्पेशल, डीसी, बीसी। ज्यादातर स्पेशल ही देखते। ब्लैक में टिकट लेने की न तो हिम्मत थी न पैसे। हमेशा घंटों लाइन में खड़ा हो ही टिकट लिया है- स्पेशल वालों की लाइन में भीड़ हमेशा ज्यादा होती। एक बार स्पेशल (सबसे सस्ता) वाले लाइन  में खड़ा क्लास की एक लड़की ने देख लिया था। उसका तो नहीं पता लेकिन मैं लगभग टिकट खिड़की के पास पहुंच कर लौट आया था। एक धक्का सा लगा था स्टेट्स सिंबल पर। आजतक स्पेशल में लड़कियों का जाना खराब और असुरक्षित सा माना जाता है। हां, संडे को जरुर मॉर्निंग शो में स्टूडेंट पास लेकर बीसी टिकट पर सिनेमा देखता था। ये जिश्म, जहर, क्योंकि, हम आपके हैं कौन, ताल जैसे फिल्मों का दौर था।
सोचता हूं अगर ये पार्टनरशिप नहीं होता तो हम जैसे बिहारी लड़कों का क्या होता... कई बार पैसे न होने पर पार्टनरशिप में फिल्में भी देखी है बेगूसराय के उस विष्णु नगर वाले मोहल्ले में। दो लोग तैयार होते। एक ही टिकट पर दो लोग देखते सिनेमा। इंटरवल से पहले और बाद में बंटा था। सिनेमा के बाद दोनों आपस में बैठ एक-दूसरे को कहानी बता फिल्म पूरी करते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि जो दोस्त आधे पैसे लेकर फिल्म देखने गया वो इंटरवल के बाद निकला ही नहीं। कई दिनों तक आपस में तनातनी बनी रही। कई बार लॉज का कोई पैसे वाला बोरिंग फिल्म देखने चला जाता। बीच फिल्म से टिकट ले लौट आता। वो टिकट जिसके हाथ लगी वो उस दिन मुकद्दर का सिंकदर बना घूमता।
सिनेमा ने फिर जिन्दगी को मोड़ा
बेगूसराय घर के संपर्क में रहता था। चुपके से लगता है घर को बता आया मेरे फिल्म देखते जाने और बिगड़ते जाने की कहानी। घर को लगा लड़के को पटने भेजते हैं शायद सुधर जाय। बड़ा शहर आपको बड़े सपने दिखाता है घर वालों ने शायद सोचा होगा। मेरे लिए बड़ा शहर मतलब और भी ज्यादा बड़े परदे पर सिनेमा देखने का लोभ मात्र था। पटने में अशोका-राजधानी का गौरव हुआ करता था। लेकिन पहली फिल्म इमरान हाशमी की देखी थी- अक्सर, रिजेन्ट में। बोरिंग रोड से गांधी मैदान फिर वही पैडल मारते साईकिल पर सवार। नाइट शो और लॉज के गेट फांदने का चस्का तो बेगूसराय में लगा लिया था।
ब्लैक में बेचे हैं टिकट मैंने
अशोक में पच्चीस रुपये स्पेशल का रेट था। लाइन में करीब दो घंटे पहले तो लग ही जाना होता। एक बार रब ने बना दी जोड़ी के लिए लाइन में लगे हुए थे। एक आदमी को सिर्फ तीन टिकट देना अलाउ था। मेरी बारी आई तो किसी ने पीछे से कहा- भैया, आप अकेले हैं, दो मेरे लिए भी ले लीजिए। मैंने ले भी लिया लेकिन उस आदमी को टिकट दिया नहीं- हड़काया। मुझे क्या फायदा होगा। उस आदमी ने जल्दी से पच्चीस वाले टिकट के लिए पचास हाथ में थमा दिया। दो टिकट के सौ रुपये। मतलब खुद की सिनेमा फ्री तो देखो ही साथ ही, खाते-पीते रहने का इंतजाम भी। इसके बाद कई ऐसी फिल्में देखी जिसमें खुद और दोस्तों को फ्री में सिनेमा दिखला लाया। यह नयाब तरीका उन दिनों सिनेमा देखने के लिए वरदारन बनकर आया था मेरे लिए।
एक बार घर से भागने का मन हो गया। लगा इस दुनिया में जीना है तो घर से भागना ही पड़ेगा। बिना बताये निकल गया पटना के डेरा से। डेरा में भाई और मामा के साथ रहता था। दिन भर घूमता सोचता रहा। इस बीच महावीर मंदिर पर जाकर दो घंटे बैठ आया। वहीं से अशोका फिल्म देखने आ गया- चक दे इंडिया। फिल्म पूरी होते-होते भागना कायरपना लगने लगा। फिल्म देख गांधी मैदान आया सीधे। डायरी में कुछ पन्ने लिखे। कुछ मन में ठाना और शाम तक डेरा लौट गया। फिल्में हमारी जिन्दगी में कब हौले से आ बैठ जाती हैं हमें इल्म तक नहीं हो पाता।
अब पटने से निकल गया हूं। दिल्ली के दिनों में वसंत विहार प्रिया में कई बार मॉर्निंग शो देखने जाता रहा। दिल्ली में ही कई विदेशी फिल्मों का चश्का लगा। ईरानी माजिद मजीद जैसे कई बड़े फिल्मकारों से भेंट हुई वाया सिनेमा। आईआईएमसी और जेएनयू के दोस्तों की बदौलत सिनेमाई ज्ञान में अब बुद्धिजीविता आ गयी है। अब चेन्नई एक्सप्रेस अच्छी नहीं लगती। दिवाकर और अनुराग के शॉर्ट फिल्में काफी पसंद आती हैं। इधर लूटेरा और मद्रास कैफे देख मन गदगद है। कई बार बौद्धिक बनने के लिए नांनटिज की फिल्मों को कूड़ा-करकट तक कह देता हूं लेकिन आज भी दूरदर्शन पर देखी वो फिल्में कहीं भीतर अंदर फंसी हुई हैं।
फिलहाल पसंदीदा फिल्मों या यादगार फिल्मों की फेहरिस्त काफी लंबी होने के बावजदू भी कुछ नाम रख दे रहा हूं-
अर्जून पंडित- वजह पूरे पांच साल तक मेरे जिन्दगी की जगह ही बदल कर रख दी। शायद आदमी भी बन पाया।
चक दे इंडिया- जिसको देखने के बाद घर छोड़ने का प्रोग्राम कैंसल किया। भागो नहीं दुनिया बदलो की ठानी है।
गोलमाल- जितनी बार देखता हूं उतनी बार तारोताजा
चश्मे बद्दुर- एक ऐसी फिल्म जिसे सौ बार लगातार देख सकता हूं।
द डिक्टेटर- चार्ली की हँसी के पीछे छिपे दर्द को उकेरने वाली शानदार फिल्म
चिल्ड्रेन ऑव हैवन्स, ब्यूटीफूल चिल्ड्रेन- बच्चों के बहाने ईरानी जिन्दगी और तकलीफों को चित्र की तरह कैनवास पर उकेर देने के लिए
मोटरसाईकिल डायरिज- कॉमरेड चे की कहानी
लूटेरा- बेहतरीन..बेहतरीन...बेहतरीन
मद्रास कैफे- हिन्दी फिल्मों का विदेश
हंगामा
हेरी फेरी
दो गज जमीन


Zindagi via Cinema 2


इस बीच घर ने अपने डांट-फटकार के बावजूद भी मेरे सिनेमाई ललक को कम होता न देख वो फैसला लेने पर मजबूर हुआ, जिसने रातों-रात मेरे दोस्तों के बीच मेरा ओहदा काफी उंचा कर गया। एक दिन ठेले पर ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी को अपने दरवाजे चढ़ते देखा, साथ में एक छोटी सी बैटरी भी। आनन-फानन में एक बांस काट कर लाया गया। अंटिना सेट करते हुए मामा को हमलोग बताते रहे- आ गया, झिलमिला रहा है, चला गया जैसे शब्द उस दिन रात तक आंगन में गोल-गोल चक्कर काटते रहे। शुक्रवार की उस रात गांव-टोले भर में बात फैल चुकी थी कि मेरे घर में टीवी आ चुका है। आस-पड़ोस वाले जिनके यहां से काफी घरेलू रिश्ता था हमारा। बड़े ही अधिकार से उस रात साढ़े नौ से पहले ही आ जमे थे। चाय की केतली गरम होने को चढ़ा दी गयी। बड़े-बूढ़ों के लिए कुर्सी और बच्चे जमीन पर। तकरीबन पचास से ज्यादा लोगों की दर्शक-दिर्घा तो रही ही होगी। पहली फिल्म चली- प्रेमरोग। घर थोड़ा बेगूसराय वाले क्रांतिकारी पृष्ठभूमि का तो था ही। फिल्म अंत तक न जाने कितने बूंद आँसू टपकाए। हमें तो लूट लिया- भवरें ने खिलाए फूल-फूल कोई ले गया राजकुमर। टीवी वाला घर बनने की उत्तर-कथा ये हुई कि अब मेरे दोस्त मेरी खुशामद करने लगे, किसी से लड़ाई होने पर उसकी सजा अपने घर टीवी नहीं देखने की धमकी के रुप में दिया जाने लगा, इसी टीवी को देखने का दरवाजा खुलते ही लड़ाई भी खत्म हो जाती। इस तरह सिनेमा हम दोस्तों की लड़ाई और सुलह को तय करने लगा था।
  एक घटना और याद हो चला आता है। एक बार पटना गए थे। जिन रिश्तेदार के यहां रात में रुकना हुआ उनके घर रंगीन टीवी केबल के साथ लगा देखा। पहली बार रंगीन टीवी और उसपर भी रात-दिन सिनेमा आने वाला चैनल जी-सिनेमा। रात भर आवाद धीमी करके टीवी पर सिनेमा देखता रहा था। करिश्मा-गोविंदा-बादशाह-अहले जब चार बजे सुबह के करीब माँ ने कान उमेठ डांटना शुरू किया तब जाकर सोया था उस रात।
   रंगीन टीवी देखने के बाद अपना टीवी कुछ फीका सा लगने लगा। बिहारियों में असुविधाओं के विकल्प खोजने की जबरदस्त ताकत है, जिसे जुगाड़ टेक्नोलॉजी कहते हैं। इस जुगाड़ टेक्नोलॉजी से ही न जाने कितने घरों में गोबर गैस की बत्तियां जलती हैं और न जाने डिल्ली-बम्बई-कलकत्ता में मजे की जिन्दगी भी। तो मैंने भी अपने टीवी को रंगीन करने की ठानी। पटने में ही मिला एक शीशा-चारों तरफ ब्लू..बीच में लाल..और थोड़ा-थोड़ा हरा भी। उस ऑनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पर उपर से चिपका दिया गया। रंगीन टीवी के पूरे मार्केट को ठेंगा दिखाते हमारी ऑनिडा ने भी रंगीन कलर में सिनेमा दिखाने लगी।
डीभीडी और सीडी का हमारे गांव तक आना
उस समय तक डीभीडी काफी प्रचलित था लेकिन धीरे-धीरे डीवीडी और सीडी में बनकर नयी-नयी फिल्में हमारे गांव तक का रास्ता तय करने लगी थी। तमाम तरह के मेले-ठेले, तीज-त्योहार में हम गांव में चंदा करते। कभी ज्यादा पैसे होने पर परदे पर प्रोजेक्टर के सहारे सिनेमा दिखायी जाती। कम पैसे होने पर डीवीडी प्लेयर में सीडी दिखा काम चलाया जाता। हां, एक बात और दोनों ही माध्यमों में पहली फिल्म का धार्मिक विषय होना अनिवार्य सा रहता। देर रात कोई भूतहा फिल्म लगाया जाता।
  ये जिन्दगी सिनेमा के नाम
बेगूसराय के जिस सुदूर दियारा इलाके के गांव से मैं आता हूं। उसके बारे में मशहूर है कि बारह-तेरह साल की उमर में अगर बम फेंकना न सीखे, तमजा खोंस कर चलना न सीखें तो शक की काफी गुंजाईश है कि वो बच्चा उसी गांव का है कि कहीं सरईसा से उठ आया है। तो मैं पांचवी में था। सावन का महीना। अंतिम सोमवारी। गांव से सात किलोमीटर दूर विद्यापति धाम, जहां हर सोमवारी भारी संख्या में लोग जल चढ़ाने आते। स्कूल के दोस्तों ने कहा चलो बाबा के यहां जल चढ़ाते हैं। मैंने मना कर दिया। जानता था जल तो बहाना है असली काम भिडियो हॉल में सिनेमा देखने जाना है। लेकिन दोस्तों को यूं ही कोई कमीना थोड़े न कहता है। बाबा शिव का ऐसा डर दिखाया कि घर का डर एक बार को बहुत टुच्चा सा लगने लगा। आज भी याद है सावन के उस बारिश में केले के पत्ते की ओट में हम भागते-भागते सीधा सिनेमा हॉल ही पहुंचे थे। बाबा को जल चढ़ाने का मतलब था फिल्म आधी छूट जाना इसलिए पोस्टपोन्ड।
फिल्म थी- अर्जून पंडित। सन्नी देओल। शायद पेशे से वकील था। प्यार-मोहब्बत-बदले की कहानी। एक-एक रुपये की टिकट ले हमने जमीन वाली सीट बुक कर ली थी। फिल्म देख घर को लौटे- दरवाजे पर खड़ी वो भीड़ आज भी जस का तस याद है। लगा कोई दुर्घटना हुई। दिल धक्क। जाकर देखा तो माँ रो रही थी। लोग हमें खोजने के लिए चारों तरफ भेज दिए गए थे। अपहरण का अंदेशा था। पिटायी नहीं हुई थी उस दिन। एक खतरनाक चुप्पी थी जिसे हमने रात की रोटी को कुतरते हुए महसूस किया था। सुबह वाली ट्रेन से हमें ननिहाल की तरफ भेजा जा चुका था। ननिहाल। जहां कड़े अनुशासन वाले मामा थे, दिन भर की खबर लेते नाना जी थे। आने वाले पांच साल यहीं बिताने थे मुझे। आज भी सोचता हूं अगर अर्जून पंडित न देखा होता तो शायद मैं भी गांव के अपने दूसरे दोस्तों की तरह कहीं गुमनामी में खड़ा तमचें और बम बनाना सीख रहा होता।
    लेकिन  इन सबके बीच साथ बना रहा तो मेरा सिनेमाई प्रेम। ननिहाल के कड़े अनुशासन वाले माहौल में नौ बजे रात तक रट्टा मार-मार पढ़ना जरुरी होता। फिर खाना और सोना। सिनेमा सिर्फ रविवार की शाम को देखने की इजाजत थी। आज भी याद है शुक्रवार और शनिवार की वो रातें जब अपने कंबल के एक कोने को उठा चुपके-चुपके पूरी फिल्म देखा करता। कभी-कभी तो रात भर कंबल के नीचे सर गोते सिर्फ आवाज के सहारे ही पूरी फिल्म आँखों से गुजर जाती। एक नयी बात ये जरुर हुई कि अब अखबारों और सरस सलिल के माध्यम से फिल्मी खबरें भी पढ़ने को मिलने लगी।
मेरे साथ हमेशा यही होता है जब अपनी यादों की पोटली पसार बैठता हूं तो उसे समेटना मुश्किल सा हो जाता है। मीडिल स्कूल के बाद हाईस्कूल में दाखिला लिया था हमने। सबसे दूर वाले स्कूल में। वजह ये कि वहां फिल्म के दो थियेटर थे। बड़े परदे पर फिल्म देखने की जो ललक दलसिहंसराय में जगी थी उसके पूरे होने के दिन शुरू होने वाले थे। साईकिल से पांच किलोमीटर की रोजाना यात्रा। स्कूल में हाजिरी भी जरुरी होता। पहले हाजिरी बनती। साईकिल हम बाहर ही रख छोड़ते। एक दोस्त स्कूल के बाहर बाउंड्री के पार वाले हिस्से में खड़ा होता। हम धीरे-धीरे अपना बस्ता उधर फेंक देते। फिर एक चाहरदिवारी नुमा छत से नीचे की छलांग। सारा ध्यान साईकिल के पैडल पर। स्पीड..स्पीड...और स्पीड। एक भी सीन छूटना नहीं चाहिए। इस तरह हिन्दी-भोजपुरी फिल्मों के संसार में धड़धड़ाते पहुंच जाते हम। बड़े परदे की फिल्में, कि फिल्म के बीच ब्लेड फेंक देने से पर्दा फटने की कहानियां और न जाने क्या-क्या। चार या पांच रुपये में बेंच पर बैठ कर फिल्म देखने का वह सुख जरुर फिर दोहराना चाहता हूं। सुख का तेज अनुभव उस दिन भी हुआ था जब हमने मैट्रीक की परीक्षा खत्म कर सिनेमा हॉल पहुंचे थे। थोड़े से बड़े होने के सुख ने सामने वाले फिल्मी परदे को भी उस दिन काफी बड़ा कर दिया था।

जारी....

Zindagi via Cinema part 1

सिंगरौली की उस शाम हम सभी जंगल से लौटे ही थे। नियम सा है कि गांव से लौट सबलोग अपने-अपने इस बक्सेनुमा लैपटॉप में घुस सा जाते हैं। दरअसल, सिंगरौली जैसे जगह में बैठे-बैठे ही हम बाहरी दुनिया वालों से खुद को आसानी से जोड़ने के मोह से ग्रस्त होते हैं। उस दिन बैठे-बैठे मैंने अपनी जिन्दगी के पन्ने उलटने शुरू किए वाया सिनेमा। सिनेमा और मेरी जिन्दगी इतनी जुड़ी होगी पहले से पता तो न था।
जिन्दगी वाया सिनेमा कुछ किश्तों में---- (पहली किश्त)

 
चवन्नी चैप में हिन्दी टाकीज पढ़ रहा था। इधर मैं ओल्ड पोस्ट पर क्लिक करता  जा रहा था उधर बचपन से लेकर अबतक सिनेमा देखी अनुभव का रील भी घूमता चलता रहा। पहली बार किसी हॉल में सिनेमा कहां देखा-सोचता हूं तो फ्लैश बैक में  दलसिंहसराय (समस्तीपुर का एक कस्बा) का वो हॉल चला आता है शायद मोहरा फिल्म रही होगी लेकिन  रजा मुराद जैसी कोई भारी आवाज भी साथ में सुनाई देती है। चाह कर भी बचपन की वो पहली याद किसी हिरोईन के डांस और उस भारी आवाज से आगे नहीं जा पाती। माँ की एक दोस्त थीं- हमलोग दोस्तीनी चाची बुलाते थे-उन्हीं के ईलाज के लिए दलसिंहसराय गए थे। तभी आज भी उस याद में माँ के हाथों को पकड़ सिनेमाहॉल जाने का फोटो बचा रह गया है और सिनेमाहॉल जाने का उत्साह भी।
    इसके बाद काफी अरसा सिनेमाहॉल दिखा नहीं। गांव में टीवी इक्का-दुक्का घरों में ही लग पाया था। हर रविवार डीडी पर शाम चार बजे। हफ्ते भर हम इंतजार करते रहते। साढ़े तीन बजे तक टीवी वाले के घर पर हम दोस्तों की टोली पहुंचनी शुरू हो जाती। आधे घंटे पहले आने की हिदायत  टीवी मालिक की तरफ से विशेष रुप से दी गयी थी। वजह, उन आधे घंटों में हमें बैठने के लिए जमीन पर अपनी सीट तलाशनी होती और साथ ही, टीवी मालिक-दर्शकों को कुत्ते-बिल्ली-खिखिर और न जाने किन-किन जानवरों की आवाज निकाल मनोरंजन करना पड़ता। गांव में बिजली नहीं है। हर शुक्रवार को टीवी मालिक साईकिल के करियर में बैटरी बांध बजार से चार्ज करा लाते। शुक्रवार से रविवार तक फिल्म देखने का साप्ताहिक कार्यक्रम होता-बैटरी इतने दिनों के लिए चार्ज होते रहते। तो बैटरी वाले उस टीवी-सिनेमाई युग में हर ब्रेक के बीच टीवी को ऑफ कर दिया जाता- बैटरी की खपत कम करने वास्ते। हर ब्रेक के बाद टीवी तभी ऑन होता जब हममें से कोई (जिसे टीवी मालिक चुनता) उस कुत्ते-बिल्ली-खिखिर की आवाज नहीं निकाल लेता। अगर कोई आवाज न निकालने को अड़ जाता तो टीवी भी ऑन नहीं होता। ऐसे समय हमलोगों की खुशामद पर ही वो दोस्त आवाज निकालने को राजी होता और फिर सिनेमा आगे बढ़ायी जाती। जाड़े के दिनों में शाम छह बजे तक काफी अँधेरा हो जाता- आज भी याद है कोई ऐसी रविवार वाली रात नहीं गुजरती जब हमें मार न पड़ी हो।
   शनिवार को दोपहर दो बजे से नेपाली चैनल पर हिन्दी फिल्म आती थी। गांव में एक ही टीवी मालिक था जिसके टीवी पर नेपाली फिल्में साफ-साफ दिखती थीं लेकिन हम दोस्त जब भरी दुपहरी में फिल्म देखने पहुंचते तो टीवी मालिक का शर्त होता कि सिर्फ मुझे ही अंदर आने दिया जाएगा। मैं अड़ जाता। जाउंगा तो दोस्तों के साथ ही। बात नहीं बनती। फिर हम दोस्त टीवी वाले कमरे में की-होल से झांका करते, कभी-कभी खिड़की के दरिजों से भी। बारी-बारी हम सब फिल्म को देखते और कहानी कहते जाते। फिर बाद में हम दोस्तों ने एक रास्ता खोज निकाला। मेरे बांकि दोस्त छिप जाते, मैं टीवी मालिक को अंदर आने देने को कहता और दरवाजा खुलते ही मुझसे पहले मेरे सारे दोस्त अंदर। मैं अनजान बना रहता। गांव में होने की गनीमत थी कि टीवी मालिक मेरे दोस्तों को अंदर से बाहर नहीं निकाल पाता। इतनी मशक्कत बाद भी सिनेमा से कभी प्यार कम न हुआ। इसी दौरान हिरो, राजा बाबू, घातक, मिथून, गोविंदा, सन्नी देओल, अभिताभ सबसे मुलाकात हुई। काफी दिनों तक हिरोईनों के मामले में कन्फयूज ही रहा। माधुरी, जूही, काजोल सबके चेहरे एक से ही लगते रहे। ये वे दिन थे जब दिव्या भारती की मौत को लेकर तरह-तरह के चर्चे हम दोस्त किया करते। आपस में झगड़ते तो मिथून की ईस्टाईल में धिसूम-धुड़ूम वाली ध्वनि मुंह से खुद ब खुद निकलते। अक्षय और सन्नी देओल में कौन ताकतवर है के सवाल से जूझते रहते। हमारी सिनेमाई समझ खुद की विकसित की हुई समझ थी- बिना किसी फिल्मी पत्रिकाओं और अखबारों के। हम किस सीन पर घंटों चर्चा करते- कोई कहता हिरो-हिरोईन के बीच में शीशा लगा होता है, एक ही गाने में इतने कपड़े कैसे बदल जाते हैं-जैसे मासूम सवालों में उलझना अच्छा लगता था।
(जारी..)

पड़ोसी-1





कुछ दिन से पड़ोसी के
घर में सन्नाटा है,
ना रेडियो चलता है,
ना रात को आँगन में
उड़ते हुए बर्तन हैं।


उस घर का पला कुत्ता--
खाने के लिए दिन भर,
आ जाता है मेरे घर
फिर रात उसी घर की
दहलीज़ पे सर रख कर
सो जाया करता है !
-गुलजार (रात पश्मीने की)

Friday, September 13, 2013

फर्स्टेट सिंगरौली डायरी


इस कस्बे में रहते-रहते बोर हो जाता हूं

जंगल-गांव और लोगों के बीच से लौटते ही

दुबक जाता हूं इस बक्सेनुमा लैपटॉप में

मेल, फेसबुक और न जाने कौन-कौन सी साइटें खोल बार-बार रिफ्रेश करता रहता हूं- नेट भी स्लो चलती है काफी
बाहर

बाहर जाने को क्या कहते हो।
बाहर का अवसाद इस बंद ऑफिसनुमा घर से कम है क्या

कोई चाय दुकान भी नहीं है वैसा

लेकिन उस दुकान पर बैठ कर ही क्या

कोई दोस्त भी तो नहीं कि घंटों बैठ कर लूं उनसे बातें-बहस चलती रहे बेमतलब की ही सही

किसी रोज पैदल ही जब नापने निकलता हूं इस कस्बे को

वापसी में जेब में अवसाद भी रखा चला आता है।

फिर वो अवसाद रात के खाने को कसैला बनाने तक बना रहता है स्वाद में।

दोस्त-यार फोन पर बताते हैं- तु अच्छा काम कर रहा है। जमीनी काम करने के मौके कहां मिलते हैं सबको। लगा रहा।

मैं चिल्ला-चिल्ला कर घोषित कर देना चाहता हूं- नहीं कर पा रहा मैं कुछ भी।

कल ही जब डीएम ने गांव वालों को गिनाए थे कंपनी और मुआवजा से विकास के फायदे।

मैं जोर-जोर से चिल्ला कर कहना चाहता था उससे- बताओ तुम्हारे इस लोकतंत्र के सबसे पहले ठेकेदार पंडित नेहरु ने जो दिखाए थे सपने स्वीजरलैंड के, उसका क्या हुआ
शिक्षा, अस्पताल, नौकरी और एक बेहतर जिन्दगी का सपना दिखा कबतक लोगों को भूलाते रहोगे।

उधर इस राज्य का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी आजकल घोषित करने में लगा है- सिंगरौली को लंदन।

मैं उसके गिरेबान को पकड़ रसीद देना चाहता हूं एक झन्नाटेदार थप्पड़।
क्यों बे, चल बकवास बंद कर।

अरे हां, इसे कविता न समझ लेना ।
ये बस फर्स्टेशन है। सिंगरौली में होने का फर्स्टेशन ।
पेंटर भाई लोग रेखाओं में अभिव्यक्त कर पाते हैं इस अवसाद को तो वही एब्सट्रैक्ट-सा हो जाता है।
मैंने शब्दों को आड़े-तिरछे कर दिया है बस।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...