Monday, September 30, 2013

अपने भरोसे

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब सात सौ किलोमीटर दूर सिंगरौली जिले में एक महान का जंगल है। इस जंगल को सरकार ने कोयला खदान के लिए चिह्नित कर दिया है। करीब बासठ गांवों के एक लाख से ज्यादा लोग अपनी जीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं। फिलहाल कंपनी (हिंडाल्को और एस्सार का संयुक्त उपक्रम महान कोल लिमिटेड) को छत्तीस शर्तों के साथ पर्यावरण मंत्रालय ने पहले चरण की इजाजत दे दी है, इसमें वनाधिकार कानून 2006 की शर्तें भी लागू होंगी।
वनाधिकार कानून कहता है कि सदियों से जंगल पर अपनी जीविका के लिए निर्भर लोगों का ही जंगल पर अधिकार है। इसलिए ग्रामसभा की अनुमति के बिना जंगल को निजी कंपनियों को नहीं दिया जा सकता है। लेकिन कंपनी और स्थानीय प्रशासन ने बिना निष्पक्ष ग्राम सभा आयोजित करवाए ही मुआवजा के नाम पर जंगल में महुआ पेड़ों की ‘मार्किंग’ करना शुरू कर दिया। ग्रामीणों द्वारा विरोध किए जाने पर प्रशासन ने पुलिस बल बुला लिया। हालात की गंभीरता को समझते ही गांव की महिलाएं आगे आ गर्इं और मोर्चा संभाल लिया।
अमिलिया गांव की निवासी कांति सिंह खैरवार उन महिलाओं में शामिल हैं, जिन्होंने जंगल में अवैध रूप से की जा रही मार्किंग का विरोध किया। कांति अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं कि तहसीलदार साब लोग कहे कि कंपनी को बैठने दिए तो पांव पसार रही है। (महान कोल लिमिटेड के पास ही एस्सार पावर प्लांट भी स्थापित है)। हमलोग कहे कि हमलोग न कंपनी को बैठने दिए, न पैर पसारने देंगे। इस पर तहसीलदार बोले कि कोयला खनन होगा। तुमलोगों का जंगल नहीं है। सरकार का जंगल है और तुमलोग इसको रोक नहीं सकते। लेकिन हम पूछते हैं कि जब जनता का जंगल पर कोई अधिकार ही नहीं है, तो काहे सरकार महुआ के पेड़ का मुआवजा हमलोग को देना चाह रही है।
गांव की एक और महिला समिलिया साफ लहजे में कहती हैं कि हमारा गुजर जंगल में है। वहीं से हमलोग जी रहे हैं। हमको न तो पुलिस से मतलब है, न पटवारी और तहसीलदार से। हम अपना जंगल जानते हैं, जहां
पुरखों से हम जी रहे हैं। हम जंगल नहीं छोड़ेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए। जंगल के बिना जीने की कल्पना करने से भी डरने वाली मनकुमरी देवी सीधा हिसाब जोड़ती हैं- ‘महुआ पत्ता, तेंदु, चाड़ और नहीं कुछ मिला तो जंगली लकड़ी। इन सबसे घर-परिवार के गुजर-बसर के लिए हम पैसा कमा लेते हैं।’ मेरे नोटबुक की ओर इशारा करते हुए मनकुमरी कहती हैं कि ‘लिख दीजिए कि हमलोग लड़ेंगे। इ जंगल हमारा राजा है। बाप-माई सब इ जंगले है। नहीं छोड़ेंगे।’
मनकुमरी देवी की बात को बीच में ही काटने वाली सुकमरिया देवी की चिंता थोड़ी अलग है। उन्हें डर है कि कहीं कंपनी और जंगल विभाग के द्वारा महुआ के पेड़ों की नंबरिंग और मार्किंग के नाम पर काटने-छिलने से नुकसान न पहुंचे। वह सीधी-सी बात बताती हैं- ‘कंपनी रुपया देकर गांव के अमीर लोग को खरीद सकती है, हम गरीब अपने जंगल के कोई कीमत नहीं लगा सकते हैं। कंपनी के पैसे से हमारा गुजर-बसर नहीं हो सकता। इसलिए हमको अपना जंगल चाहिए। बस!’ इन्हीं महिलाओं में से किसी ने जाते-जाते कहा- ‘हम लड़ने जाएंगे। किसी से डरते नहीं हैं। न दलाल, न कंपनी और न प्रशासन। पुरुष जाएं या नहीं जाएं, हम लड़ने जाएंगे। जरूर!’
दिल्ली से भोपाल तक समाज में महिलाओं की स्थिति पर बहस छिड़ी हुई है। समाज में महिलाओं की कमजोर स्थिति पर बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं। साहित्य से लेकर अकादमिक बहसों तक में हर रोज स्त्री-विमर्श पर एक नया अध्याय जोड़ा जा रहा है। ठीक इसी दौर में इन विमर्शों और बहसों से दूर महान जंगल में अपने जंगल-जमीन को बचाने के लिए आंदोलन कर रही आदिवासी महिलाएं स्त्री-विमर्श को नया आयाम दे रही हैं। यह अलग बात है कि मध्यवर्ग में केंद्रित देश और राज्यों की राजधानियों में चल रहे स्त्री-विमर्श के सेमिनारों में इन आदिवासी महिलाओं की लड़ाई के लिए कोई जगह नहीं है।

( यह लेख जनसत्ता में छप चुका है- यहां पढ़ सकते हैं)

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