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Friday, December 6, 2013

"जवानी की अंगड़ाई और बुढ़ापे की जम्हाई के बीच" तमन्ना तुम अब कहां हो


फोटो क्रेडिट- शोभा शमी

   ये कहानियां नहीं हैं। जो लोग कहानियों में पंच तत्व-कथावस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, भाषा और उद्देश्य खोजते हैं, उन्हें बैरंग ही लौटना पड़ सकता है। यह कुछ वाक्यों या कुछ शब्दों को पिरो दिये जाने वाले माला हो सकता है या कई बार तो सिर्फ एक शब्द में ही तैयार हो गया माला की तरह।

इन कहानियों को पढ़ने के लिए आपको अनुक्रम और फिर भूमिका के बाद के पन्ने पलटने की जरुरत महसूस नहीं होती। अनुक्रम में सजाए गए शीर्षक अपने-आप में कहानियां हैं। ओप्स, कहानियां नहीं, कविताएं...न...न. शायद कुछ भी नहीं। मगर ऐसा कुछ जिसे बार-बार पढ़ना अच्छा लगे। मसलन, "उस रात कुछ नहीं हुआ। वह बहुत ज्यादा शराब पीता था", “कयामत के पल में एक-दूसरे पर लुढ़क जाते टी बैग्स”, “जीए का कोई अगला पल नहीं होता, एक गुमशुदा दोस्त का पता मिलने पर”, “उनके सपने आपस में बात करने लगे थे”, और ऐसी ही न जाने कितन और शीर्षक- ये कहानियां नहीं है, सिर्फ शीर्षक है- लेकिन पढ़ने के दौरान फर्क करना मुश्किल है कि कब ये शीर्षक हैं, कब कहानी, कब कविता और कब कुछ भी नहीं होते हुए भी पूरी जिन्दगी-अधूरी सी।
पहली बार किसी लेखक की ऑटोग्राफ करके भेंट की गई किताब पढ़ रहा हूं- शुक्रिया

  ये किताब भी है-मुझे शक है। ये दरअसल "जवानी की अंगड़ाई और बुढ़ापे की जम्हाई के बीच" का कुछ है। यहां दुख भी है लेकिन वो एक लंबी एफआईआर की तरह, सुख फुटनोट्स की तरह।
हर किताब का शुरू-मध्य-अंत होता है लेकिन इस पैमाने पर भी ये किताब कहीं से नहीं ठहरता। शीर्षक पढ़ लो-छोड़ दो। कहीं से कोई पन्ना पलट लो, पन्ने को नीचले क्रम से ही पढ़ना शुरू कर दो, या बीच के किसी पैराग्राफ से। पढ़ने का सुख वैसा ही ज्यों-का-त्यों बना रहता है। पढ़ते-पढ़ते कई बार वाक्य को अधूरा छोड़ दुबारा पढ़े लाइनों को ही पढ़ने लग जा रहा हूं। एक लाइन शायद पांच बार भी।
  ये किताब नहीं है, किस्सों-कहानियों की तरह का कुछ नहीं है तो फिर है क्या? दरअसल ये वैसा ही कुछ है जिसके पन्नों में मुंह छिपाकर मैं अपने दूर होते प्यार के लिए रो सकता हूं या फिर एकदम नजदीक बैठे प्यार को महसूस कर सकता हूं।
तितलियों की सॉफ्टनेस को शब्दों में निचोर कर लिखी इन कहानियों या कहें तो शब्दों को पढ़ते-पढ़ते लगता है कि –अरे ऐसा तो मुझे भी कहना था। कई कहानियां-नॉवेल पढ़ा है जिसे पढ़ते हुए अपनी कहानी-सी मालूम होने लगती है लेकिन इन शब्दों से गुजरते हुए अपनी कहानी कहने की ललक सी होती है। जरुरी नहीं कि इसको पढ़ ऐसी ही कहानियां लिख दी जाये लेकिन भीतर अपनी कहानी कहने की ललक का बचा रह जाना बेहद रोमांचित करता है- एक गुदगुदी सी होती है। किसी लड़की को पटाने के लिए गिटार सीखने की ललक, या फिर दिल्ली से गुजरने और दिल्ली का बैठने को स्पेस न देने की टीस सबकुछ किताब के खत्म होने के बाद भी गुदगुदी करते रहेंगे।
और फिर अंत में, एक बेहद ही चलताऊ सा जुमला उछाल रहा हूं- शब्द कम पड़ रहे हैं। कई बार शब्दों का कम पड़ जाना सिर्फ एक बहाना भर होता है। मगर लाख बहानों के बावजूद भी सच्चाई यही है- शब्द कम पड़ रहे हैं।
बहुत कुछ लिखना बांकि रह गया है, बहुत कुछ पढ़ना बांकि बचा है। फिर लिखूंगा-अभी इस किताब को खत्म नहीं किया है, शायद ही खत्म हो। लेकिन पढ़ते-पढ़ते बहुत कुछ कह देने को मन करता है- इसलिए फिर कहूंगा, किस्तों में....
 फिलहाल- तमन्ना तुम अब कहां हो



कुछ चीजों का लौटना नहीं होता....

 क्या ऐसे भी बुदबुदाया जा सकता है?  कुछ जो न कहा जा सके,  जो रहे हमेशा ही चलता भीतर  एक हाथ भर की दूरी पर रहने वाली बातें, उन बातों को याद क...