Saturday, May 28, 2016

लंबी यात्राओं के बाद का ठहराव






रायपुर के एक होटल में। सुबह चार बजे ही नींद खुल गयी। वैसे जगा शायद रातभर ही रहा- एसी के प्वांइट घटाते-बढ़ाते, करवट बदलते जगा रहा। एक लंबी यात्रा के बाद रायपुर पहुंचा हूं। करीब 1300 किमी की सड़क यात्रा, सात जिले, दर्जन भर ब्लॉक, उससे भी अधिक गाँव, सैकड़ों लोग और फोनबुक में जुड़े बीस से ज्यादा नये दोस्तों के नंबर। इस दस दिन की यात्रा में इतने उतार-चढ़ाव आये- पहाड़, जंगल, नदी, डैम, गाँव, खदान, लोग, हाथी, जीवन। कई बार मन बच्चों की तरह पुलक उठा, तो कई बार एक गहरे अवसाद में डूब गया।
लगातार चलते रहने के बाद अचानक रुकने से कल से ठहराव-सा लग रहा है। हर सुबह पाँच बजे उठना, छह बजे तक निकल जाना, न सोने का कोई भरोसा, न खाने का, उपर से छत्तीसगढ़ की गर्मी। लेकिन इन सबके बावजूद सफर का मोह बना रहा। लोगों से बात करने का, उन्हें डॉक्यूमेंट करने का, घने जंगल में खड़े हो जी-भर सांस भीतर भर लेने का मोह कभी कम न हुआ।
देश के सुदूर देहातों, जंगलों, गाँवों और लोगों के जीवन को देखते हुए मुझे एक अजीब से भाव का अनुभव होता है, जिसके लिये ठीक-ठीक शब्द शायद मेरे पास नहीं। बहुत लगा लो तो धर्म की भाषा में उसे स्प्रिचुअल कहा जा सकता है। लेकिन हम नास्तिक धर्म वाले लोग स्प्रिचुअल शब्द से ही कितने डरते हैं? कई बार जंगल के बीच गाड़ी रोक- चुपचाप जोर-जोर से रोने का मन होता रहा। आदिवासी गाँवों में घूमते हुए, उनकी ईमानदारी, सहजता को देख मन घबराने लगता है। अचानक से अपनी सारी बेईमानी, शहरी प्रपंच, बौद्धिक फरेबपन याद आने लगता है। आप अपनी नजरों में ही एक खराब आदमी साबित होने लगते हैं। जीवन के मर्म को जितना आदिवासी समाज ने पकड़ा है, शायद ही दुनिया के किसी और समाज में वो समझ विकसित हुई हो। वो जानते हैं जरुरतों की एक सीमा होती है, वो जानते हैं कि प्रकृति और जीवन एक साथ संभव है, वो जानते हैं विकास और प्रकृति एक-दूसरे के द्वन्द नहीं हैं। उनके गाँव-घर भले एक-दूसरे से दूर-दूर हों, लेकिन वो जानते हैं सामूहिकता।
हम शहरी- दफ्तरों में, आसपास की दुनिया में एक-दूसरे के खिलाफ नफरत-घृणा, सवाल, शंका लिये खड़े रहते हैं। अपने ही अपार्टमेंट के बगल वाले फ्लैट में रहने वाला पड़ोसी हमारे लिये अजनबी है। हम हर दस मिनट पर अपने स्मार्टफोन को चेक करते, फेसबुक को रिफ्रेश करते, ट्विट करते हुए, होम डिलवरी साइटों पर ऑर्डर करते हुए एक खुद की बनी-बनायी दुनिया में आत्ममुग्ध रहते हैं। कई बार भ्रम होता है यह दुनिया बहुत बड़ी है- ग्लोबल गाँव है। लेकिन हकीकत में वो कैद है, जहां उतनी ही स्वतंत्रा है, जितनी एक चिड़ियाघर में कैद जानवर को मिल सकती है।
लंबी यात्राओं में रहते हुए हजार नयी-नयी योजनाएँ मन में चलती रहती हैं। नया करने को मन उत्सुक रहता है। लिखने, बोलने, कहने के लिये हजार नयी बात होती है। तमाम सवालों-शंकाओं के बावजूद मन में लिखने के प्रति उम्मीद जगती है। लगता है यही एक काम है जो किया जा सकता है, और करना चाहिए। दिल्ली में जो निराशा, अकेलापन, आत्ममुगधता और स्व की चिंता बनी रहती है, वो फील्ड में रहते हुए कहीं दूर छिटक जा गिरती है। लगता है कितना कुछ है, जो कहा जाना चाहिए, जिसे कहने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए- बजाये इसके कि खुद को एक रुमानी निराशा की गली में गुम कर लिया जाये। आह, दिल्ली। लौटने में कितनी पीड़ा है !  

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...