Thursday, June 27, 2013

एक बात यह भी

क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है-
देखो, मैं हूँ?

- रमण महर्षि

मुस्लिमों को जाना सख्त मना है, मतलब हिन्दुओं के बाप का है ?

दीवाल पर बेशर्मी से लिखा ये पोस्ट
आपका ये महान देश तो बहुत धर्मनिरपेक्ष है भाई। हर कदम पर हर जगह पर ये धर्मनिरपेक्षता रह-रह कर चूता रहता है। सच बात तो यह है कि आपकी सरकार, समाज कुछ भी धर्मनिरपेक्ष नहीं है। धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटना बंद कीजिए। बिहार के राजगीर में गर्म कुंड में नहाने वालों के लिए जो शर्मनाक शर्त उस दीवाल पर चिपका है न वो आपकी धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतार फेंक दे रहा है। सवाल तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब उसी राज्य के मुखिया हाल ही में सांप्रादायिकता के खिलाफ अपनी सरकार तक दांव पर लगाने का दावा करते दिखते हैं। 
और हां, समाज का मामला बता कर सरकार यहां अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। धर्म को जाने दीजिए लेकिन नेचर पर अधिकार का मामला तो है ही।
पटना के पत्रकार अभिषेक आनंद ने फेसबुक पर साझा किए अपने अनुभव..(मॉडरेटर)


साफ बात तो यह कि यह ब्रह्म कुंड या गरम कुंड नहाने तो छोड़िए पैर धोने लायक भी नहीं है। कम से कम गर्मियों के इस मौसम में तो कतई नहीं। लेकिन यहां पहुंचने से पहले की दीवार पर पंडाओं ने अपने पिता से मिले तमाम अधिकार के साथ लिखा है, "हिन्दुओं के सिवाय मुस्लिमों को जाना सख्त मना है।"
कानून और बाकी नियमों को ढेंगा दिखाते हुए पटना हाइकोर्ट का हवाला दिया गया है।
पहले तो 'नोटिस' देखकर ही हमारा दिमाग घूम गया। अबतक किसी चर्च, मस्जिद, मजार-मंदिर में ऐसे 'नोटिस' का अनुभव मिला नहीं था। लेकिन सामना तब हुआ जब मैं अपने मुस्लिम दोस्त Rizwan के साथ कुंड में जा रहा था। मैंने उससे कहा, लिखा है तो लिखा है, भाई चलो देखते हैं। लेकिन मनाही का धर्मसत्य वाक्य देखते ही धार्मिक रिजवान बाबू ने साफ मना कर दिया।
हम उसी चारदीवारी के अंदर, उस तरफ लौट गए जिधर मानव निर्मित कुंड यानी स्विमिंग पूल कुछ रुपए के टिकट के साथ स्वागत कर रहा था। बिना धर्म की रोकटोक के। लेकिन मेरे मन में इस ब्रह्म कुंड या प्राकृकिक कुंड में नहाने की कम, समझने की इच्छा बढ़ रही थी। (कहते हैं Water or Kund is a gift of Nature and Nature does not discriminate on the basis of religion!!)
रिजवान को बाहर अकेले छोड़ हम कुंड के पास पहुंचे। पैर की कुछ उंगलियां पानी में रखते ही असलियत का पता चल चुका था। तब पानी में पहले से बैठे लोगों ने कहा, 'एक पैर मत डालिए, दोनों पैर डालिए'। हमनें देख ली वह भी करके। बर्दाश्त एक सेकेंड भी नहीं हुआ। तब साथ गए तीसरे धार्मिक दोस्त ने धर्मान्धता को साइंटिफिक तर्क से जस्टिफाई करना शुरू किया। लेकिन खुद पानी में आधा मिनट भी नहीं रह सका।
सोचा पटना आकर डीएम को फोन करुंगा कि क्या सच में हाईकोर्ट का ऑर्डर है? लेकिन गूगल के पन्ने तलाशा तो सब कुछ साफ हो गया। हाईकोर्ट के जिस फैसले की बात कही गई है वह आजादी से पहले और अंग्रेजों का फैसला है। फैसले देने वाले का नाम है Counrtrey Trel, फैसला है 1937 का। Counrtrey Trel पटना हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस था।
अब बाकी चीजों का आप अंदाजा खुद लगा लीजिए। रिटाअर्ड आईपीएस किशोर कुणाल कहते हैं कि कम से कम इसे बदलकर ऐसे लिखना चाहिए कि 'गैर हिन्दुओं को आने की मनाही है'। लेकिन राजगीर के पुजारी और पंडित इस बदलाव के खिलाफ भी बाप-बाप करने लगते हैं। 
अभिषेक आनंद हिन्दुस्तान पटना के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं
 

Tuesday, June 25, 2013

हंसोड़ कॉमरेडः चार्ली चैपलिन



चार्ली चैपलिन को पहली बार छुटपने में 'चैरी बोलेसम' के एड में देखा था। वो स्कूल जाने के शुरुआती दिन थे। सफेद शर्ट, ब्लू हाफ पैंट, एक स्कूल बैच लगा टाई और चैरी बोलेसम से पोलिश किया जूता। गांव के उस नये खुले प्रायवेट 'इंडियन पब्लिक स्कूल' में हर नकल शहरी अंग्रेजी स्कूलों की होती थी। पहनावा से लेकर टिफिन का डब्बा तक। हां, पढ़ाई का मीडियम हिन्दी बना रहता। मास्टर साब कई बार खुद अंग्रेजी में लपटाते तो बच्चा को ही सोटिया देते। तो चार्ली उसी जमाने में हमें हंसाता हुआ टीवी पर आने लगा था। उस दौर में दूरदर्शन पर स्कूल जाते समय 'शान्ति' और लौटने के वक्त 'युग' सीरियल आता था। हमेशा 'शान्ति' को अधूरे मन से छोड़ कर निकलना पड़ता और शाम तीन बजे दौड़ते हुए आधे से 'युग' सीरियल देखने को मिलता।


फिल्म डिक्टेटर में चार्ली
चैरी बोलेसम एड देखते समय इतना पता थोड़े न था कि इ विदेशी फिल्मों का हीरो है। इतना दुबला-पतला आदमी, नाक सिंकौड़े-विदेशी मूंछ तो हमारे यहां फिल्मों-नाटकों में कॉमेडियन कम साइड हिरो का ही हुआ करता है। वो जमाना मिथुन से निकल सन्नी देओल, अमीर खान, सलमान, गोविंदा का था। सब मोटे-ताजे या फिर संजय दत्त टाइप अन्याय के खिलाफ गोली-बंदूक उठाने वाले।
फिल्में वही गांव के ठाकुर का शोषण, शहरी कोरपोरेटी बाप का इश्क में बाधा जैसे मुद्दे पर ही बनती थी। उस समय ठाकुरों की पिटाई करते ये हीरो सच्चे के नायक लगते। हमारे ग्रुप के बच्चों ने बांट लिया था। सबको बड़ा हो कर गोविंदा, सलमान या फिर संजय दत्त ही बनना था।

दूरदर्शन वालों से आज शिकायत करने का मन करता है। हम गांवों-कस्बों में बड़े होने वाले जेनरेशन को विदेशी सिनेमा से मरहूम करने की साजिश इसी सरकारी चैनल ने किया है। आज बप्पी लहरी जमाने की फिल्मों के बारे में सोचकर हंसी आती है।
धीरे-धीरे गांव से भाया कस्बा होते हुए शहर पहुंचा। कुछ केबल टीवी और कुछ यूट्यूब पर चार्ली चैपलीन की फिल्मों को देखने लगा- आज भी पूरा नहीं देख पाया हूं लेकिन दो-तीन फिल्मों को ही देख मन मानने लगता है कि अपना हिन्दी सिनेमा चार्ली चैपलिन जैसा एक भी हीरो पैदा न कर सका। कोई एक हीरो का नाम ले लीजिए जिसके प्रति श्रद्धा से आपका मन भर जाय लेकिन चार्ली की महानता देखिये कि आज भी उसकी फिल्मे दुनिया के हर कोने में देखी-पसंद की जाती है। चार्ली की कोई फिल्म देख लीजिए। उनकी फिल्मों में भी शोषण, अमानवता, असमानता के खिलाफ लड़ाई दिखती है लेकिन झुठउका मार-धाड़, धिसुम-धिसुम से अलग। हमारे यहां तो नायक पिलपिलाया रहता है आव देखा न ताव मार-पीट शुरू। अब जरा सोचिये जो जेनरेशन ही जवान हो रहा हो मारपीट-धिसुम-धसाम के बीच उसकी समाज-व्यवस्था और जीने की लड़ाई में कितनी गहराई आ पाएगी। चार्ली अपनी फिल्मों में कैसे हंसते-हंसाते बड़ी-बड़ी चोट कर जाते हैं। खुद मार खा कर भी इस व्यवस्था को गहरी चोट  पहुंचा जाते हैं। हमारे यहां का कोई हीरो मार खाने लगे तो उसे फ्लॉप मान लिया जाता है।

हिन्दी फिल्मों में शोषण से लड़ते-लड़ते नायक चोली के पीछे क्या है..गाने लगता है (मैं सभी हिन्दी फिल्मों की बात नहीं कर रहा)। जिस तरह के शोषण, अव्यवस्था से हमारे युवा पीढ़ी में गुस्सा, नफरत पैदा हुआ था उसे इस मुए सीनिमा ने एंग्री यंग मैन में बदल कर रख दिया। आप याद कीजिए उस जमाने की कोई फिल्म जिसमें कोई गंभीर बात कही गई हो( हम सब सन्नी दैओल की तारीख पर तारीख वाला डॉयलॉग सुन ही खुश होते रहे।) चार्ली की हर फिल्म में आपको एक गंभीर डिबेट दिख जाएगा। द डिक्टेटर में चार्ली का दिया गया लास्ट भाषण ही सुन लीजिए। मानवता के प्रति प्रेम, युद्ध-गुस्सा, मशीनीकरण पर मानव की विजय का कितना गंभीर फोटो खिंचते हैं चार्ली। चार्ली ने कितनी गहरी चोट पहुंचाई है इस कारपोरेटी तंत्र की फिल्म मॉडर्न टाइम्स में और वो भी आज से पचासियों साल पहले ही उन्होंने औद्योगिकरण के खिलाफ जो सवाल उठाए....आज भी घोर समकालीनता रखते हैं।

कुछ-कुछ राज कपूर साब ने चार्ली सा कुछ करने का प्रयास किया। इसलिए भी राजकपूर मुझे अच्छे लगते हैं तब से जब चार्ली की फिल्मों से परिचय नहीं हुआ था। विदेशी फिल्मों की नकल भी बॉलीवुड ने सेलेक्टिव ही किया। मार-धाड़, एक्शन और धूम-धड़ाका तो चुरा लिया लेकिन वो ह्युमर, वो सटायर वहीं छोड़ आए जो चार्ली की फिल्मों को कालजयी फिल्म बनाते हैं।

शायद दोष हम दर्शकों का ही है। हिष्ट-पुष्ट हीरो चाहने वाले हम हिन्दी दर्शक एक दुबले-पतले,नाटे से आदमी को हीरो के रुप में शायद ही स्वीकार पाते। देखिये न कैसे सलमान से लेकर आमिर तक सबको बॉडी बनाकर फिगर मेंटेन करना पड़ रहा है- हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए। 

indian charlie
और अंत में, मेरा कतई मानना नहीं है कि हिन्दी फिल्मों में कुछ अच्छा है ही नहीं। सामानंतर सिनिमा भी इसी हिन्दी सिनेमा का पार्ट रहा है और मुख्यधारा में भी दर्जनों गंभीर-उत्कृष्ट फिल्में बनती रही हैं..बन रही हैं।

लेकिन भाई कॉमरेड चार्ली की तो बात ही कुछ और है..
आज भी चार्ली की नकल करने वाला मन को गुदगुदा जाता है। अभी चार्ली को बहुत पढ़ना देखना है..मैं तो चला।

फिलहाल पूरा ब्लॉग चार्ली की फोटो से भर देना चाहता हूं...लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी गुगल चार्ली और चैरी बोलोसम और साथ में उस मोटे अंकल जिसका जूता नहीं चमक पाता की तस्वीर नहीं मिल पायी।
विडियो लगा रहा हूं देखने लायक चीज है।
अब चार्ली के इस कोट के साथ विदा
To truly laugh, you must be able to take your pain, and play with it!
Charlie Chaplin






(note-  किसी दोस्त ने कहा कि अच्छा लिखा है लेकिन सतही लेख है। चार्ली सच में गंभीरता की मांग करते है।
उनसे सहमत हूं..इस लेख को भावनात्मक माना जाय..बोला ही है अभी चार्ली को और पढ़ने-देखने की जरुरत है) 

Saturday, June 22, 2013

पटना टू सिंगरौली..इंडिया से भारत का सफर

बादल और धुंए का ये दृश्य




सिंगरौली लौट आया हूं। कभी पहाड़ों के उपर तो कभी उनके बीच से बलखाती निकलती पटना-सिंगरौली लिंक ट्रेन। बीच-बीच में डैम का रुप ले चुकी नदियों और उनके उपर बने पुल तो कभी पहाड़ो के पेड़ से भी ऊंची रेल पटरी से गुजरती ट्रेन। जंगल में उदास खड़े चट्टान और थोड़ी दूर-दूर पर खड़े अपने-अपने अकेलेपन के साथ पेड़। ट्रेन की खिड़की से झांकती मेरी आंखे और बीच-बीच में कैमरे का क्लिक। दूसरी तरफ मेरे हाथों में नाजियों द्वारा तबाह-बर्बाद कर दिए गए कस्बे लिदीत्से पर निर्मल वर्मा का यात्रा संस्मरण- मानो लिदीत्से पर किए गए उस नाजी अत्याचार को फोटो खींच रहे हों वर्मा। तय करना मुश्किल इन पहाड़, जंगल. नदी को देखता रहूं, जो शायद कुछ सालों बाद मानव सभ्यता के विकास के नाम पर बर्बाद कर दिए जाएंगे या फिर नाजियों के द्वारा जलाए गए बच्चों की स्कूल जाती तस्वीर और मार दी गयी औरत के नीले स्कार्फ के संस्मरण पढ़ता रहूं। आखिर क्या अंतर है उस जर्मनी के नाजी अत्याचार और इस दुनिया के महान लोकतंत्र वाले देश में जहां जल-जंगल-जमीन-जन की रोज विकास के नाम पर हत्या की जा रही है?
लोगों से सुनता हूं कि कुछ साल पहले तक सिंगरौली जैसे इलाकों में जब ट्रेन किसी रेल फाटक से गुजरती थी तो पहले ट्रेन का ड्राइवर उतर कर फाटक बंद करता था फिर फाटक गुजर जाने पर कोई सवारी या गार्ड उतर फाटक बंद कर देता और ट्रेन आगे बढ़ती। छोटे-छोटे स्टेशनों पर लोग उधर से गुजरने वाली इक्का-दुक्का एक्सप्रेस ट्रेनों को हाथ देकर रोकते, अपने संबंधियों के आने तक ट्रेन रोकने का अनुरोध करते, या फिर पूरा सामान उतारने तक ट्रेन को रोके रखने को कहते लोग। ट्रेन के ड्राइवर भी जानते कि आने-जाने के लिए यही ट्रेन सहारा है इसलिए आराम से चलते। कोई हड़बड़ी नहीं। वैसे भी यहां के लोगों में भागमभाग कम ही देखता हूं। जब से यहां आया हूं भूल जाता हूं कि कौन सा दिन है, क्या तारीख है, क्या महीना, क्या समय। समय मानों खुद दो-तीन दिन पीछे चल रहा हो। हमारी सरकारें इन सुस्त पड़ गयी जिंदगी की रफ्तार को विकास के सहारे भगाना चाहती हैं। ऐसा भागमभाग, ऐसी दौड़ जो अंधेरे गली में जाकर खत्म होती है।
रास्ते में ऐसे-ऐसे स्टेशन गुजरते हैं जहां आपको रिसिव करने के लिए ऑटो, कार, बाइक सब प्लेटफॉर्म पर ही खड़े मिल जाएंगे। ट्रेन के दरवाजे से नीचे उतर सीधा ऑटो में चले जाईये।  एक स्टेशऩ पर टीशन मास्टर साब गंजी बनियान में ट्रेन को हरी झंड़ी हिलाते दिखते हैं तो दूसरे स्टेशन पर उंघता हुआ फाटक मैन ट्रेन गुजर जाने के बाद हड़बड़ाता हुआ पीछे से हरी झंडी दिखा रहा है।
जंगल-पहाड़-नदी एक खूबसूरत लैंडस्केप बना रहे हैं। बीच-बीच में दूर कहीं बस्ती के नाम पर दो-तीन घरों का आभास भी हो रहा है जो पहाड़ों की ओट में दिखते-छुपते चल रहे हैं। मानो ये सब हकीकत नहीं एक कैनवास हो जिसके भीतर मैं पहुंच गया हूं। ट्रेन की खिड़की से देखते-देखते मैं दरवाजे पर खड़ा हो जाता हूं। मन करता है उतर जाउं इन्हीं पहाड़ियों-जंगलों में। अपना अतीत, भविष्य सबकुछ भूलकर यहीं का हो रहूं लेकिन रेनुकूट आते-आते सबकुछ वैसा ही नहीं रह जाता। प्लांट्स, उनके साये में बनी झुग्गियों में जिंदगी और चिमनी से उठता धुंआ मानो पूरे कैनवास पर धुंधलका सा छा जाता है। मन अजीब होने लगता है। आसमान में बादल और चिमनियों के धुंए का फर्क करना मुश्किल है। अब रास्ते में प्लांट्स के साथ-साथ बिजली के बड़े-बड़े तार, ग्रेनामाइट से उड़ाए गए या क्षत-विक्षत कर दिए गए पहाड़ो के चट्टान सब मिलकर एक विद्रुप रेखाचित्र लगने लगते हैं। बीच-बीच में आदिवासी महिलाएं माथे पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए एक पगडंडी बना चलती दिखती हैं। इस इलाके के आदिवासियों-मूलवासियों की स्थिति ये बताने के लिए काफी होती है कि विकास ने कितना और कितनी बार इन्हें छला है।
हां, एक बात और। एक घुमावदार रास्ते पर मैं खिड़की से झांक कर देखता हूं तो खुद को ट्रेन के सबसे पिछले बोगी में पाता हूं। मैं दौड़ कर दरवाजे तक जाता हूं। लगभग पटना से बारह बोगियों को लेकर चली ट्रेन रेनुकुट आते-आते तीन बोगियों का बन जाता है- बाद में एक साथ वाले यात्री ने बताया। हमारी  ट्रेन की रफ्तार धीमी हो गई है और कोयले लदी मालगाड़ियां तेजी से पास करायी जाने लगी हैं। युवा आदिवासी कवि अनुज लुगुन की एक कविता की पंक्तियां याद आती है जिसमें वो बताते हैं कि कैसे उनका पहाड़ ट्रकों पर लद शहर की ओर जा रहे हैं। यहां भी कुछ वैसा ही है। यहां के लोगों की जिंदगी को तबाह कर उनके पहाड़ खोद कोयले को रेल डब्बों में भर कहीं दूर भेजा जा रहा है।
धीरे-धीरे हमारी ट्रेन सिंगरौली पहुंचने को होती है। सिंगरौली वो फिल्म जिसमें कोयला खनन करने वाली पावर प्लांट्स विलेन बने हुए हैं और वो खैरवार, वैगा जैसे समुदाय के आदिवासी हीरो नजर आते हैं जो लगातार अपनी जमीन-जंगल को खोकर भी जी रहे हैं औऱ बचे हुए जंगल-जमीन को बचाने के लिए अनवरत संघर्षरत है। आज से नहीं आजादी के बाद से ही। इस भागते-दौड़ते अर्थव्यवस्था वाले कारपोरेटी लोकतंत्र से लड़कर जीतना महत्वपूर्ण तो है ही लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है लड़ने की ललक, अपने अधिकार-रोटी-रोजी को बचाने की आकुलता। जो हारने के बाद भी इन्हें इस फिल्म का हीरो बनाते हैं।

अविनाश कुमार चंचल
singrauli

Tuesday, June 4, 2013

बुढ़ाता लोकतंत्र

बीच-बीच में हमारे देश के प्रभु वर्ग को लोकतंत्र की चिंता सताने लगती है। उस समय और जब इसी देश की जनता दामिनी के लिए सड़क पर होती है या फिर ये चिंता और बढ़ जाती है जब अपने ही जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर दिए गए लोग हक की लड़ाई के लिए आवाज उठाने लगते हैं। लोकतंत्र के प्रति इन प्रभुओं का दर्द और चिंता बहुत ही स्पेशल  है। इन्हें तो किसी अदने से अरुंधती की अदनी सी खरी-खरी बात भी लोकतंत्र पर खतरा लगने लगता है। कितना कमजोर है इस देश का लोकतंत्र, आह।
आजादी के साठ साल बाद हुआ यह है कि हमारा लोकतंत्र  लोक से उठकर कहीं चला गया है..कोई मित्र बताते हैं कि कभी ये मुबंई के किसी बड़े शेयरखान के दफ्तर में दिखता है तो कभी दिल्ली के लुटियन्स में लेकिन  झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्यप्रदेश से लेकर उड़िसा तक कहीं भी लोकतंत्र नहीं दिखता।
मेरे दोस्त शोवरण..उन्हें भी लोकतंत्र मिल गया एक दिन संसद के गलियारे में..उनसे अच्छी खासी जवाब-तलब हुई.. मैं यहां उसे शोवरण के फेसबुक वॉल से उठा चिपका दे रहा हूं..आप भी पढ़िये ये रोचक दास्तान-ए-लोकतंत्र ऑफ अ ग्रेट इंडिया-
शोवरण



आजकल संसद बंद है। मन में जिज्ञासा हुई कि चलों देखें कि जब संसद में जूते चप्पल नही चलते हैं ,फिजूल की बहसें नही होती हैं और सबसे जरुरी बात जब जनता का पैसा बर्बाद नही होता है ,तब बंद संसद कैसी लगती है । अन्दर गया तो देखा कि भारतीय लोकतंत्र दण्ड पे दण्ड पेले जा रहा था । हमने पूछा... का भैया... काहे सलमान खान बनने पे आमादा हो ..तो लोकतंत्र बोला ..अरे का बताएं भैया हम बहुत प्रेशर में आ गए हैं ..उ का हैं कि एक तो हम दुनियां के सभी लोकतंत्रों से शारीरिक डील-डौल में थोड़े बड़े हैं और ऊपर से हियां का बुद्धिजीवी सब चिल्लाता रहता है कि भारत का लोकतंत्र मजबूत हो रहा है।
अब आप ही बताइए ई बुद्धीजीबी सब 60-65 की उम्र में भी मजबूती की उम्मीद करते हैं। लेकिन भैया हकीकत तो ये है कि हमें अन्दर से बड़ी कमजोरी फील हो रही है। जब जब मैं छत्तीसगढ़,झारखण्ड,उडिसा,आन्ध्र जाता हूं ..बीमार हो जाता हूं । और ये कमबख्त कश्मीर तो मुझे कभी रास ही नही आया ,जब जाता हूं तबियत खराब हो जाती है। और नार्थ-ईस्ट का तो मैं नाम लेते ही घबरा जाता हूं ..बहां के मणिपुर प्रांत का इरोम शर्मीला नाम का जीव तो पिछले 12 साल से मेरा खून चूसे जा रहा है...इधर सोनी सोरी नाम के छत्तीसगढ़ी जीव ने तो पिछले कई दिनों से मेरी नाक में दम कर रखा है और तो और इसने तो मेरे केयर टेकर सुप्रीम कोर्ट को भी नही छोड़ा ....जब भी बेचारा सोनी सोरी का नाम सुनता है ,हांफने लगता है। वाकई बड़ी कमजोरी फील कर रहा हूं भाई...और हां एक तो अपनी कमजोरी से परेशान हैं और ऊपर से ये नेता मेरा खून पिए जा रहे हैं । 
अभी पिछले दिनों जब महेन्द्र कर्मा और नंद कुमार पटेल की माओवादी हमले में मौत हो गई तो ये सोनिया गांधी कह रही थी कि कांग्रसी नेताओ पर हमला लोकतंत्र पर हमला है ...भैया मैं तो बहुत डर गया ..ये नेता लोग अपनी आपसी लड़ाई में मुझे बेमतलब काहे घसीटते हैं।भैया जिस दिन सुकमा में कांग्रेसी नेताओ पर हमला हुआ उस दिन तो मैं मुम्बई में अंवानी की पार्टी मे स्कोच पी रहा था । फिर कुछ देर बाद मीडिया में खबर आने लगी कि कहीं लोकतंत्र पर हमला हो गया तो मैने सोचा कि मैं तो हियां सेफ बैठा हूं फिर पता आखिर ये किस लोकतंत्र पर हमला हो गया ।फिर पता चला कि हमला तो कांग्रेसी नेताओ पर हुआ है और मीडिया फर्जी चिल्ला रहा है कि लोकतंत्र पर हमला हो गया । मीडिया की इन्ही अफवाहों की वजह से मैने अब डिस्टर्ब एरिया में जाना ही बंद कर दिया । बैसे भी इस लाल इलाके में जबसे सुरक्षा बलों ने मेरे भाई मानवाधिकार की हत्या की है ,मैने इस इलाके मे जाना ही बंद कर दिया । इसलिए मैं आजकल हियां संसद में ही रह रहा हूं और अपने आपको मजबूत बना रहा हूं। आखिर बुढापा भी कोई चीज होती है।

बेकाबू

 रात के ठीक एक बजे के पहले. मेरी बॉलकनी से ठीक आठ खिड़कियां खुलती हैं. तीन खिड़कियों में लैपटॉप का स्क्रीन. एक में कोई कोरियन सीरिज. दो काफी...