Saturday, June 22, 2013

पटना टू सिंगरौली..इंडिया से भारत का सफर

बादल और धुंए का ये दृश्य




सिंगरौली लौट आया हूं। कभी पहाड़ों के उपर तो कभी उनके बीच से बलखाती निकलती पटना-सिंगरौली लिंक ट्रेन। बीच-बीच में डैम का रुप ले चुकी नदियों और उनके उपर बने पुल तो कभी पहाड़ो के पेड़ से भी ऊंची रेल पटरी से गुजरती ट्रेन। जंगल में उदास खड़े चट्टान और थोड़ी दूर-दूर पर खड़े अपने-अपने अकेलेपन के साथ पेड़। ट्रेन की खिड़की से झांकती मेरी आंखे और बीच-बीच में कैमरे का क्लिक। दूसरी तरफ मेरे हाथों में नाजियों द्वारा तबाह-बर्बाद कर दिए गए कस्बे लिदीत्से पर निर्मल वर्मा का यात्रा संस्मरण- मानो लिदीत्से पर किए गए उस नाजी अत्याचार को फोटो खींच रहे हों वर्मा। तय करना मुश्किल इन पहाड़, जंगल. नदी को देखता रहूं, जो शायद कुछ सालों बाद मानव सभ्यता के विकास के नाम पर बर्बाद कर दिए जाएंगे या फिर नाजियों के द्वारा जलाए गए बच्चों की स्कूल जाती तस्वीर और मार दी गयी औरत के नीले स्कार्फ के संस्मरण पढ़ता रहूं। आखिर क्या अंतर है उस जर्मनी के नाजी अत्याचार और इस दुनिया के महान लोकतंत्र वाले देश में जहां जल-जंगल-जमीन-जन की रोज विकास के नाम पर हत्या की जा रही है?
लोगों से सुनता हूं कि कुछ साल पहले तक सिंगरौली जैसे इलाकों में जब ट्रेन किसी रेल फाटक से गुजरती थी तो पहले ट्रेन का ड्राइवर उतर कर फाटक बंद करता था फिर फाटक गुजर जाने पर कोई सवारी या गार्ड उतर फाटक बंद कर देता और ट्रेन आगे बढ़ती। छोटे-छोटे स्टेशनों पर लोग उधर से गुजरने वाली इक्का-दुक्का एक्सप्रेस ट्रेनों को हाथ देकर रोकते, अपने संबंधियों के आने तक ट्रेन रोकने का अनुरोध करते, या फिर पूरा सामान उतारने तक ट्रेन को रोके रखने को कहते लोग। ट्रेन के ड्राइवर भी जानते कि आने-जाने के लिए यही ट्रेन सहारा है इसलिए आराम से चलते। कोई हड़बड़ी नहीं। वैसे भी यहां के लोगों में भागमभाग कम ही देखता हूं। जब से यहां आया हूं भूल जाता हूं कि कौन सा दिन है, क्या तारीख है, क्या महीना, क्या समय। समय मानों खुद दो-तीन दिन पीछे चल रहा हो। हमारी सरकारें इन सुस्त पड़ गयी जिंदगी की रफ्तार को विकास के सहारे भगाना चाहती हैं। ऐसा भागमभाग, ऐसी दौड़ जो अंधेरे गली में जाकर खत्म होती है।
रास्ते में ऐसे-ऐसे स्टेशन गुजरते हैं जहां आपको रिसिव करने के लिए ऑटो, कार, बाइक सब प्लेटफॉर्म पर ही खड़े मिल जाएंगे। ट्रेन के दरवाजे से नीचे उतर सीधा ऑटो में चले जाईये।  एक स्टेशऩ पर टीशन मास्टर साब गंजी बनियान में ट्रेन को हरी झंड़ी हिलाते दिखते हैं तो दूसरे स्टेशन पर उंघता हुआ फाटक मैन ट्रेन गुजर जाने के बाद हड़बड़ाता हुआ पीछे से हरी झंडी दिखा रहा है।
जंगल-पहाड़-नदी एक खूबसूरत लैंडस्केप बना रहे हैं। बीच-बीच में दूर कहीं बस्ती के नाम पर दो-तीन घरों का आभास भी हो रहा है जो पहाड़ों की ओट में दिखते-छुपते चल रहे हैं। मानो ये सब हकीकत नहीं एक कैनवास हो जिसके भीतर मैं पहुंच गया हूं। ट्रेन की खिड़की से देखते-देखते मैं दरवाजे पर खड़ा हो जाता हूं। मन करता है उतर जाउं इन्हीं पहाड़ियों-जंगलों में। अपना अतीत, भविष्य सबकुछ भूलकर यहीं का हो रहूं लेकिन रेनुकूट आते-आते सबकुछ वैसा ही नहीं रह जाता। प्लांट्स, उनके साये में बनी झुग्गियों में जिंदगी और चिमनी से उठता धुंआ मानो पूरे कैनवास पर धुंधलका सा छा जाता है। मन अजीब होने लगता है। आसमान में बादल और चिमनियों के धुंए का फर्क करना मुश्किल है। अब रास्ते में प्लांट्स के साथ-साथ बिजली के बड़े-बड़े तार, ग्रेनामाइट से उड़ाए गए या क्षत-विक्षत कर दिए गए पहाड़ो के चट्टान सब मिलकर एक विद्रुप रेखाचित्र लगने लगते हैं। बीच-बीच में आदिवासी महिलाएं माथे पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए एक पगडंडी बना चलती दिखती हैं। इस इलाके के आदिवासियों-मूलवासियों की स्थिति ये बताने के लिए काफी होती है कि विकास ने कितना और कितनी बार इन्हें छला है।
हां, एक बात और। एक घुमावदार रास्ते पर मैं खिड़की से झांक कर देखता हूं तो खुद को ट्रेन के सबसे पिछले बोगी में पाता हूं। मैं दौड़ कर दरवाजे तक जाता हूं। लगभग पटना से बारह बोगियों को लेकर चली ट्रेन रेनुकुट आते-आते तीन बोगियों का बन जाता है- बाद में एक साथ वाले यात्री ने बताया। हमारी  ट्रेन की रफ्तार धीमी हो गई है और कोयले लदी मालगाड़ियां तेजी से पास करायी जाने लगी हैं। युवा आदिवासी कवि अनुज लुगुन की एक कविता की पंक्तियां याद आती है जिसमें वो बताते हैं कि कैसे उनका पहाड़ ट्रकों पर लद शहर की ओर जा रहे हैं। यहां भी कुछ वैसा ही है। यहां के लोगों की जिंदगी को तबाह कर उनके पहाड़ खोद कोयले को रेल डब्बों में भर कहीं दूर भेजा जा रहा है।
धीरे-धीरे हमारी ट्रेन सिंगरौली पहुंचने को होती है। सिंगरौली वो फिल्म जिसमें कोयला खनन करने वाली पावर प्लांट्स विलेन बने हुए हैं और वो खैरवार, वैगा जैसे समुदाय के आदिवासी हीरो नजर आते हैं जो लगातार अपनी जमीन-जंगल को खोकर भी जी रहे हैं औऱ बचे हुए जंगल-जमीन को बचाने के लिए अनवरत संघर्षरत है। आज से नहीं आजादी के बाद से ही। इस भागते-दौड़ते अर्थव्यवस्था वाले कारपोरेटी लोकतंत्र से लड़कर जीतना महत्वपूर्ण तो है ही लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है लड़ने की ललक, अपने अधिकार-रोटी-रोजी को बचाने की आकुलता। जो हारने के बाद भी इन्हें इस फिल्म का हीरो बनाते हैं।

अविनाश कुमार चंचल
singrauli

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