Friday, September 13, 2013

फर्स्टेट सिंगरौली डायरी


इस कस्बे में रहते-रहते बोर हो जाता हूं

जंगल-गांव और लोगों के बीच से लौटते ही

दुबक जाता हूं इस बक्सेनुमा लैपटॉप में

मेल, फेसबुक और न जाने कौन-कौन सी साइटें खोल बार-बार रिफ्रेश करता रहता हूं- नेट भी स्लो चलती है काफी
बाहर

बाहर जाने को क्या कहते हो।
बाहर का अवसाद इस बंद ऑफिसनुमा घर से कम है क्या

कोई चाय दुकान भी नहीं है वैसा

लेकिन उस दुकान पर बैठ कर ही क्या

कोई दोस्त भी तो नहीं कि घंटों बैठ कर लूं उनसे बातें-बहस चलती रहे बेमतलब की ही सही

किसी रोज पैदल ही जब नापने निकलता हूं इस कस्बे को

वापसी में जेब में अवसाद भी रखा चला आता है।

फिर वो अवसाद रात के खाने को कसैला बनाने तक बना रहता है स्वाद में।

दोस्त-यार फोन पर बताते हैं- तु अच्छा काम कर रहा है। जमीनी काम करने के मौके कहां मिलते हैं सबको। लगा रहा।

मैं चिल्ला-चिल्ला कर घोषित कर देना चाहता हूं- नहीं कर पा रहा मैं कुछ भी।

कल ही जब डीएम ने गांव वालों को गिनाए थे कंपनी और मुआवजा से विकास के फायदे।

मैं जोर-जोर से चिल्ला कर कहना चाहता था उससे- बताओ तुम्हारे इस लोकतंत्र के सबसे पहले ठेकेदार पंडित नेहरु ने जो दिखाए थे सपने स्वीजरलैंड के, उसका क्या हुआ
शिक्षा, अस्पताल, नौकरी और एक बेहतर जिन्दगी का सपना दिखा कबतक लोगों को भूलाते रहोगे।

उधर इस राज्य का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी आजकल घोषित करने में लगा है- सिंगरौली को लंदन।

मैं उसके गिरेबान को पकड़ रसीद देना चाहता हूं एक झन्नाटेदार थप्पड़।
क्यों बे, चल बकवास बंद कर।

अरे हां, इसे कविता न समझ लेना ।
ये बस फर्स्टेशन है। सिंगरौली में होने का फर्स्टेशन ।
पेंटर भाई लोग रेखाओं में अभिव्यक्त कर पाते हैं इस अवसाद को तो वही एब्सट्रैक्ट-सा हो जाता है।
मैंने शब्दों को आड़े-तिरछे कर दिया है बस।

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