Saturday, September 28, 2013

Zindagi via cinema part 3

(कहानी के इस अंतिम भाग को सबसे अंत में ही पढ़े...पार्ट वन, पार्ट टू और पार्ट थ्री..)
हाईस्कूल के बाद बेगूसराय शहर के एक लॉज में ठिकाना बना। लॉज भी एक दम दीपशिखा (शहर का सबसे सस्ता सिनेमाहॉल) के पास लिया गया था। कभी घर को फोन करके तो कभी बिना बताए ही। हम सिनेमा हॉल जाते रहते। कभी ना-नु करने पर लॉज के दोस्तों का रेडिमेड तर्क तैयार रहता- दिन भर पढ़ो और रात को तो सोना ही है तो उस टाइम में फिल्म देख लो। स्पेशल, डीसी, बीसी। ज्यादातर स्पेशल ही देखते। ब्लैक में टिकट लेने की न तो हिम्मत थी न पैसे। हमेशा घंटों लाइन में खड़ा हो ही टिकट लिया है- स्पेशल वालों की लाइन में भीड़ हमेशा ज्यादा होती। एक बार स्पेशल (सबसे सस्ता) वाले लाइन  में खड़ा क्लास की एक लड़की ने देख लिया था। उसका तो नहीं पता लेकिन मैं लगभग टिकट खिड़की के पास पहुंच कर लौट आया था। एक धक्का सा लगा था स्टेट्स सिंबल पर। आजतक स्पेशल में लड़कियों का जाना खराब और असुरक्षित सा माना जाता है। हां, संडे को जरुर मॉर्निंग शो में स्टूडेंट पास लेकर बीसी टिकट पर सिनेमा देखता था। ये जिश्म, जहर, क्योंकि, हम आपके हैं कौन, ताल जैसे फिल्मों का दौर था।
सोचता हूं अगर ये पार्टनरशिप नहीं होता तो हम जैसे बिहारी लड़कों का क्या होता... कई बार पैसे न होने पर पार्टनरशिप में फिल्में भी देखी है बेगूसराय के उस विष्णु नगर वाले मोहल्ले में। दो लोग तैयार होते। एक ही टिकट पर दो लोग देखते सिनेमा। इंटरवल से पहले और बाद में बंटा था। सिनेमा के बाद दोनों आपस में बैठ एक-दूसरे को कहानी बता फिल्म पूरी करते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि जो दोस्त आधे पैसे लेकर फिल्म देखने गया वो इंटरवल के बाद निकला ही नहीं। कई दिनों तक आपस में तनातनी बनी रही। कई बार लॉज का कोई पैसे वाला बोरिंग फिल्म देखने चला जाता। बीच फिल्म से टिकट ले लौट आता। वो टिकट जिसके हाथ लगी वो उस दिन मुकद्दर का सिंकदर बना घूमता।
सिनेमा ने फिर जिन्दगी को मोड़ा
बेगूसराय घर के संपर्क में रहता था। चुपके से लगता है घर को बता आया मेरे फिल्म देखते जाने और बिगड़ते जाने की कहानी। घर को लगा लड़के को पटने भेजते हैं शायद सुधर जाय। बड़ा शहर आपको बड़े सपने दिखाता है घर वालों ने शायद सोचा होगा। मेरे लिए बड़ा शहर मतलब और भी ज्यादा बड़े परदे पर सिनेमा देखने का लोभ मात्र था। पटने में अशोका-राजधानी का गौरव हुआ करता था। लेकिन पहली फिल्म इमरान हाशमी की देखी थी- अक्सर, रिजेन्ट में। बोरिंग रोड से गांधी मैदान फिर वही पैडल मारते साईकिल पर सवार। नाइट शो और लॉज के गेट फांदने का चस्का तो बेगूसराय में लगा लिया था।
ब्लैक में बेचे हैं टिकट मैंने
अशोक में पच्चीस रुपये स्पेशल का रेट था। लाइन में करीब दो घंटे पहले तो लग ही जाना होता। एक बार रब ने बना दी जोड़ी के लिए लाइन में लगे हुए थे। एक आदमी को सिर्फ तीन टिकट देना अलाउ था। मेरी बारी आई तो किसी ने पीछे से कहा- भैया, आप अकेले हैं, दो मेरे लिए भी ले लीजिए। मैंने ले भी लिया लेकिन उस आदमी को टिकट दिया नहीं- हड़काया। मुझे क्या फायदा होगा। उस आदमी ने जल्दी से पच्चीस वाले टिकट के लिए पचास हाथ में थमा दिया। दो टिकट के सौ रुपये। मतलब खुद की सिनेमा फ्री तो देखो ही साथ ही, खाते-पीते रहने का इंतजाम भी। इसके बाद कई ऐसी फिल्में देखी जिसमें खुद और दोस्तों को फ्री में सिनेमा दिखला लाया। यह नयाब तरीका उन दिनों सिनेमा देखने के लिए वरदारन बनकर आया था मेरे लिए।
एक बार घर से भागने का मन हो गया। लगा इस दुनिया में जीना है तो घर से भागना ही पड़ेगा। बिना बताये निकल गया पटना के डेरा से। डेरा में भाई और मामा के साथ रहता था। दिन भर घूमता सोचता रहा। इस बीच महावीर मंदिर पर जाकर दो घंटे बैठ आया। वहीं से अशोका फिल्म देखने आ गया- चक दे इंडिया। फिल्म पूरी होते-होते भागना कायरपना लगने लगा। फिल्म देख गांधी मैदान आया सीधे। डायरी में कुछ पन्ने लिखे। कुछ मन में ठाना और शाम तक डेरा लौट गया। फिल्में हमारी जिन्दगी में कब हौले से आ बैठ जाती हैं हमें इल्म तक नहीं हो पाता।
अब पटने से निकल गया हूं। दिल्ली के दिनों में वसंत विहार प्रिया में कई बार मॉर्निंग शो देखने जाता रहा। दिल्ली में ही कई विदेशी फिल्मों का चश्का लगा। ईरानी माजिद मजीद जैसे कई बड़े फिल्मकारों से भेंट हुई वाया सिनेमा। आईआईएमसी और जेएनयू के दोस्तों की बदौलत सिनेमाई ज्ञान में अब बुद्धिजीविता आ गयी है। अब चेन्नई एक्सप्रेस अच्छी नहीं लगती। दिवाकर और अनुराग के शॉर्ट फिल्में काफी पसंद आती हैं। इधर लूटेरा और मद्रास कैफे देख मन गदगद है। कई बार बौद्धिक बनने के लिए नांनटिज की फिल्मों को कूड़ा-करकट तक कह देता हूं लेकिन आज भी दूरदर्शन पर देखी वो फिल्में कहीं भीतर अंदर फंसी हुई हैं।
फिलहाल पसंदीदा फिल्मों या यादगार फिल्मों की फेहरिस्त काफी लंबी होने के बावजदू भी कुछ नाम रख दे रहा हूं-
अर्जून पंडित- वजह पूरे पांच साल तक मेरे जिन्दगी की जगह ही बदल कर रख दी। शायद आदमी भी बन पाया।
चक दे इंडिया- जिसको देखने के बाद घर छोड़ने का प्रोग्राम कैंसल किया। भागो नहीं दुनिया बदलो की ठानी है।
गोलमाल- जितनी बार देखता हूं उतनी बार तारोताजा
चश्मे बद्दुर- एक ऐसी फिल्म जिसे सौ बार लगातार देख सकता हूं।
द डिक्टेटर- चार्ली की हँसी के पीछे छिपे दर्द को उकेरने वाली शानदार फिल्म
चिल्ड्रेन ऑव हैवन्स, ब्यूटीफूल चिल्ड्रेन- बच्चों के बहाने ईरानी जिन्दगी और तकलीफों को चित्र की तरह कैनवास पर उकेर देने के लिए
मोटरसाईकिल डायरिज- कॉमरेड चे की कहानी
लूटेरा- बेहतरीन..बेहतरीन...बेहतरीन
मद्रास कैफे- हिन्दी फिल्मों का विदेश
हंगामा
हेरी फेरी
दो गज जमीन


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