Thursday, July 2, 2015

खालीपन को लादे एक दिन

मन के खालीपन का क्या किया जाये? कई दिन ऐसे होते हैं जब मन भारीपन लादे चलता है। बिना किसी वजह। बेमतलब ही खोया रहता है। पूछोगे कहां ? तो उसका पार भी नहीं चलता। बस भारी है तो है। धीरे-धीरे किसी गंभीर बिमारी की तरफ बढ़ने जैसा लगता है। कोई रहस्य है जिसके भीतर पहुंचना है। लेकिन रास्ते के किसी भूल-भूलैया में चक्कर काट रहे हैं।
एक सपाट जीवन जीने में सुख है। बहुत सुख है। आराम भी है। जहां सबकुछ बंधा-बंधाया है। लेकिन कुछ भी नया नहीं। पिछले गुरुवार को भी ऐसा ही दिन था...जो बीत गया था ऐसे ही जैसे आज बीत जाएगा। ऐसे ही अगले हफ्ते भी बीत जाएगा।
मन है कि भाग जाना चाहता है। कभी गाँव की तरफ। खेतों, आम के गाछी (बगान), बाँस के जंगलों, नदी के उस पार दूर बालू की रेतों की तरफ। और जो वहां पहुंचो तो यही मन कहेगा चलो शहर की तरफ। रोशनी, बाजार, स्ट्रीट लाइफ, जगमग जीवन की तरफ।
पटना वाला डेरा कितना अच्छा था। शहर और गाँव के बीच का पड़ाव। दो स्टेशनों के बीच का एक वेटिंग रूम। जिसमें बैठने से पहले पता था कि यहां रुकना नहीं है। चल देना है के भाव के बावजूद उस वेटिंग रूम में बैठने भर की जगह मिल जाने की खुशी किसी भी मंजिल पर पहुंचने से कम नहीं थी। तमाम अभावों, दिक्कतों को झेलते हुए भी एक अजीब सा सुकून था। एक हजार दिक्कतों के बावजूद, उस डेरे में सपने थे। खूब सारे। नये-नये। हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले। जैसा।
खूब सारा संघर्ष था। रोज-ब-रोज जिन्दा रहने की लड़ाई थी। अपना अस्तित्व बचा लेने की कसक। किताबों, अखबारों, पत्रिकाओं के पुलिंदों में दुबके हुए सपनों की तरफ जाने वाले रास्तों को तलाशने की ललक थी।
दोस्त-यार थे। बिना किसी सवाल-जवाब के। हाजिर रहने वाले। बिना कोई मुकदमा चलाये, बिना जजमेंटल हुए साथ-साथ छोटी-छोटी चीजों पर लड़ते-झगड़ते साथ चलते।
बड़े शहरों में मिले दोस्तों की तरह नहीं, जो अपना कटघरा साथ लिये चलते हैं। मौका मिला नहीं कि मुकदमा दायर, फैसला जारी। बड़े शहरों में सबकुछ वक्त के हिसाब से तय होता। आपके कितने दोस्त हैं, ये आपका वक्त तय करेगा, आप किसके दोस्त हैं ये भी आपका वक्त, ओहदा तय करेगा..यहां कुछ भी हम खुद तय नहीं करते, सबकुछ हमारा वक्त, हमारा अच्छा-बुरा तय करता है। 
जीवन के सपाटपन पर लिखते-लिखते कहां बह गया। सुख और दुख के बिताये क्षणों को याद कर नॉस्टेलेजिक हो जाना एक तरह से वर्तमान से भागने जैसा है। उन कोनों में छिपकर बैठ जाने जैसा जहां अँधेरा हो और हम किसी के डर से वहां दुबक गए हों।
और जीवन से ऊब इतनी बढ़ी है कि मन होता है किसी शमशान में जा बैठूं। हफ्तों वहीं बैठा रहूं...जीवन का मर्म हर रोज की दुनिया में रहते हुए तो समझ नहीं आया..

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