Thursday, July 9, 2015

रामविलास चा का किचेन


बैचलर या मर्द किचन का गंध कुछ अलग सा होता है। अधकटे प्याज, हफ्ते भर पहले लाये गए बैंगन, सिंक में पड़े बर्तन, गैस चूल्हे पर छिटक आया दाल, रात का बचा खाना और मैगी-ब्रेड-चूड़ा तक पसरा खाने का संसार।
आज भोपाल के एक बैचलर दोस्त के बड़े से किचेन में जानी-पहचानी गंध महसूस की, जो अरसा पहले बेगूसराय के पार्टी दफ्तर कार्यानंद भवन में महसूस करता था। हम जब-तब बेगूसराय किसी रैली या एक्जाम देने के बहाने जाते रहते। घर से कभी दूध, कभी फटे दूध का पनीर या फिर मलाई जैसा कुछ डब्बे में बंद कर ले जाते। वहां रामविलास चा थे। बीस-तीस साल से जिले के पार्टी नेताओं के खाने-पीने की जिम्मेवारी संभाले।
हमें देखते ही प्यार से बुलाते लेकिन रसोई की व्यवस्था सिर्फ हॉलटाइमरों के लिए होती।
रामविलास चा पूछते- भूखो लगलो हन?
हम कहते- न, घर से खाईये के चलबे करलिअई।
चचा- कै बजे।
हम- 6 बजिया पकड़ के। ( 6 बजे बेगूसराय के लिए पैसेंजर ट्रेन खुलती थी)
चचा- अरे बाप रे। रुक-रुक।
फिर चुपचाप रसोई के भीतर बुलाते। चार-पांच बची हुई रोटी होती, सब्जी कभी बचा देखा नहीं। शायद कॉमरेड लोग सब्जी ज्यादा खाते होंगे या कम बनता ही होगा। (सब्जी चंदा में कम ही मिलता है-गेंहू, चावल इतना नहीं)
फिर हम अपना पनीर-मलाई-दही वाला डब्बा निकालते। चचा और हम साथ-साथ खाते। वो घर-गांव-पार्टी सबका हाल पूछते रहते और हम भी अपनी छोटी-सी समझ के हिसाब से बड़ी-बड़ी बातें बताते रहते।
(ब्लॉग में फिर कभी रामविलास दा और पार्टी दफ्तर पर डिटेल में ....)

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