Sunday, July 19, 2015

आधी रात को

सबकुछ कितना बेवजह है। जैसे ये लिखना। आधी रात लिखने बैठ गया हूं। घोर अकेलेपन से परेशान हो। हालांकि ये अकेलापन कई बार खुद का अर्जित किया हुआ लगता है। जैसे मैंने ही प्रयत्न कर-कर के लोगों को खुद से दूर किया हो। अभी-अभी ब्रेड पिट की फिल्म फ्यूरी खत्म की है। युद्ध की भयानक दास्तां वाली फिल्म। युद्ध की भयानकता जब खत्म हुई तो कमरे में शांति है और जीवन में भी। भयानक शांति। लेकिन जीवन में शांति हमेशा खामोशी की  प्रतीक नहीं होती। कभी-कभी तो इस अकेले की शांति में भयानक शोर सुनायी देता है।
वैसे ही शोर वाला शांति पसरा है कमरे में भी। दो दिन दिल्ली में रहकर माँ वापस लौट गयी है। दोपहर में माँ को छोड़ने गया था। माँ भी अजीब है। एयरपोर्ट के भीतर शीशे की दिवार से तब तक देखती रही जबतक मैं नजरों से ओझल न हो गया। मैं भी थोड़ी देर रुक देखता रहा। भर रास्ते हम में से किसी ने कहा कुछ  नहीं। लेकिन वहां कुछ पल के लिये शीशे के आर-पार हम दोनों ठहर से गए।  बोझिल मन से ही मुड़ना पड़ा। नहीं तो शायद घंटों जमे रह जाते। पीछे मुड़ा तो लगा माँ मेरे पीठ को ताक रही है। पीठ पर नजरों की आहट सी महसूस हुई। अभी भी आँखों के सामने माँ का शीशे के उस पार से ताकने का दृश्य ही  है। फ्लैशबैक में पिछले दो दिन का सारा हिसाब-किताब चल रहा है। ये दो दिन ऐसे गुजरे मानो मुट्ठी में रेत को पकड़ने की कोशिश की गयी हो।
लौटते में एक मन हुआ कि पैदल चला जाय। बारिश में भीगते हुए घर लौटा जाये। शायद, ऐसे ही भीतर की बारिश से बचा जा सकेगा। लेकिन एयरपोर्ट को शहर से दूर खदेड़ दिया गया है। वहां से कोई नहीं लौट पाता पैदल चलकर।
माँ थी तो कमरा घर सा था। किचेन, कमरे का फर्श, बेडशीट, तकिये का कवर, किवाड़ में लटके परदे। सबकुछ घर सा हो गया था दो दिनों के लिये। लेकिन अब वे भी उदास लटके पड़े हैं। दिन में पहने गए कपड़े बेडशीट पर ही पड़े हैं, कमरे में लूढ़कता गेंद एक कोने में चुपचाप दुबका सा है, मेज पर पड़ी दवाईयां- समय पर खाने की मां की हजार हिदायतों के बावजूद झोले में ही रखी है, डायरी, माचिस सब बिना यूज हुए फर्श पर गिरे हैं। ऐसा लगता है न जाने कब से इन चीजों का इस्तेमाल ही नहीं हुआ।
दोपहर बाद एक नये दोस्त से मिलने चला गया। उससे पहले राँची से दोस्त आये। उससे कुछ देर बात हुई। शाम को एक दोस्त ने जीवन के फ्रेम से हटने को कहा- मन टक से रह गया, एक दोस्त ने डिनर पर बुलाया था। एक रुटिन सा गया, लौट आया और … के साथ आज नॉर्मल बातचीत हुई। लेकिन एक तय वक्त के बाद फिर अकेला हो गया।
मन उदास रहा। मैंने आज फिर कहा, मुझे कोई नहीं समझ पाता।
उसने इसे रुटिन की तरह लिया।
एक मन हजार चीजें करने को चाहता है, दूसरा बिल्कुल सपाट पड़े रहने को कहता है। अँधेरे में कुछ देर बैठा रहा। एक धीमी पीली रौशनी कमरे में मौजूद थी। कमरे के पीलेपन ने मन के भारीपन को और बढ़ा दिया है। मैं झट से लाईट ऑन करता हूं।
कई बार लगता है मैं चूक गया हूं। दोस्ती करने में, प्रेम निबाहने में, लिखने में, पढ़ने में……जीने में…….
ये सब क्यों लिख रहा हूं, बेमतलब का। लेकिन दरअसल मुट्ठी एकदम खाली सा लगता है। तो जो ये जिया हुआ आज का वक्त है, दिन का ब्यौरा उसे ही दर्ज करने की कोशिश कर रहा हूं। हां, जानता हूं बेमतलब ही।

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